यौन हिंसा से जुड़े अनेक मामलों में जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते सुनवाई के खिंचते जाने के बीच ही महिला और उसके परिजन हताश हो जाते हैं। विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर है।

महिलाओं के जीवन से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दों को लेकर भी कई मोर्चों पर अक्सर गंभीरता नहीं दिखती। इस पीड़ादायी समय में त्वरित कार्रवाई, न्यायिक निर्णय या सामाजिक सहयोग मिलने के पक्ष पर सरोकारी सोच का नदारद होना बहुत कुछ बदलकर भी कुछ न बदलने जैसे हालात को सामने रखता है। बीते दिनों उच्चतम न्यायालय की एक टिप्पणी के बाद कानूनी प्रक्रिया से जुड़ा एक विचित्र रवैया चर्चा का विषय बना।

दरअसल, शीर्ष अदालत ने गर्भावस्था खत्म करने की मांग को लेकर एक बलात्कार पीड़िता की याचिका पर गुजरात उच्च न्यायालय के रवैये पर नाराजगी जताई। शीर्ष अदालत के आदेश में कहा गया कि अजीब बात यह है कि हाई कोर्ट ने इस मामले में समय की महत्ता के तथ्य को नजरअंदाज करते हुए मामले को बारह दिन बाद सूचीबद्ध किया, जबकि हर दिन की देरी बेहद अहम थी।

गौरतलब है कि बलात्कार का दंश झेल रही याचिकाकर्ता ने गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग करते हुए उस समय अदालत का दरवाजा खटखटाया, जब वह छब्बीस सप्ताह की गर्भवती थी। ऐसे में सुरक्षित गर्भपात के लिए एक दिन की देरी भी घातक होती। बावजूद इसके उच्च न्यायालय ने कारण बताए बिना या अपना आदेश जारी किए बिना ही उसकी याचिका खारिज कर दी थी। जबकि शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक रूप से भी यह स्थिति पीड़ा देने वाली है।

आपराधिक मामले हों या बलात्कार की घटनाओं से जुड़े वाकयों की सुनवाई, विलंब की स्थितियां महिलाओं के लिए कई और समस्याएं खड़ी करने वाली होती हैं। शारीरिक दुर्व्यवहार का शिकार होने के बाद गर्भपात करवाने की इजाजत मांगने के ऐसे मामलों में देरी के बहुत ही घातक परिणाम हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में कई बार परिजन और पीड़िता असुरक्षित गर्भपात का रास्ता भी चुन लेते हैं।

चिंतनीय है कि हमारे यहां असुरक्षित गर्भपात के आंकड़े पहले ही तकलीफदेह बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या रपट, 2022 के अनुसार भारत में हर दिन असुरक्षित गर्भपात की वजह से लगभग आठ महिलाएं मौत के मुंह में समा जाती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 5 के आंकड़े भी बताते हैं कि देश में होने वाले कुल गर्भपात में एक-चौथाई से ज्यादा घरों में ही होते हैं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि यौन हिंसा का शिकार हुई महिला के मामले में असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनने की ही आशंका ज्यादा होती है।

गौरतलब है कि 2021 में संशोधन के बाद गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम बलात्कार पीड़िता के लिए चौबीस सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है। लेकिन उचित मामलों में संवैधानिक न्यायालय द्वारा चौबीस सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है।

ज्ञात हो कि वर्ष 2022 में केरल उच्च न्यायालय ने भी चिकित्सा बोर्ड की अनुशंसा के बाद एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता की अट्ठाईस सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की भी अनुमति दी थी। बीते साल ऐसे एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी तेरह वर्षीया बलात्कार पीड़िता को छब्बीस सप्ताह के बाद गर्भावस्था को चिकित्सीय रूप से समाप्त करने की अनुमति देते हुए कहा था कि अगर उसे कम उम्र में मातृत्व का बोझ उठाने के लिए मजबूर किया गया तो यह उसके दुख और पीड़ा को और बढ़ाने वाली स्थिति होगी।

विडंबना है कि घर हो या बाहर, एक ओर महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी ही है। सामूहिक बलात्कार से जघन्य मामलों की सुनवाई के लिए भी न केवल तारीख मिलना मुश्किल हो जाता है, बल्कि फैसला आने में बरसों लग जाते हैं।

