पंजाब के गुरदासपुर लोकसभा क्षेत्र के मतदाता अपने सांसद सनी देओल से नाराज हैं। चुनाव जीतने के बाद 2019 से आज तक सनी देओल ने अपने संसदीय क्षेत्र की कोई सुध जो नहीं ली। इस क्षेत्र से पहले भी भाजपा के ही विनोद खन्ना कई बार सांसद चुने गए। पर राजनीति में कूदने के दौरान फिल्मी दुनिया में उनके लिए ज्यादा काम बचा नहीं था। वे वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे। हालांकि अपने क्षेत्र में सक्रियता उनकी भी कम ही थी। उनके निधन के बाद 2017 में यहां हुए उपचुनाव में कांग्रेस के सुनील जाखड़ जीते थे। जो अब भगवा बाना पहन चुके हैं।

ग्लैमर के बूते चुनाव में उतरे और जीते

भाजपा ने 2019 में ग्लैमर के बूते चुनाव जीतने की गरज से सनी देओल को उतार दिया। वे आसानी से जीत भी गए पर अपने संसदीय क्षेत्र से ज्यादा समय मुंबई में बिताना उनकी मजबूरी ठहरी। संसद सत्र में भी वे यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। अलबत्ता उनकी नई फिल्म गदर-2 के ट्रेलर की लांचिंग हुई तो उन्होंने भारत-पाक रिश्तों पर लंबा बयान दे दिया। फरमाया कि राजनीति ने दोनों तरफ नफरत बढ़ाई है अन्यथा दोनों ही देशों में ज्यादा तादाद तो अमनपसंद लोगों की ही है।

इस बयान पर ही उनके क्षेत्र के मतदाता पूछ रहे हैं कि गुरदासपुर के बारे में तो आजतक कहीं एक भी शब्द नहीं बोला। न यहां के विकास से कोई सरोकार दिखाया। कोविड के दिनों में तो खैर उनका अता-पता था ही नहीं। पाठकोें को बता दें कि उनके पिता धर्मेंद्र को भी भाजपा ने एक बार राजस्थान के जाट बहुल बीकानेर क्षेत्र से लोकसभा भेजा था। उन्होंने भी चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र की कभी सुध नहीं ली थी। गनीमत रही कि हार के डर से अगली बार चुनाव लड़ने से खुद ही मना कर दिया था अभिनेता ने। सनी ने पिता का अनुसरण न किया तो मुमकिन हो सकता है कि पार्टी ही उन्हें दोबारा टिकट न दे।

महाराष्ट्र की राजनीति में उथल-पुथल

महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों खासी उथल-पुथल मची है। राकांपा के विधायकों की बगावत और भाजपा से गठबंधन ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और शिवसेना छोड़कर उनके साथ आए विधायकों की नींद तो उड़ा ही रखी है, भाजपा के भीतर भी गुटबाजी को हवा दी है। भाजपा आलाकमान को असली अड़चन तो अगले चुनाव में उम्मीदवारों के चयन में आएगी। शिवसेना और राकांपा के बागी विधायक अपनी सीटों से भाजपा टिकट चाहेंगे तो वहां राजनीति करने वाले भाजपाइयों में असंतोष बढ़ेगा ही। फिलहाल तो नित नई चर्चा सुनाई पड़ रही है। मसलन एकनाथ शिंदे का मुख्यमंत्री पद कभी भी जा सकता है।

दूसरे शिंदे की जगह कोई अजित पवार के मुख्यमंत्री बनने की भविष्यवाणी कर रहा है तो कोई देवेंद्र फडणवीस की। अभी तो दोनों ही उपमुख्यमंत्री ठहरे। अजित पवार और फडणवीस के निजी रिश्ते अच्छे रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं। इसके उलट शिंदे के साथ फडणवीस की अनबन अब जग जाहिर है। दिखावे के लिए भले दोनों ही दावा करें कि सब कुछ सहज चलेगा। भाजपा के भीतर पंकजा मुंडे ने भी बागी तेवर अपना रखे हैं। वे पार्टी के कद्दावर नेता रहे गोपीनाथ मुंडे की बेटी हैं। पिछली राज्य सरकार में मंत्री थीं।

पिछला विधानसभा चुनाव अपने ही चचेरे भाई और राकांपा उम्मीदवार धनंजय मुंडे से हार गई थीं। अब मुंडे भी अजित पवार के साथ भाजपा में आ गए हैं। इससे पंकजा को अपना भविष्य भाजपा में अंधकारमय नजर आ रहा है। ताजा भूचाल तो किरीट सोमैया की आपत्तिजनक वीडियो क्लिप से आया है सूबे की सियासत में। प्रमोद महाजन का जब महाराष्ट्र भाजपा की सियासत में जलवा था तो सोमैया की भी तूती बोलती थी। वित्तीय और आर्थिक मामलों की गहरी समझ रखते हैं। विरोधियों के खिलाफ सीबीआइ और ईडी में शिकायतें करते रहे हैं। उनकी आपत्तिजनक क्लिप को एक मराठी चैनल ने 17 जुलाई को प्रसारित कर दिया था। सोमैया ने इसे अपने खिलाफ सियासी साजिश बताया है। इस बहाने शिवसेना (उद्धव) और कांगे्रस को सोमैया पर वार करने का मौका मिल गया है।

भाजपा के लिए राजस्थान नहीं आसान

लोकसभा चुनाव को लेकर तो जरूरत से ज्यादा चिंतित नजर आ रही है भाजपा। हर राज्य में दूसरे दलों के नेताओं के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं। राजस्थान में बड़ी असमंजस में है। बीच में लगा कि पार्टी वसुंधरा राजे को फिर तरजीह दे रही है। प्रधानमंत्री सरकारी कार्यक्रमों के बहाने ही सही विपक्ष की सरकार वाले इस सूबे पर खुद खूब फोकस कर रहे हैं। सचिन पायलट के बगावत न करने के कारण भाजपा की परेशानी बढ़ गई। मध्यप्रदेश में तो पार्टी ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को राज्य विधानसभा चुनाव के लिए अभियान समिति का मुखिया बना दिया।

पर राजस्थान में यह नियुक्ति नहीं की। कयास लगाए जा रहे थे कि वसुंधरा को बनाया जा सकता है अभियान समिति का मुखिया। घोषणा न हो पाने के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। जिस तरह कर्नाटक में चुनाव से पहले येदियुरप्पा समर्थक निराश हो गए थे उसी तरह की निराशा आजकल राजस्थान में वसुंधरा समर्थक नेताओं के चेहरों से साफ झलक रही है। हालांकि राजस्थान को लेकर अभी कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-अपनी मजबूत चाल चल रहे हैं।

(संकलन : मृणाल वल्लरी)