इंदौर में एमबीबीएस प्रथम वर्ष के एक छात्र की रैगिंग को लेकर पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट चर्चा में आने के बाद कालेजों में रैगिंग पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। इस पोस्ट में छात्र ने दावा किया था कि पिछले तीन महीनों से उसे बुरी तरह प्रताड़ित किया जा रहा है और वह मौत के करीब पहुंच गया है। मामले की गंभीरता को देखते हुए इंदौर के जिलाधिकारी ने जांच के आदेश दिए थे। यह एक संदर्भ है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने रैगिंग पर अंकुश लगाने और ‘एंटी-रैगिंग सेल’ और ‘एंटी रैगिंग हेल्पलाइन’ भी शुरू की थी।
सजा के तौर पर दोषी छात्रों को तीन साल जेल और जुर्माने का प्रावधान है, नियमों का पालन न करने वाले संस्थानों की मान्यता भी रद्द हो सकती है। हैरानी की बात है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद रैगिंग थम नहीं रही। कई बार तो रैगिंग के नाम पर ऐसी अमानवीय हरकतें भी होती हैं कि छात्र परेशान होकर अपनी जान तक दे देते हैं। सवाल है कि आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा? क्या इसे रोकने के लिए बनाए गए नियम-कानून पर्याप्त नहीं हैं या उनका सख्ती से पालन नहीं हो रहा है?
बीते साल गुजरात से रैंगिग का आया था मामला
गुजरात के पाटन में बीते नवंबर में जब एक मेडिकल कालेज में रैगिंग के कारण अठारह साल के एक छात्र की मौत हो गई, तो उम्मीद जगी थी कि ऐसे मामलों पर रोक लगेगी। मगर उसके बाद भी जिस प्रकार आए दिन देशभर से रैगिंग के मामले सामने आ रहे हैं, उन्हें देखते हुए तत्काल कड़े कदम उठाने की जरूरत महसूस होने लगी है, ताकि नए सपनों के साथ कालेज में पहला कदम रखने वाले छात्रों के मन से रैगिंग के खौफ को पूरी तरह दूर किया जा सके। शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर लगाम कसने के लिए सख्ती बेहद जरूरी है। क्योंकि हर साल ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें रैगिंग के शिकार हुए छात्र अवसाद का शिकार हो जाते हैं। कुछ डर कर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, तो कुछ मौत को गले लगा लेते हैं। विडंबना है कि रैगिंग हमारे शिक्षा संस्थानों की कड़वी सच्चाई है और कड़ाई बरतने के बावजूद खत्म नहीं हो रही है।
रैगिंग के अधिकतर मामलों में देखा जाता है कि कालेज प्रशासन का सारा प्रयास घटनाओं को छिपाने, ढकने और नकारने का ही होता है। कालेज प्रबंधन की यही प्रवृत्ति रैगिंग करने वाले छात्रों का हौसला बढ़ाती है। प्राय: देखने को मिलता है कि कालेज या तो दोषियों के खिलाफ कोई कड़े कदम उठाते ही नहीं है या मामले पर लीपापोती करते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि कालेज प्रबंधन के इसी गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण ही रैगिंग के मामले बढ़ रहे हैं। दरअसल, रैगिंग करने वाले छात्रों के खिलाफ प्राय: कठोर कार्रवाई नहीं होती, जिससे उनके हौसले बुलंद रहते हैं और यही कारण है कि रैगिंग का स्वरूप अब अधिक भयावह हो गया है।
रैंगिग करने पर सजा का है प्रावधान
हैरानी की बात है कि रैगिंग पर प्रतिबंध लगाने को लेकर एक निजी सदस्य का विधेयक 2005 से संसद में लंबित पड़ा है। दूसरी ओर शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने के लिए सख्त अदालती दिशा-निर्देश हैं। फिर भी जिस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों से कालेजों में रैगिंग के मामले सामने आ रहे हैं, इससे चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। खासकर मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में रैगिंग के सर्वाधिक मामले सामने आ रहे हैं। ‘एंटी रैगिंग हेल्पलाइन’ पर किसी न किसी कालेज से रैगिंग की शिकायतें लगातार मिलती रही हैं। हिमाचल के एक मेडिकल कालेज में वर्ष 2009 में रैगिंग से एक छात्र की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी शिक्षण संस्थानों में रैगिंग विरोधी कानून सख्ती से लागू करने के आदेश दिए थे, जिसके तहत दोषी पाए जाने पर ऐसे छात्र को तीन साल के सश्रम कारावास और आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया था।
