जब आठ नवंबर की सुबह इस स्तंभ को पढ़ रहे होंगे, माहौल उत्सुकता से भरा होगा।  हरेक के मन में यही सवाल हावी होगा कि बिहार में चुनाव कौन जीतेगा। वहां दो प्रमुख मोर्चे हैं: नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए और नीतीश कुमार की अगुआई में महागठबंधन। मेरा खयाल है कि दोनों में से कोई एक मोर्चा स्पष्ट बहुमत हासिल करेगा और सरकार बनाने में कामयाब होगा। यह अपने आप में अच्छी बात है। तीखे, दुराव पैदा करने वाले और प्रचंड चुनाव अभियान के बाद बिहार के लोगों को एक स्थिर सरकार मिलनी ही चाहिए।

कौन-सा गठबंधन बिहार का चुनाव जीतेगा, यह सवाल न सिर्फ बिहार के लोगों के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए मायने रखता है। अंतिम नतीजों का एलान देश के राजनीतिक इतिहास में एक निर्धारक क्षण होगा।

प्रधान मंत्री या प्रचार मंत्री?

बिहार चुनाव के नतीजे सबसे ज्यादा एक व्यक्ति के लिए मायने रखते हैं- और वे हैं श्रीमान नरेंद्र मोदी। उनसे पहले किसी प्रधानमंत्री ने किसी राज्य के चुनाव में इतने व्यापक रूप से- और इतनी आक्रामकता के साथ- प्रचार नहीं किया। मोदी की सत्ताईस रैलियां हुर्इं, कुछ प्रखंड मुख्यालयों पर भी, जहां पहले कभी किसी प्रधानमंत्री की सभा नहीं हुई थी। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि चुनाव का आखिरी दौर आते-आते लोग प्रचार मंत्री के तौर पर उनका जिक्र करने लगें।

मोदी तो यह हैं ही। वे बेजोड़ ‘प्रचारक’ हैं। प्रचार करना उन्हें भाता है। वे ऊंचे, दूर स्थित मंच से लोगों को विस्तार से संबोधित करना पसंद करते हैं, क्योंकि यह संप्रेषण के उनकेअंदाज के मुआफिक है- इकतरफा, कोई सवाल नहीं, कोई टोकाटोकी नहीं, और आगे की कतारें उत्साही समर्थकों से भरी हुई। मोदी संभवत: यह भी मानते हैं कि यह उनका प्रचार अभियान ही था, जिसके चलते भारतीय जनता पार्टी को 2014 में लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल हुई।

बिहार के चुनाव में मोदी ने अपने तरकश का हर तीर इस्तेमाल किया। उन्होंने पैसा, आदमी, विज्ञापन, छींटाकशी और कीचड़ उछालने वाली भाषा- सब कुछ इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया कि वह अपूर्व ही कहा जाएगा। कोई हद बाकी नहीं रही। भारतीय जनता पार्टी बहस में आरक्षण को ले आई, फिर गाय को और आखिर में पाकिस्तान को। यह ध्रुवीकरण का खेल था। जिन्होंने बढ़ती असहिष्णुता के प्रति विरोध जताया- लेखकों से लेकर वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और कलाकारों तक- उन सभी का मखौल उड़ाया गया और उनकी भर्त्सना की गई। चुनाव प्रचार का अंत होते-होते दुनिया की निगाह में भारत पहले से कहीं अधिक विभाजित और अराजक दिखने लगा।

सबसे ज्यादा क्षति विकास के मोर्चे पर हुई। मोदी दावा करते हैं कि वे विकास के एजेंडे के लिए समर्पित हैं। इसी मुद्दे पर उन्हें ऐतिहासिक जनादेश मिला, और यही वह वादा है जिस पर उनकी उपलब्धि ना-कुछ है- खासकर रोजगार, इन्फ्रास्ट्रक्चर और कीमतों के मामले में।

