सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर का धीरज चुक रहा है। अखिलेश यादव का साथ छोड़े अब एक वर्ष होने वाला है पर भाजपा ने मंत्रिपद नहीं दिया। चार महीने पहले जब इंडिया गठबंधन की नींव पड़ रही थी तो भाजपा ने भी सुभासपा जैसे छोटे क्षेत्रीय दलों के भाव बढ़ा दिए थे। राजभर ने दारासिंह चौहान के साथ दिल्ली में पार्टी के बड़े नेताओं से मुलाकात कर लोकसभा चुनाव में साथ देने की पेशकश की थी।

सूत्रों के मुताबिक बदले में अमित शाह से उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्रिपद मिलने का भरोसा हासिल किया था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नाराजगी भी मंत्री पद मिलने में हो रही देरी की एक वजह मानी जा रही हैै। पिछले दो महीने से राजभर अखिलेश यादव पर जमकर हमले कर रहे हैं। अब लोकसभा चुनाव नजदीक देख राजभर ने उत्तर प्रदेश में पांच और बिहार में तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारने की मंशा जाहिर की है।

राजभर चाहते तो थे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिलना लेकिन मुलाकात पिछले हफ्ते हो पाई पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा से। सोशल मीडिया पर मुलाकात का मकसद भले राजनीतिक स्थिति पर चर्चा और राजभर जाति के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करना बताया है। जानकारों पर भरोसा करें तो नड्डा से अपनी पीड़ा ही जताई कि कैसे समर्थकों से मंत्रिपद को लेकर तारीख के चक्कर में बार-बार झूठ बोलना पड़ रहा हैै। कब खत्म होगा इंतजार?

बिन विभाग के मंत्री

हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री दोनों ही आलाकमान के करीबी होने का दावा करते हैं। ताजा पेच मंत्रिमंडल में मंत्रियों के फेरबदल से जुड़ा है। चर्चा है कि सुक्खू विभागों में ही नहीं मंत्रिमंडल में भी संक्षिप्त बदलाव करना चाहते हैं। पर आलाकमान की हरी झंडी नहीं मिल पा रही। इसी चक्कर में नए बने दो मंत्री राजेश धर्माणी और यादविंदर गोमा को अभी तक कोई विभाग नहीं मिल पाया है।

जब सुक्खू ने मुख्यमंत्री की शपथ ली थी तो उनके साथ केवल मुकेश अग्निहोत्री ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। सुक्खू को मंत्रिमंडल का विस्तार करने में 21 दिन लग गए थे। धर्माणी और गोमा को आलाकमान के दबाव में पिछले महीने मंत्रिपद की शपथ तो दिला दी पर विभाग 24 दिन बाद भी नहीं मिला है। बिना विभाग के मंत्री कहलाने में शर्म महसूस कर रहे हैं दोनों।

कर्नाटक का पैसा

एचडी देवेगौड़ा का आरोप है कि कांग्रेस ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक का पैसा खर्च किया। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार पर निशाना साधते हुए कहा कि वे कर्नाटक से खासतौर पर बेंगलुरु से पैसे का प्रवाह पांच चुनावी राज्यों में कांग्रेस तक होने को रोक नहीं सके।

देवेगौड़ा ने कहा, अब सामने आ रहा है कि वह कहां-कहां गए थे और कितना पैसा पहुंचाया था। पत्रकारों से उन्होंने कहा, कृपया इसे अन्यथा न लें तो पांच राज्यों के चुनाव के दौरान यहां से कितना पैसा ले जाया गया? यह किसकी संपत्ति है? यह कर्नाटक की जनता का पैसा है। हमारे उपमुख्यमंत्री (शिवकुमार) और उनकी… वह कहां गए, उन्होंने कितना पैसा पहुंचाया?

कमजोर कांग्रेस

जिसका डर था, वही हुआ। उत्तर के तीन राज्यों में हारने के बाद इंडिया गठबंधन में कांगे्रस की हैसियत कमजोर हुई है। इसका सीधा असर बंगाल में दिख रहा है। तृणमूल कांगे्रस के नेताओं की अंदरूनी लड़ाई भी ममता बनर्जी का सिरदर्द बनी हुई है। बुजुर्ग और युवा दोनों खेमे एक दूसरे की लानत-मलानत कर रहे हैं। युवा तबके की अगुआई ममता के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी कर रहे हैं और उनके हिमायती हैं कुणाल घोष।

यह खेमा चाहता है कि बुजुर्ग नेता संन्यास ले लें। इसी चक्कर में खुद ममता बनर्जी ने इसी हफ्ते अभिषेक को बुलाकर देर तक समझाया। उधर तृणमूल कांगे्रस सीटों के बंटवारे में हेकड़ी दिखा रही है। उसने कांगे्रस को दो सीटें देने की पेशकश की है। कांग्रेस को 2019 में सूबे में दो ही सीटों पर सफलता मिली थी। जबकि 2014 में उसकी सीटें चार थी। झटका तो पिछली बार तृणमूल कांगे्रस को भी कम नहीं लगा था।

वह 34 सीटों से घटकर 20 सीटों पर आ गई थी। भाजपा अभी भी सूबे में अपनी सीटें 18 से बढ़ाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। ममता बनर्जी ने अगर कांगे्रस के साथ पश्चिम बंगाल में चुनावी गठबंधन नहीं किया तो अधीर रंजन चौधरी के मुताबिक कांगे्रस सभी सीटों पर लड़ेगी। बहुकोणीय मुकाबला हुआ तो सीटें बढ़ाने के अपने मिशन में भाजपा की सफलता के आसार तो बढ़ेंगे ही। बहरहाल कांगे्रस दो सीटों से तो संतुष्ट होने से रही। देखते हैं आगे क्या होता है।

कुर्सी का सुरक्षा कवच

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी पत्नी कल्पना सोरेन को अपनी जगह मुख्यमंत्री बनाने की अटकलों को खारिज भले कर दिया है पर सरफराज अहमद के विधानसभा से इस्तीफे के पीछे हेमंत की कुछ तो रणनीति होगी ही। इस्तीफा भी सोच-समझकर 31 दिसंबर को दिलाया गया। वे सामान्य सीट से विजयी हुए थे। सोरेन आदिवासी हैं। इस नाते उनकी पत्नी को उपचुनाव के लिए कोई जनजातीय सीट तलाशनी चाहिए थी।

पर कल्पना की जाति को लेकर द्वंद्व है। वे झारखंड की नहीं बल्कि ओडिशा की हैं। उनकी जाति को झारखंड में अनुसूचित जनजाति की मान्यता नहीं है। उपचुनाव उसी सूरत में होता है जब विधानसभा का कार्यकाल एक साल से ज्यादा बचा हो। झारखंड में चुनाव यों दिसंबर 2019 में हो गए थे, विधानसभा की पहली बैठक छह जनवरी को हो पाई थी। हेमंत ईडी के छह बुलावों की अनदेखी कर चुके हैं।

अगर ईडी को अदालत से वारंट मिल गया तो सोरेन की गिरफ्तारी भी संभव है। विधानसभा में अभी सोरेन को 80 के सदन में 47 का बहुमत है। कांगे्रस और राजद उनके साथ खड़े हैं। तभी विधायक दल ने उन्हें इस्तीफा नहीं देने की सलाह दी। पर सयाने हेमंत ने सरकार बचाने का सुरक्षा कवच तो तैयार कर ही लिया है।

संकलन : मृणाल वल्लरी