दुष्यंत चौटाला की रफ्तार इतनी तेज थी कि 2018 में दादा ने अपने पोते को अपनी पार्टी इनेलोद से निकाल दिया। एक महीने के भीतर दुष्यंत ने अपने परदादा देवीलाल के नाम पर अपनी अलग जननायक जनता पार्टी बना ली। 2019 के लोकसभा चुनाव में जजपा कोई कामयाबी हासिल नहीं कर पाई। अलबत्ता कुछ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में दुष्यंत ने दस सीटें जीतकर सबको हैरान कर दिया।
अभय चौटाला की इनेलोद को महज एक सीट मिल पाई। इस चुनाव में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर प्रचार के दौरान कहते थे कि दुष्यंत की पिटाई उसी के चुनाव निशान ‘चप्पल’ से करना। सरकार बनाने की मजबूरी के कारण उन्हें दुष्यंत से ही हाथ मिलाना पड़ा। दुष्यंत को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तो मिली ही, आबकारी जैसा मलाईदार महकमा भी। पर, 2020 के किसान आंदोलन ने उन्हें मुश्किल में फंसा दिया।
उनके चाचा इनेलोद विधायक अभय चौटाला ने तो किसानों के समर्थन में विधानसभा की सदस्यता तक छोड़ दी थी। पिछले महीने अचानक जजपा से नाता तोड़ भाजपा ने दुष्यंत को कहीं का नहीं छोड़ा। उनके नेता पार्टी की सदस्यता छोड़ रहे हैं। हिसार में तो पांच अप्रैल को हद हो गई जब दुष्यंत और उनकी मां को किसानों ने घेर लिया। जबरन गाड़ी से उतार कर पैदल चलाया। तब नैना चौटाला ने हाथ जोड़ नाराज किसानों से कहा कि भाजपा की करतूतों की सजा उनके बेटे को मत दीजिए।
स्त्रियों की जगह पुरुष
इस बार दो सीटों की टिकट पर सबकी नजर थी। चंडीगढ़ और इलाहबाद। चंडीगढ़ सीट में मेयर चुनाव में धांधली के आरोप के बाद भाजपा की छवि को झटका लगा था। अनुमान लगाया जा रहा था कि पार्टी अपनी बुरी बनी छवि को भुलाने के लिए नए चेहरे पर दांव खेलेगी। भाजपा ने किरण खेर की जगह पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष संजय टंडन को टिकट दिया है। टंडन पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री बलराम दास टंडन के पुत्र हैं।
इलाहाबाद सीट पर भी रीता बहुगुणा जोशी की जगह पूर्व राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को उम्मीदवार बनाया गया है। दोनों सीटों पर कद्दावर महिला चेहरे की जगह पुरुष उम्मीदवार चुने जाने के बाद दो सशक्त स्त्री चेहरों की विदाई हो गई। इनकी जगह, अगर स्त्री चेहरों को ही वरीयता दी जाती तो यह राजनीति में स्त्री प्रतिनिधित्व को लेकर भाजपा की बेहतर छवि बनाता।
दिल्ली की सीमा पर फिर किसान
दिल्ली और आसपास की सीमाओं की सील कर चुके किसान एक बार फिर से सियासी मैदान में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। चुनावी घोषणा के बाद इसका असर नेताओं की रैलियों और सभाओं में साफ नजर आ रहा है। हाल ही में ऐसे ही सिसायी संकट में भाजपा सांसद हंस राज हंस को भी गुजरना पड़ा।
वे अपने चुनाव क्षेत्र फरीदकोट में किसानों के बीच प्रचार के लिए पहुंचे थे, जहां किसानों ने सांसद की गाड़ी घेरने की कोशिश की। बड़ी मशक्कत से नेता जी को सुरक्षा बंदोबस्त के बीच बाहर निकाला किया। किसानों की यह रणनीति आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी के लिए और मुश्किलें बढ़ा सकता है, विपक्ष पहले ही इस मसले पर केंद्र सरकार पर हमलावर है।
मठ के दर
कर्नाटक को भाजपा ने विधानसभा चुनाव की हार के बाद येदियुरप्पा के भरोसे छोड़ तो जरूर दिया पर लोकसभा चुनाव में 2019 का प्रदर्शन दोहरा पाना पार्टी के लिए मुश्किल दिख रहा है। पिछले चुनाव में अगर भाजपा ने 28 में से 25 सीटें जीती थी तो उसकी एक वजह सूबे में भाजपा की सरकार होना भी थी। अब सरकार कांग्रेस की है।
हालांकि भाजपा ने एचडी देवगौड़ा के जद (सेकु) से गठबंधन किया है। लेकिन प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार वोक्कालिगा वर्ग के जनाधार पर देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी का प्रभुत्व रोकने के लिए हर संभव हथकंडा अपना रहे हैं। येदियुरप्पा खुद लिंगायत वर्ग के हैं।
एचडी देवगौड़ा चुनाव मैदान में नहीं हैं। राजग के 14 लोकसभा उम्मीदवार कुमार स्वामी के साथ आदिचुनचनगिरी मठ के स्वामी से आशीर्वाद लेने गए थे। डीके शिवकुमार और मुख्यमंत्री सिद्धरमैया इस मठ में मत्था पहले ही टेक आए थे। वोक्कालिगा वर्ग का समर्थन राजग को न मिले, इस मंशा से डीके शिवकुमार ने राजग उम्मीदवारों की मठ के स्वामी से मुलाकात पर तंज कस दिया।
फरमाया कि मठ के स्वामी को भाजपा नेताओं से पिछली वोक्कालिगा सरकार गिराने की वजह भी तो पूछनी चाहिए थी। दरअसल त्रिशंकु विधानसभा में कांगे्रस ने समर्थन देकर वोक्कालिगा एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया था। उसी साझा सरकार को गिराकर येदियुरप्पा सूबे के मुख्यमंत्री बने थे।
जयंत की भी दुविधा अनंत
भाजपा से गठबंधन के बाद रालोद के कार्यकर्ता इस बेमेल गठबंधन को पचा नहीं पा रहे। वैसे भी जयंत चौधरी को भाजपा ने केवल दो सीटें बिजनौर और बागपत ही दी हैं। जबकि अखिलेश यादव ने उन्हें समझौते में सात सीटें दी थी। 1977 से अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं, यह पहला चुनाव है जिसमें बागपत से चरण सिंह परिवार का कोई सदस्य मैदान में नहीं है।
जयंत चौधरी 2019 में बागपत में भाजपा के सत्यपाल सिंह से हार गए थे। बागपत और बिजनौर में कई जगह भाजपा और रालोद के समर्थकों में तनातनी की खबरें आ चुकी हैं। कई जगह रालोद के नेता भाजपा और उसके नेताओं के समर्थन में नारे भी नहीं लगा रहे। बहरहाल अतीत पर गौर करें तो रालोद से गठबंधन का भाजपा को कभी फायदा नहीं हुआ। रालोद को जरूर फायदा हुआ।
रालोद और भाजपा ने 2002 का विधानसभा चुनाव व 2009 का लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ा था। रालोद को 2002 में 14 विधानसभा सीटों पर और 2009 में पांच लोकसभा सीटों पर सफलता मिली थी। सफलता का यह आंकड़ा रालोद उसके बाद कभी नहीं छू पाया। रही भाजपा की बात तो उसकी सीटें दोनों बार पहले की तुलना में और घट गई थी।
संकलन : मृणाल वल्लरी