बसपा सुप्रीमो मायावती ने लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का एलान करके पार्टी सांसदों को सांसत में डाल दिया है। पिछला लोकसभा चुनाव सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में मिलकर लड़ा था। बसपा के दस सांसद जीत गए थे। इससे पहले 2014 के चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था। 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मायावती ने सपा से अपना गठबंधन तोड़ दिया था जिसकी कोई तार्किक वजह नहीं थी। बहरहाल 2022 के विधानसभा चुनाव में तो उनकी बुरी गत हुई। दस लोकसभा सदस्यों में दो तो पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं।
अमरोहा के दानिश अली राहुल गांधी का समर्थन कर चुके हैं तो गाजीपुर के अफजाल अंसारी सपा में जा चुके हैं। बिजनौर के मलूक नागर रालोद से जुगाड़ बिठा रहे हैं तो जौनपुर के श्याम सिंह यादव भी पार्टी लाइन से अलग राह पर हैं। लालगंज की संगीता आजाद अपने पति के साथ पिछले साल प्रधानमंत्री से मिलने गई थी।
पार्टी सांसदों को लगता है कि अव्वल तो उन्हें टिकट की गारंटी नहीं, मिल भी गया तो अकेले जीतना असंभव होगा। कांग्रेस की तरफ से बसपा के लिए दरवाजे सपा के विरोध के बाद भी खोले गए थे पर मायावती ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसलिए बसपा के सांसदों को लग रहा है कि बहिनजी अपनी गलत नीतियों से पार्टी का खुद ही बंटाधार कर रही हैं। सो वे दूसरा ठिकाना तलाशेंगे ही।
अंधेरे में तीर
छापेमारी के दौरान सीबीआइ ने पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक के पैतृक गांव हिसावदा के अब खंडहर हो चुके पुश्तैनी घर को भी नहीं बख्शा। खुद मलिक छापेमारी के समय दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती थे। हिसावदा बागपत जिले का एक जाट बहुल गांव है। मलिक अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं। वे बच्चे थे तभी उनके पिता बुद्ध सिंह का स्वर्गवास हो गया था।
छात्र राजनीति में कूदने और 1974 में विधायक बन जाने के बाद मलिक का अपने गांव से खास नाता नहीं रहा। पुश्तैनी घर के अपने हिस्से के चार कमरों में तो उन्होंने पिछले चालीस साल में शायद एक रात भी न गुजारी होगी। सीबीआइ का खुफिया तंत्र मुस्तैद होता तो सात-आठ अफसरों को दिनभर हिसावदा के मलिक के खंडहर हो चुके चार कमरों की तलाशी की जरूरत ही न पड़ती। उनकी दिवंगत मां के लोहे के कुछ पुराने संदूकों के सिवा वहां कुछ मिला भी तो नहीं।
आसान हो अभियान
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पार्टी से जुड़े जिम्मेदारों को आनलाइन संबोधन के दौरान खास निर्देश दिए कि पार्टी के लोकसभा चुनाव प्रचार की ‘थीम’ सरल और सभी को समझ में आने वाली होनी चाहिए। लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जाना चाहिए कि द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) सरकार सभी की सुरक्षा करती है और इसे राज्य सरकार की उपलब्धियों के माध्यम से बताया जाना चाहिए।
राज्य में सत्तारूढ़ द्रमुक के अध्यक्ष स्टालिन ने विश्वास जताया कि उनकी पार्टी और सहयोगी दल तमिलनाडु की सभी 39 लोकसभा सीटों और पड़ोसी पुडुचेरी की एकमात्र लोकसभा सीट पर विजयी होंगे। उन्होंने कहा कि अभियान आसान हो ताकि लोगों को लगे यह हमारी सरकार है।
सिद्धू से संपर्क!
भाजपा नवजोत सिंह सिद्धू से संपर्क साध रही है। सिद्धू भाजपा छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे। पर वहां भी कैप्टन अमरिंदर सिंह से उनकी नहीं पटी। अमरिंदर सिंह अब खुद ही भाजपा में आ चुके हैं। भाजपा को उम्मीद है कि कांग्रेस सिद्धू को उनकी अमृतसर सीट से टिकट नहीं देगी। अमृतसर से सिद्धू 2007 में भाजपा उम्मीदवार की हैसियत से उपचुनाव जीते थे।
इससे पहले वे भाजपा के ही विधायक थे। अमृतसर सीट सिद्धू ने भाजपा को 2009 में भी जीतकर दी थी। लेकिन 2014 में पार्टी ने उनका टिकट काटकर अमृतसर में अरुण जेटली को उतार दिया था, जो कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह से हार गए थे। उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद लोकसभा से त्यागपत्र दिया तो 2017 में कांग्रेस ने यहां उपचुनाव में गुरजीत सिंह औजला को उतारा था।
वे उपचुनाव तो जीते ही, 2019 का लोकसभा चुनाव भी जीत गए। साफ है कि कांग्रेस अमृतसर सीट से उन्हें ही लड़ाएगी। पिछले चुनाव में उन्होंने भाजपाई धुरंधर हरदीप सिंह पुरी को मात दी थी। सिद्धू को कांग्रेस किसी दूसरी सीट से उम्मीदवार बना सकती है। किसान आंदोलन को लेकर सिद्धू भाजपा के प्रति काफी आक्रामक रहे हैं।
ऐसे में उनकी भाजपा में वापसी को कांगे्रसी खारिज कर रहे हैं। पर किससे छिपा है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त होता है न दुश्मन। उधर भाजपा गुरदासपुर सीट के लिए दूसरे क्रिकेट खिलाड़ी युवराज सिंह पर नजर लगाए है। फिलहाल सन्नी देओल इस सीट से सांसद हैं।
दिल्ली में दोस्त, पंजाब में प्रतिद्वंद्वी
अरविंद केजरीवाल दिल्ली में पहले कांगे्रस को एक सीट से ज्यादा देने को राजी नहीं थे। अब सीटों की बात पक्की हो गई लगती है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को सभी सीटों पर पचास फीसद से ज्यादा वोट मिले थे। लिहाजा विपक्षी मतों के विभाजन को भाजपा की जीत का आधार तो कहा नहीं जा सकता।
बहरहाल पंजाब में दोनों दलों के बीच गठबंधन नहीं होने का कारण आपसी विवाद नहीं बल्कि सोची-समझी रणनीति हैै। पंजाब में आप सत्ता में है और कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल। अकाली दल और भाजपा अभी तीसरे और चौथे पायदान पर हैं। मिलकर लड़े थे तो जरूर पिछली दफा अकाली दल और भाजपा चार सीटों पर जीत गए थे। आठ सीटें जीतकर कांग्रेस ने पंजाब में मोदी की लहर को रोका था।
आप की 2014 की चार सीटें 2019 में घटकर एक पर सिमट गई थी। इस बार कांग्रेस की जगह सूबे में आप की सरकार है। सूत्रों पर भरोसा करें तो ‘आप’ और कांगे्रस में रणनीति बनी है कि दोनों सारी सीटों पर अलग-अलग लड़ेंगे। गठबंधन करके भाजपा के लिए प्रमुख विपक्षी पार्टी का स्थान खाली कतई नहीं करेंगे। अकाली दल से गठबंधन करके भी भाजपा को चौथे नंबर की पार्टी से ऊपर नहीं आने देंगे।