रोहित कुमार

अपने बीसवें साल में कदम रखते ही इक्कीसवीं सदी वैश्विकता की व्यापकता में अपना गांव-घर खोजने लगी है। मैनचेस्टर के कपड़ा मिलों के मालिकों की मूर्तियां तोड़ कर करघा और सूत की तरफ लौटने की बात हो रही है। कोरोना काल में विशालकाय कारखानों के रुकने के बाद उस शोक की तरफ भी देखा जा रहा है जो लोक अभी तक भुगत रहा था। पूर्णबंदी के बीच देश के बुनकरों की बदहाली की आवाज भी गूंजी और इनकी मदद के लिए आगे बढ़े वो हाथ जो अब तक इनके काते-बुने सात गज की साड़ी पहन कर अपनी अस्मिता का सुकून महसूस करती हैं। चेतना कीर उन लोगों में से हैं, जिन्होंने कोरोना की महामारी के समय उन बुनकरों के हाथ मजबूत करने की सोची जो अभी असहाय स्थिति में हैं।

केरल के हस्तकरघा से जुड़े कासवु साड़ी के बुनकर अभी परेशानहाल हैं। लेखिका, स्तंभकार और ब्लॉगर चेतना कीर ने इन बुनकरों की मदद के लिए सोशल मीडिया मुहिम ‘हैंडलूम विद हर्ट्स’ भी शुरू की है। केरल का कुथमपल्ली कासवु कला का केंद्र है। पारंपरिक रूप से कासवु एक नरम, सफेद या आफ-वाइट कपड़ा होता है जिस पर सोने की जड़ी का काम होता है। इस कपड़े से बनी साड़ियों पर राधा-कृष्ण की भक्ति से जुड़ी कला उकेरी जाती है। इन साड़ियों के लिए तेलंगाना के बुनकरों ने मोरपंखी कलमकारी के ऐप्लिक वर्क का ब्लाउज भी तैयार किया है। इनकी रंगाई में सब्जियों से बने प्राकृतिक रंग का इस्तेमाल हुआ है। चेतना ने इस लोक कला को बचाने की अपील की है।

उनका कहना है कि हम इन बुनकरों के लिए एक पैसा भी खर्च करते हैं तो इन्हें अपने जीवन जीने का सहारा मिलता है। अगर हमें अपनी लोक और परंपरा को बचाना है तो इन बुनकरों को बचाना होगा। इनसे सीधे साड़ियों की खरीद कर स्थानीय अर्थव्यवस्था को मदद पहुंचानी बहुत जरूरी है। चेतना साड़ी पर आधारित एक ब्लॉग भी चलाती हैं। उनका ब्लॉग एक स्त्री का साड़ी प्रेम भर नहीं है बल्कि उसमें अर्थव्यवस्था और संस्कृति की पूरी समझ है। चेतना उत्तर भारत में दक्षिण भारत की कला के पुल का भी काम कर रही हैं।

केरल की पारंपरिक कला को बचाने के लिए वो सोशल मीडिया का सहारा लेकर कृष्णभक्ति से जुड़े उत्तर भारत को केरल से जोड़ रही हैं। चेतना का मानना है कि सात गज की साड़ी महज एक परिधान नहीं बल्कि एक पूरा सांस्कृतिक और आर्थिक आख्यान भी हो सकती है।