ज्योति सिडाना

सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक मंचों से महिला सुरक्षा के नारे लगाना या संविधान में संशोधन करके उन्हें संपत्ति में अधिकार दे देना ही महिला सशक्तीकरण को मूर्त रूप नहीं दे सकता। इसके लिए समाज, राज्य, प्रशासन, शिक्षण संस्थानों और स्वयं महिलाओं को ठोस कदम उठाने होंगे। जब तक पुरुष को तार्किक, स्वतंत्र और सार्वजनिक इकाई और महिला को एक भावनात्मक, आश्रित और निजी इकाई के रूप में देखा जाता रहेगा, इस दिशा में सुधार होना मुश्किल है।

सदियों से सुनते आए हैं कि जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। तो फिर जहां आए दिन नारी का अपमान होता है, उसे निर्वस्त्र किया जाता, उसके साथ पशुवत व्यवहार होता, बलात्कार किया जाता, उसे डायन कह कर समाज से बहिष्कृत किया जाता है, ऐसे समाज में किसका निवास होता है? आए दिन महिलाओं के साथ होने वाली क्रूरता पर यह समाज, राज्य और प्रशासन क्यों मौन रहता है।

खुद को विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था कहने वाला देश इस तरह की घटनाओं पर क्यों चुप्पी साध लेता है? लव जिहाद के नाम पर लड़कियों के टुकडे-टुकड़े कर देना, अलग धर्म या जाति में विवाह करने पर हत्याएं करना, दो गुटों की लड़ाई में महिलाओं को शिकार बनाना समाज की कुंद मानसिकता को दर्शाता है, जिसे न शिक्षा बदल सकी और न ही कानून का डर।

रोज नए तकनीकी आविष्कार करने या अंतरिक्ष यान छोड़ने से ही कोई देश विकसित और सभ्य नहीं बन जाता, बल्कि सभ्य नागरिक की तरह व्यवहार भी करना पड़ता है। हाल ही में मणिपुर में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके सड़क पर घुमाना सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है। ऐसी अनेक घटनाएं इतिहास में रोज दफ्न होती हैं और सभ्य तथा विकसित कहा जाने वाला समाज मौन रहकर तमाशा देखता रहता है।

और जब ये घटनाएं मीडिया के जरिए सार्वजानिक हो जाती हैं तो पक्ष-विपक्ष इन पर राजनीति खेलने लगते हैं। तब भी महिला मुद्दे हाशिये पर चले जाते हैं। एक प्रवचनकारी बाबा का यह कहना कि कुंवारी लड़की एक खाली प्लाट है और विवाहित महिलाएं रजिस्ट्रीशुदा प्लाट, क्या यह एक सभ्य समाज की भाषा है? आदिम या बर्बर कहे जाने वाले समाज में भी इस तरह की सोच नहीं थी, जैसी अब दिखाई देने लगी है। आज के वैज्ञानिक और आधुनिक समाज में भी महिलाओं को खरीद-फरोख्त की वस्तु मानना दिवालिएपन की निशानी ही कही जा सकती है।

इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लड़कियों ने शिक्षा के माध्यम से रोजगार, संपत्ति में अधिकार, कुछ हद तक निर्णय लेने का अधिकार भले हासिल किया हो, लेकिन पुरुष के साथ बराबरी, समानता आज भी उसे हासिल नहीं है। फिल्म जगत, टेलीविजन, खेल, राजनीति, स्कूल-कालेज या फिर कोई भी कार्यालयी क्षेत्र हो, हर जगह महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले सामने आना सामान्य-सी बात हो गई है।

अभी कुछ समय पूर्व ही दिल्ली में भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष और सांसद पर एक नाबालिग समेत सात महिला पहलवानों ने यौन शोषण के आरोप लगाए। महिला खिलाड़ियों के साथ दुर्व्यवहार की घटना को लेकर विरोध प्रदर्शन चर्चा में था, पर नतीजा शून्य। अनेक बार यह भी देखने में आया है कि शारीरिक शोषण होने के कारण कई महिला खिलाड़ियों ने आत्महत्या तक कर ली।

और इस पर मुश्किल यह है कि अगर दोषी व्यक्ति सत्ता से संबद्ध है, शक्तिशाली है या किसी उच्च पद पर बैठा है, तो फिर कभी मामला बनता ही नहीं है, साक्ष्य मिटा दिए जाते हैं, गवाह बदल जाते हैं, अंत में मुकदमा खारिज और दोषी दोषमुक्त हो जाता है। भले सेमिनारों, राजनीतिक मंचों और अकादमिक चर्चाओं में महिला सशक्तीकरण की बातें की जाती हैं, अब महिला कमजोर नहीं है, उसने सभी क्षेत्रों में जीत हासिल की है, जैसे नारे लगाए जाते हैं, पर सच क्या है यह महिलाओं के साथ आए दिन होने वाली घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है।