मोदी का बहुत कुछ इस पर भी दांव पर लगा है कि वे अपने लोगों को कैसे एकजुट रख पाते हैं- भाजपा, उसके सहयोगी दल, आरएसएस और संघ परिवार। उन्होंने अपनी यह इच्छा छिपाई नहीं है कि वे अपना कार्यकाल पूरा करने के अलावा 2019 में एक और कार्यकाल के लिए चुनाव जीतना चाहते हैं।

मोदी के सामने दो विकल्प हैं। वे पूर्णकालिक प्रधानमंत्री की रौ में लौट सकते हैं और अपना पूरा समय और पूरी ऊर्जा विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए लगा सकते हैं। या फिर, वे ‘प्रचार मंत्री’ बने रह सकते हैं और व्यवहार में अपना सारा वक्त भाजपा को उत्तर प्रदेश समेत उन राज्यों में चुनाव जिताने में लगा सकते हैं जहां आगामी अठारह महीनों में चुनाव होने हैं।
देश के लिए क्या अच्छा होगा? बिहार में भाजपा की जीत या हार?

अगर भाजपा जीती…

बिहार में भाजपा को जीत मिली, तो उसके सामने दो रास्ते होंगे। लगातार जीतने के खयाल से ध्रुवीकरण के फार्मूले पर चलने की उतनी ही संभावना रहेगी जितनी इस बात की कि जीत मिलने के बाद पार्टी विकास के एजेंडे पर लौट जाए। चुनाव मोदी को करना है। यह रहस्य अभी तक बना हुआ है कि मोदी ने लंपट तत्त्वों और विष-वमन करने वालों पर लगाम क्यों नहीं कसी है।

सवाल है कि वे अंकुश नहीं लगा सकते, या लगाना नहीं चाहते? अगर सच्चाई यह है कि वे अंकुश नहीं लगा सकते, क्योंकि आरएसएस की मौजूदगी बहुत व्यापक है, तो यह स्थिति अंतत: एक विपत्ति साबित होगी। अगर हकीकत यह है कि वे अंकुश लगाना ही नहीं चाहेंगे, क्योंकि वे एक समर्पित ‘स्वयंसेवक’ हैं, तो यह महाविपत्ति को न्योता देना होगा। मुझे डर है कि बिहार में भाजपा को जीत मिली तो वह ध्रुवीकरण के एजेंडे को और जोर से आगे बढ़ाएगी।

अगर भाजपा हारी…

दूसरी तरफ, बिहार में पराजय की सूरत में भी भाजपा के सामने दो रास्ते होंगे। तब भी, दिशा मोदी को ही चुननी होगी। वे ठिठक कर, हालात का जायजा लेकर, पीछे हट कर, पार्टी को सुशासन और विकास के रास्ते पर ले जा सकते हैं। वरना, वे दबाव में आकर, सारे संयम तोड़ कर हिंदुत्व के मूल मुद्दों की तरफ जा सकते हैं- समान नागरिक संहिता लागू करना, धारा 370 को रद््द करना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, गोवध और गोमांस की बिक्री पर पूरी तरह पाबंदी, इतिहास और पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन, वगैरह। मेरा खयाल है- और यह एक आशावादी नजरिया है- कि बिहार में पराजय मोदी को और भाजपा को संयम का पाठ पढ़ाएगी।

अगर इस विश्लेषण से आप अपने को अनिश्चितता और निराशा में पाते हैं, तो मुझे खेद है। मेरा निष्कर्ष है कि बिहार चुनाव के नतीजों से मोदी के बुनियादी विश्वासों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्होंने पहले खुद को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के रूप में पेश किया, फिर ‘विकास पुरुष’ के रूप में। इनमें से कौन-सा रूप वास्तविक है, यह पता चल जाएगा, जब मोदी बिहार चुनाव के बाद का अपना पहला निर्णायक राजनीतिक कदम उठाएंगे, और वह होगा मंत्रिमंडल में फेरबदल का। जिस दिशा में जाने का मोदी का इरादा होगा, मंत्रिमंडल में फेरबदल उसकी ओर इंगित करेगा। बिहार में जीत हो या हार, मोदी कसौटी पर रहेंगे।