अदालत के दिशा-निर्देशों के तहत किसी छात्र के रंग-रूप या उसके पहनावे पर टिप्पणी करके उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना, उसकी क्षेत्रीयता, भाषा या जाति के आधार पर अपमान करना, उसकी नस्ल या पारिवारिक पृष्ठभूमि पर अभद्र टिप्पणी या उसकी मर्जी के बिना जबरन किसी प्रकार का अनावश्यक कार्य कराया जाना रैगिंग के दायरे में शामिल किया गया है। फिर भी रैगिंग के बढ़ते मामले हैरान करते हैं। ऐसी घटनाएं नए छात्रों के लिए काली स्मृतियां बन रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कालेजों में रैगिंग रोकने के लिए 11 फरवरी 2009 को पहली बार बेहद कड़ा रुख अपनाते हुए कहा था कि रैगिंग में मानवाधिकार हनन जैसी गंध आती है।
रैंगिग के नाम पर दुर्व्यवहार को रोकना कॉलेज प्रशासन की जिम्मेदारी
अदालत ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर रोक लगाने के लिए राघवन समिति की सिफारिशों को सख्ती से लागू करने का निर्देश देते हुए कहा था कि वे रैगिंग रोकने में विफल रहने वाले शिक्षण संस्थाओं की मान्यता रद्द करें। खंडपीठ ने रैगिंग में शामिल छात्रों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने तथा जांच को प्रभावित करने वाले विद्यार्थियों को संस्थान से निलंबित करने की भी हिदायत देते हुए प्रथम दृष्टया साक्ष्य मिलने पर संबंधित छात्र को पुलिस को सौंपने और उसके खिलाफ तत्काल जांच शुरू करने का निर्देश भी दिया था। पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में कहा था कि जांच को जो भी कोई प्रभावित करने या टालने का प्रयास करे, उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जाए।
नई शिक्षा नीति में हायर एजुकेशन को लेकर कई विरोधाभास, समावेशिता और व्यवहार्यता को लेकर गंभीर चिंता
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी रैगिंग के खिलाफ सख्त नियम बनाए हैं। वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीकृष्णन समिति की सिफारिश के आधार पर रैगिंग पर प्रतिबंध लगाते हुए इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान करते हुए अपने आदेश में स्पष्ट कहा था कि शिक्षा परिसरों में रैगिंग रोकना शिक्षा संस्थानों का नैतिक ही नहीं, कानूनी दायित्व भी है। इसे न रोक पाना दंडनीय अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा और ऐसे संस्थानों की संबद्धता तथा उन्हें प्रदत्त सरकारी वित्तीय सहायता समाप्त की जा सकती है। अदालत का स्पष्ट कहना था कि रैगिंग के नाम पर किए जाने वाले दुर्व्यवहार को रोकना कालेज प्रबंधन, प्राचार्य तथा छात्रावास अधीक्षकों की जिम्मेदारी बनती है। एक विद्यार्थी कितने सपने संजो कर किसी कालेज की दहलीज पर पहला कदम रखता है और उससे भी अधिक उसके माता-पिता या अभिभावकों के अरमान उससे जुड़े होते हैं, लेकिन रैगिंग रूपी दानव एक ही झटके में उन सपनों और उम्मीदों पर भारी पड़ जाता है।
राज्य सरकारों और कालेज प्रशासन को समय रहते जागना होगा। केवल शिक्षण संस्थानों की विवरणिका में ही रैगिंग पर प्रतिबंध की बात कहने और नोटिस बोर्ड पर इस संबंध में एक नोटिस चिपका देने भर से काम नहीं चलने वाला। जरूरत इस बात की है कि कालेज प्रशासन रैगिंग में लिप्त पाए जाने वाले छात्रों के खिलाफ कठोर कदम उठाएं, ताकि सभी कालेजों के दूसरे छात्रों के लिए भी यह सबक बने।