इतिहास साक्षी है कि जब भी दो देशों या राज्यों के बीच युद्ध या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है या फिर दो गुटों या समूहों में संघर्ष होते हैं, महिलाओं को हिंसा के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। हर बार समाज में चाहे जातिगत हिंसा हो, धार्मिक या क्षेत्रीय हिंसा, सबसे ज्यादा दंश महिलाओं को क्यों झेलना पड़ता है।

मध्य प्रदेश के रतलाम में एक स्कूल वाहन चालक ने चार साल की बच्ची के साथ दुराचार किया और यूपी के शाहजहांपुर में सरकारी स्कूल में एक दर्जन से ज्यादा नाबालिग छात्राओं के साथ यौन शोषण की घटना सामने आई थी। इन घटनाओं के बाद छात्राओं के अभिभावक भयभीत हैं और अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतरा रहे हैं। कितनी लंबी लड़ाई के बाद तो लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा है और इस तरह की घटनाओं में होती वृद्धि फिर से कहीं उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित न कर दे।

लेखिका अमृता प्रीतम का मानना था कि सभ्यता का युग तब आएगा जब औरत की मर्जी के बिना कोई उसके जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा। पर क्या वास्तव में ऐसा हो पाया है या कभी हो पाएगा, क्योंकि महिलाओं को तो पुरुष समाज अपनी संपत्ति मानता है। जो स्वयं किसी की संपत्ति हो, उसे निर्णय लेने का अधिकार या विरोध करने का अधिकार तो होता ही नहीं है।

यह विरोधाभास ही तो है कि एक तरफ महिला के नेतृत्व में चंद्रयान भेजने की घटना को मीडिया में जोर-शोर से प्रसारित किया जाता है कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुष से कम नहीं हैं और दूसरी तरफ आदिवासी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार कर नग्न घुमाया जाता है, जिसकी चर्चा करना या जिसके विरुद्ध आवाज उठाना भी न समाज को गवारा हुआ और न ही राज्य या सत्ता को।

कितना शर्मनाक है कि जिस घटना पर विदेश भी शर्मसार है, उस पर अपने ही देश में राजनीति की जा रही है। क्यों हर बार महिला और दलित के मुद्दों का राजनीतिकरण कर दिया जाता है? लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के बावजूद मीडिया सुबह से शाम तक गैरजरूरी मुद्दों को ही प्रचारित और प्रसारित करता रहता है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि समाज में क्या हो रहा है।

रोजमेरी और अन्य नारीवादी विचारक मानती हैं कि महिलाओं के शोषण को केवल एक धरातल पर नहीं समझा जा सकता, बल्कि वैचारिकी, राजनीति, उद्योगीकरण, कृषक संबधों, धर्म, मिथकीय साहित्य आदि संदर्भों के साथ महिला शोषण और लैंगिक असमानता की गहनता को समझा जा सकता है। और इन सब आधारों पर ही पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ और महिला को अधीनस्थ इकाई के रूप में स्थापित करता आया है।

भारत निर्वाचन आयोग की एक रिपोर्ट (अक्टूबर 2021 तक की स्थिति) के अनुसार महिलाएं संसद के सभी सदस्यों के मात्र 10.5 फीसद का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह भी एक वजह है कि राजनीति में महिलाओं की आवाज सदा हाशिये पर रही है। महिलाओं को मात्र यौन इच्छाओं की पूर्ति का साधन मानकर उन पर अपना स्वामित्व स्थापित करना संवैधानिक और नैतिक दृष्टि से कहां तक युक्तिसंगत है? संविधान में लिखा है कि कानून की नजर में सभी समान हैं, जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता तो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाओं को बहुत पहले ही कम किया जा सकता था, जबकि इनमे तो निरंतर वृद्धि ही हो रही है।

नारीवादी ड्रूसिला कार्नेल के अनुसार कानून कभी प्राकृतिक नहीं होता, लैंगिक विभाजन की दृष्टि से कानून पुरुषवादी है। सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक मंचों से महिला सुरक्षा के नारे लगाना या संविधान में संशोधन करके उन्हें सपत्ति में अधिकार दे देना ही महिला सशक्तीकरण को मूर्त रूप नहीं दे सकता। इसके लिए समाज, राज्य, प्रशासन, शिक्षण संस्थानों और स्वयं महिलाओं को ठोस कदम उठाने होंगे। जब तक पुरुष को तार्किक, स्वतंत्र और सार्वजनिक इकाई और महिला को एक भावनात्मक, आश्रित और निजी इकाई के रूप में देखा जाता रहेगा, इस दिशा में सुधार होना मुश्किल है।