व्यवस्था से मिली यह अंतहीन प्रतीक्षा बहुत सारी स्त्रियों का मनोबल तोड़ती है। इन उलझाऊ हालात को देखकर कई महिलाएं अपने प्रति हो रहे अत्याचार का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। दुखद यह भी है कि नाबालिग बच्चियों के खिलाफ हुई बर्बरता के मामले में भी यही ढुलमुल रवैया देखने को मिलता है।

कम उम्र की बच्चियों के विरुद्ध आपराधिक घटनाओं की गंभीरता को समझते हुए कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने भी विकृत मानसिकता वाले लोगों को लेकर सख्त टिप्पणी की थी। अदालत कहा था कि यौन शोषण या बलात्कार के अपराधियों को लेकर कड़े कानून बनाने पर संसद को विचार करना चाहिए। बच्चों से बलात्कार के मामलों पर अलग से प्रावधान बनाने पर विचार किया जाना चाहिए।

गर्भावस्था समाप्त करने की अनुमति चाहने के मामले में उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी रेखांकित करने योग्य है कि जघन्य अपराध की पीड़ित महिला की स्थिति न्याय के संदर्भ में प्राथमिक कसौटी होनी चाहिए। दरअसल, गर्भपात जैसे संवेदनशील मामले के अलावा भी महिलाओं के हिस्से आने वाली यह देरी हर पहलू पर चिंतनीय है।

परिजनों की ज्यादती हो या अपरिचितों का दुर्व्यवहार, शिकायत करने और कानूनी कार्रवाई शुरू होने बाद महिलाओं का जीवन दुश्वार कर दिया जाता है। फैसले के इंतजार में बेहद पीड़ादायी स्थितियां उनके हिस्से आती हैं। जबकि महिलाओं के मन-जीवन से जुड़े हालात को सुधारने के लिए चलाए जाने वाले जन-जागरूकता अभियानों में उनकी मुखरता की पैरवी की जाती है।

बुरे बर्ताव को सहने के बजाय आगे बढ़कर आवाज उठाने की सीख शामिल होती है। बर्बरता का शिकार बनने के बाद मन से टूटने के बजाय अपना जीवन पूरे हौसले के साथ आगे बढ़ाने का संदेश दिया जाता है। ऐसी वैचारिक बातें कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के समक्ष बेमानी लगती हैं। व्यावहारिक धरातल पर बदलाव लाने के लिए कानूनी प्रक्रिया में भी सहजता और तत्परता जरूरी है।

दुखद है कि बलात्कार जैसे जघन्य और बर्बर अपराध के मामलों के साबित होने पर भी जटिलता, विलंब और उलझन ही देखने को मिलती है। रीत रहे विश्वास कि इन स्थितियों का ही नतीजा है कि कई घटनाओं की रपट तक नहीं दर्ज कराई जाती। यौन हिंसा से जुड़े अनेक मामलों में जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते सुनवाई के खिंचते जाने के बीच ही महिला और उसके परिजन हताश हो जाते हैं।

विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर है। संकीर्ण सामाजिक सोच के चलते अलग-थलग पड़ जाने की ऐसी परिस्थितियां भी किसी सामूहिक क्रूरता को झेलने से कम नहीं होतीं। अधिकतर मामलों में परिजन भी उनकी मनोस्थिति नहीं समझ पाते। दोषारोपण का खेल हर ओर से शुरू हो जाता है। ऐसे में यौन हिंसा के दंश के बाद गर्भपात की अनुमति के लिए भी अगर इंतजार करने की स्थितियां बन जाएं तो कानूनी जटिलता और ढिलाई का रुख स्पष्ट समझ में आता है।

कुछ समय पहले बंबई हाई कोर्ट ने अस्सी साल से चले आ रहे संपत्ति विवाद को खत्म करते हुए दो फ्लैट एक तिरानबे वर्षीया मालकिन को सौंपने का निर्देश दिए थे। संपत्ति विवाद के इस मामले में आठ दशक के बाद एक बुजुर्ग महिला को न्याय मिल सका। अपने हक के लिए लड़ते हुए महिला की पूरी जिंदगी गुजर जाने बाद आया निर्णय हमारी कानूनी व्यवस्था की उलझनों को स्पष्ट रूप से सामने रखता है। न्यायिक प्रणाली की धीमी गति निर्णय की गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है। दुखद यह भी है कि ऐसी स्थितियां आपराधिक मानसिकता के लोगों की हिम्मत और बढ़ाती हैं।