नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर राज्यसभा के सांसद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विचारक राकेश सिन्हा का कहना है कि भारत सरकार के ऐतिहासिक कदम पर भ्रम फैलाया जा रहा है और दुष्प्रचार कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है। विपक्ष के पास कोई मूल मुद्दा नहीं है और वह धारणा के आधार पर सरकार का विरोध कर रहा है। उनके पास विरोध का कोई नैतिक और संवैधानिक आधार नहीं है। सिन्हा ने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून संवैधानिक और भारत की सभ्यता के अनुकूल है। आजादी के पहले भी यहां यहूदियों और पारसियों को इसलिए जगह दी गई थी क्योंकि उनके साथ धार्मिक भेदभाव के आधार पर अत्याचार हो रहा था।

जनसत्ता से खास बातचीत में सिन्हा ने कहा कि ताजा कानून को समझने के लिए हमें 1950 में बनाए गए हालात को भी समझना होगा। आजादी और विभाजन के बाद 1950 में नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में जाने वाले हिंदुओं को भय था कि वहां उनका जीना दुश्वार हो जाएगा। एक-दो लोगों को छोड़ कर उस वक्त किसी ने भी जनसंख्या की अदला-बदली की बात नहीं की थी। उस वक्त कांग्रेस के नेताओं ने हिंदुओं को मौखिक संदेश दिया था कि वहां उनके जीवन और धर्म की सुरक्षा होगी, उन पर किसी तरह के अत्याचार को रोकना हमारी जिम्मेदारी होगी।

इसके बाद नेहरू और लियाकत के बीच समझौता हुआ कि अपने-अपने देश के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की चिंता उन देशों की होगी जो सैद्धांतिक रूप से ठीक बात थी। यह समझौता आठ फरवरी को हुआ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 19 फरवरी को इसके विरोध में इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या तेजी से घटी। विभाजन के बाद बिगड़े इस हालात को ठीक करने का काम मोदी सरकार ने किया। भारत एक पंथ निरपेक्ष देश है और यह लोगों को आस्था का अधिकार देता है। इसमें मुसलमानों को इसलिए शामिल नहीं किया गया कि उनकी आस्था का अधिकार सुरक्षित है। उनके संघर्ष के क्षेत्र किन्हीं और कारणों से हैं, मजहब के आधार पर नहीं हैं। राकेश सिन्हा ने कहा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं और सिखों के अधिकार खतरे में हैं। उन्हें उनका अधिकार देना भारत में किसी का अधिकार छीनना कैसे हो सकता है।

क्या सरकार को अंदाजा था कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देशव्यापी विरोधी हो जाएगा और नीतीश कुमार जैसे सहयोगी दलों के नेता भी इसके खिलाफ होंगे? इस सवाल के जवाब में राकेश सिन्हा ने कहा कि इस कानून की पृष्ठभूमि 1950 से तैयार थी। राजस्थान के जैसलमेर में बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी रह रहे थे। कांग्रेस के समय में भी बहुत धीमे तरीके से ही सही मताधिकार को छोड़कर शरणार्थियों को अन्य सुविधाएं दी गर्इं। 2003 में मनमोहन सिंह और 2012 में माकपा ने भी इसकी वकालत की थी। तो पूरी तरह से आम सहमति को देखकर ही यह कानून बनाया गया है।

विरोध के तरीके पर सवाल उठाते हुए सिन्हा ने कहा कि यह वही पुरस्कार वापसी गिरोह है जो महज धारणा के आधार पर नरेंद्र मोदी का विरोध करता है। बातचीत की कोई पेशकश नहीं, कोई ज्ञापन नहीं और सीधे हिंसक विरोध शुरू कर दिया। बिना किसी उत्तेजना के हिंसा की गई। भारत में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग और पश्चिम के बुद्धिजीवियों में एक गठबंधन है जो अपनी नापसंदगी को दुष्प्रचार की शक्ल दे बैठते हैं। इस तरह के हिंसात्मक आंदोलन राष्टÑ की छवि को धूमिल करते हैं। यह सरकार के खिलाफ नहीं राज्य को चुनौती देने वाला विरोध हो गया है।
क्या सरकार को असम के जमीनी हालात का पता नहीं था? इस सवाल पर राकेश सिन्हा ने कहा कि एनआरसी को लेकर असम में जो हुआ वह असम समझौते और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर और उसके अधीनस्थ हुआ। एनआरसी पूरे देश में हो यह सरकार की मंशा है। लेकिन इसके राष्टÑव्यापी स्वरूप, कानून और प्रक्रिया पर अभी कुछ बात भी नहीं हुई है।

राष्टÑव्यापी एनआरसी को लेकर विरोध आसमान में तीर चलाना है। दुनियाभर के विश्वविद्यालयों सहित कई अंतरराष्टÑीय संस्थाओं ने नागरिकता संशोधन कानून पर सवाल उठाए हैं। क्या इससे भारत की अंतरराष्टÑीय छवि को बड़ा नुकसान होगा? इसके जवाब में राकेश सिन्हा ने कहा कि भारत ने 2014 के बाद पूरी दुनिया में नई छवि का निर्माण किया है। अभी गुटनिरपेक्षता जैसा कोई आंदोलन नहीं चल रहा है लेकिन नरेंद्र मोदी वैश्विक नेता के रूप में उभरे हैं। ये क्षणिक बाते हैं। हल्की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है, इसका कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। भारत ऐतिहासिक रूप से उन सभी को शरण देता रहा है जो धार्मिक रूप से उत्पीड़ित हैं। राज्यविहीन और अधिकारविहीन लोगों को नागरिकता देने का कदम उठा भारत ने वैश्विक नैतिक जिम्मेदारी में अहम भागीदारी निभाई है।