उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली पूर्व सैन्य अधिकारी की याचिका पर सुनवाई करने पर सहमत हो गया है। याचिका में दावा किया गया है कि यह कानून अभिव्यक्ति पर “डरावना असर” डालती है और यह वाक् स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है।

प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय की पीठ ने याचिकाकर्ता को याचिका की प्रति एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को सौंपने का निर्देश दिया है। मेजर-जनरल (अवकाश प्राप्त) एसजी वोमबटकेरे द्वारा दायर याचिका में दलील दी गई है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए, जो राजद्रोह के अपराध से संबंधित है, पूरी तरह असंवैधानिक है और इसे “स्पष्ट रूप से खत्म कर दिया जाना चाहिए।”

याचिका में कहा गया, “याचिकाकर्ता की दलील है कि ‘सरकार के प्रति असंतोष’ आदि की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं पर आधारित एक कानून अपराधीकरण अभिव्यक्ति, अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर एक अनुचित प्रतिबंध है और भाषण पर संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य ‘डराने वाले प्रभाव’ का कारण बनता है।”

याचिका में कहा गया कि राजद्रोह की धारा 124-ए को देखने से पहले, “समय के आगे बढ़ने और कानून के विकास” पर गौर करने की जरूरत है। इससे पहले, शीर्ष अदालत की एक अलग पीठ ने राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाली दो पत्रकारों- किशोरचंद्र वांगखेमचा (मणिपुर) और कन्हैयालाल शुक्ल (छत्तीसगढ़) की याचिकाओं पर केंद्र से जवाब मांगा था।

हाल ही में 84 वर्षीय आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी का हिरासत में निधन हो गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने फादर स्टेन स्वामी को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया था। जिसके बाद से उन्हें तालोजा जेल हॉस्पिटल में रखा गया था। उनके ऊपर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था। पुलिस का दावा है कि 31 दिसंबर 2017 काे उनक भड़काऊ भाषणों के कारण भीमा-कोरेगांव में हिंसा हुई थी। स्टेन स्वामी मूल रूप से झारखंड के रहने वाले थे। स्टेन स्वामी की गिनती देश के उन एक्टिविस्ट में होती रही है जिन्होंने लंबे समय तक आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी। स्वामी कई दशकों से झारखंड के आदिवासी क्षेत्र में काम कर रहे थे।