उत्तर प्रदेश लंबे अरसे तक कांग्रेस का गढ़ बना रहा। पर पिछले कुछ दशकों से पहले सपा-बसपा के उभार और फिर भाजपा की आंधी के कारण सूबे से कांग्रेस के पांव पूरी तरह उखड़ चुके हैं। सपा के साथ समझौते में पार्टी को 17 सीटें तो जरूर मिल गई पर दमदार उम्मीदवारों का टोटा दिख रहा है। पिछली दफा अमेठी में राहुल गांधी की हार ने गत ज्यादा बुरी कर डाली। रायबरेली से भी सोनिया गांधी ने खराब सेहत के बहाने एक तरह से अपना पीछा छुड़ा लिया और राजस्थान से राज्यसभा में पहुंच गई।

राहुल गांधी इस बार भी अमेठी का रुख करना नहीं चाहते। इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल टूटा है। नेहरू गांधी परिवार के सदस्यों के सूबे से चुनाव मैदान में उतरने से पार्टी कार्यकर्ता गर्व महसूस करते थे। ये दो सीटें तो एक तरह से आरक्षित थी। इस बार कयास तो शुरू से लगते रहे कि सोनिया की जगह रायबरेली से प्रियंका लड़ेंगी पर ऐसा होता अभी तक नजर नहीं आया।

अलबत्ता गुरुवार को मंच पर राबर्ट वाड्रा के दाखिल होने से स्थिति और हास्यास्पद जरूर हो गई। वाड्रा न तो राजनीति में सक्रिय हैं और न उनकी कोई लोकप्रियता है। अमेठी से चुनाव लड़कर संसद पहुंचने की अपनी हसरत को मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचाने की सलाह उन्हें जिसने भी दी होगी, उसे कांग्रेस पार्टी का सच्चा हितैषी भला कौन मानेगा?

निशाने पर निशान

शिवसेना (यूबीटी) ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि उसने महाराष्ट्र के कई हिस्सों से धनुष-बाण चिह्न को गायब कर दिया है, क्योंकि भाजपा ने उन सीट पर भी दावा करना शुरू कर दिया है, जिनपर पहले अविभाजित शिवसेना ने चुनाव लड़ा था। पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ के एक संपादकीय में शुक्रवार को उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यूबीटी) ने कहा कि अविभाजित शिवसेना महाराष्ट्र की 48 सीट में से 23 पर अपने चुनाव चिह्न धनुष-बाण पर चुनाव लड़ा करती थी।

पार्टी ने यह भी दावा किया कि कई मौजूदा शिवसेना सांसदों को फिर से मौका नहीं देने के कदम के पीछे भाजपा आलाकमान का हाथ था। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने यवतमाल-वाशिम, रामटेक और हिंगोली से मौजूदा सांसद भावना गवली, कृपाल तुमाने और हेमंत पाटिल को दोबारा उम्मीदवार नहीं बनाया है।

बेटों के नाम पर बगावत

यदुरप्पा के बेटों के राजनीतिक रूप से स्थापित होने के बाद और नेता भी भाजपा से ऐसी मांग कर रहे हैं। येदुरप्पा के एक बेटे पहले से विधायक हैं और प्रदेश अध्यक्ष भी तो दूसरे बीवाई राघवेंद्र को शिमोगा से लोकसभा टिकट दिया गया है। जिससे पूर्व उपमुख्यमंत्रई केएस ईश्वरप्पा बगावत कर बैठे।

76 वर्ष के ईश्वरप्पा को उम्र का वास्ता देकर पार्टी ने रिटायर होने की सलाह दी थी। वे तैयार भी थे पर अपने बेटे केई कंठेश के लिए टिकट मांग रहे थे। दलील यही थी कि येदुरप्पा के दो बेटों पर पार्टी मेहरबान है तो उनके एक बेटे को टिकट देने में बुराई क्या है। पार्टी ने नहीं सुनी तो शिमोगा में निर्दर्लीय नामांकन कर दिया। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा भी नाराज बताए जा रहे हैं।

भूले-बिसरे लाल

हरियाणा की शोहरत दलबदलुओं के अलावा लालों के कारण भी रही है। लालों यानी हरद्वारी लाल, देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल। इनमें हरद्वारी लाल को छोड़ बाकी तीनों लाल सूबे के मुख्यमंत्री रहे। अपने रहते अपने परिवारजनों को भी तीनों ने ही बढ़ावा दिया। बंसीलाल के बेटे सुरेंद्र और बहू किरण चौधरी दोनों ही मंत्री रहे। सुरेंद्र की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई थी। किरण चौधरी इस समय हरियाणा कांगे्रस की प्रमुख नेता हैं। भजनलाल के दोनों बेटे सियासत में सक्रिय हैं तो पत्नी जसमा देवी भी विधायक रही हैं।

बेटा कुलदीप विश्नोई इस समय भाजपा में है और उनका पुत्र भव्य विश्नोई परंपरागत आदमपुर सीट से भाजपा विधायक। दूसरा बेटा चंद्रमोहन पांच बार विधायक रहा और उपमुख्यमंत्री भी। लेकिन, इस समय दोनों ही बेटे किसी सदन के सदस्य नहीं हैं। चंद्रमोहन कांग्रेस में हैं। देवीलाल के एक पुत्र ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री रहे तो उनके पौत्र दुष्यंत चौटाला कुछ दिन पहले तक हरियाणा के उपमुख्यमंत्री थे।

उनकी पार्टी है जजपा। जबकि ओमप्रकाश चौटाला के छोटे बेटे अभय चौटाला की पार्टी है इनेलोद। देवीलाल के एक पुत्र रणजीत सिंह पहले कांगे्रस में थे। इस समय हरियाणा सरकार में मंत्री हैं। भाजपा में पिछले दिनों ही शामिल हुए और भाजपा ने उन्हें लोकसभा उम्मीदवार भी बना दिया है। लेकिन भजनलाल, बंसीलाल और देवीलाल जैसी धमक तीनों का कोई सियासी वारिस अभी तक नहीं बना पाया।

आलाकमान का असमंजस

अखिलेश यादव पूरे पांच साल देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सूबे की विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता और पार्टी आलाकमान भी हैं। फिर उम्मीदवारों के चयन में उन्होंने सियासी परिपक्वता क्यों नहीं दिखाई? सपा के हिस्से आए 64 उम्मीदवारों के नाम तय करने में उन्हें जरूरत से ज्यादा समय तो लगा ही, घोषणा के बाद कई-कई बार उम्मीदवार बदलने से जग हंसाई भी हुई।

पार्टी काडर में भी असमंजस से प्रचार शुरू नहीं हो पाया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तकरीबन हर सीट पर ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। मेरठ, बागपत, बिजनौर, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर और बदायूं हर सीट पर उम्मीदवारों में आपाधापी दिखी। बदायूं से उन्होंने चाचा शिवपाल का नाम घोषित कर दिया। जो विधायक हैं और लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थे।

इनकार के बाद उनके पुत्र आदित्य उम्मीदवार होंगे। मेरठ की सामान्य सीट पर उन्होंने दिल्ली में वकालत करने वाले दलित भानुप्रताप सिंह को उम्मीदवार बनाकर चौंकाया। फिर उनकी जगह अपने विधायक अतुल प्रधान को उम्मीदवार बना दिया। जिन्होंने नामांकन भी दाखिल कर दिया। लेकिन, यहां टिकट मिला मेरठ की मेयर रह चुकी दलित महिला सुनीता वर्मा को।

संकलन : मृणाल वल्लरी