लोकसभा चुनाव करीब देख बसपा सुप्रीमो मायावती अचानक सक्रिय हुई हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस बार खुद बहिनजी ने एक भी चुनावी रैली करने की जरूरत नहीं समझी। उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान कायम करने वाली मायावती इस समय किसी भी सदन की सदस्य नहीं हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में पिछले साल उनका महज एक उम्मीदवार विजयी हुआ था।
इसके बावजूद वे अभी भी इसी खुशफहमी का शिकार हैं कि लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी। अकेले तो उन्होंने 2014 में भी लड़ा था लोकसभा चुनाव। खाता तक नहीं खुल पाया था। बहुजन समाज को जोड़ने का दम भरने वाली मायावती का पुख्ता समझा जाने वाला दलित वोट बैंक बिखर चुका है। गनीमत है कि 2019 में उन्होंने सपा से गठबंधन किया था। तभी तो दस सीटें मिल गई थी।
कांशीराम ने बसपा को उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी फैलाया था। राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता दिला दी थी। लेकिन मायावती उसे विस्तार देना तो दूर सहेज कर भी नहीं रख पाई। देश में प्रधानमंत्री ने परिवारवादी दलों के खिलाफ अभियान चला रखा है, फिर भी मायावती ने पिछले हफ्ते एलान कर दिया कि उनका उत्तराधिकारी उनका भतीजा आकाश आनंद होगा। उत्तराधिकारी तो घोषित कर दिया पर उसे सौंपने के लिए सियासी विरासत तो बची ही नहीं।
75 के पहले
राजस्थान और मध्यप्रदेश में भाजपा आलाकमान के फैसले से हर कोई हैरान है। सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को तो विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका सौंप दी पर वसुंधरा और शिवराज अब कहां फिट होंगे, इसे लेकर अनिश्चय की स्थिति है। दोनों ने कोई बगावत तो नहीं की पर उनके तेवर आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं। शिवराज ने तो ज्यों की त्यों रख दीनी चदरिया कहकर संकेत भी दे दिया कि वे खुश नहीं हैं।
बेशक भाजपा ने ऐसे प्रयोग हरियाणा, गुजरात, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तराखंड में पहले भी किए हैं। बगावत का दम होता तो वसुंधरा अपने समर्थकों के टिकट काटे जाते वक्त ही तेवर दिखाती। उन्हें अपने बेटे दुष्यंत सिंह के सियासी भविष्य की फिक्र भी जरूर होगी। शिवराज के परिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं है। अपने कद्दावर नेताओं को पहले भी भाजपा हाशिए पर भेजती रही है, मार्गदर्शक की उम्र (75) के पहले।
संसद के गलियारे में कौन बनेगा?
तीन राज्यों के ‘मुख्यमंत्री एक खोज’ का असर संसद सत्र पर भी पड़ा। पत्रकार और माइक देखते ही कुछ सांसद मुंह फेर लेते थे। संसद के शीतकालीन सत्र की वजह से राज्यसभा और लोकसभा के सांसद इस बार दिल्ली में थे। इसी बीच सभी राज्यों के मुख्यमंत्री व अन्य पदों के लिए कयासों का दौर चल रहा था। जो भी नेता इन कयासों की सूची में शामिल थे, वे संसद के गलियारे में मीडिया से बचते ही नजर आए।
पार्टी के निर्णय के बाद ये सभी चेहरे परिदृश्य से बाहर हो गए। पार्टी के जमीनी नेताओं का तर्क है कि इन फैसलों से ऐसे कार्यकर्ता जो कि अभी किसी दौड़ में शामिल नहीं है, उनके मन में भी आस बंधी है कि पार्टी में उनकी सक्रियता ही भविष्य में उनके लिए सत्तार के दरवाजे खोल देगी।
उम्मीदों का अंत
दुष्यंत चौटाला इस समय हरियाणा के उपमुख्यमंत्री हैं। अपने दौर के कद्दावर जाट नेता रहे चौधरी देवी लाल के पौत्र दुष्यंत को उम्मीद थी कि हरियाणा से सटे राजस्थान के जाट बहुल इलाकों में वे सेंध लगा पाने में कामयाब होंगे। पर नतीजों ने उनके सपने को चकनाचूर कर दिया। उन्होंने 19 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। खुद 20 रैलियां भी की। भरोसा था कि छह सीटों पर वे मुकाबले में रहेंगे।
लेकिन सारे उम्मीदवार कुल मिलाकर 0.14 फीसद वोट ही ले पाए। फतेहपुर में नंदकिशोर महरिया को जरूर 23 हजार वोट मिल गए। पार्टी को कुल मिलाकर नोटा से भी कम वोट पड़े। रही महरिया की बात तो उनका अपना असर रहा है। तभी तो 2013 में वे इसी सीट से निर्दलीय के तौर पर जीत गए थे। राजस्थान में सिर मुंडाते ओले पड़े तो उसका असर हरियाणा में भी नजर आया। भाजपा के नेताओं ने फिर राग अलापना शुरू कर दिया कि पार्टी को अगला चुनाव अपने बूते लड़ना चाहिए।
पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र सिंह ने तो यह मांग खुलकर कर भी दी है। वैसे भाजपा ने पिछला विधानसभा चुनाव भी हरियाणा में अपने बूते लड़ा था। बहुमत से पिछड़ी तो फिर जजपा के साथ गठबंधन मजबूरी हो गई। जहां तक जजपा का सवाल है, दुष्यंत चौटाला ने यह पार्टी अपने दादा से बगावत कर 2018 में बनाई थी। एक तो जजपा पहले से ही अंतर्विरोध की शिकार है ऊपर से पार्टी के जनाधार को लेकर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं।
पुष्पा भारती को व्यास सम्मान
पुष्पा भारती के संस्मरण ‘यादें, यादें और यादें’ को 2023 के व्यास सम्मान के लिए चुना गया है। भारती प्रेम और स्मृति की कथाकार हैं। उन्होंने विशेष राजनीतिक घटनाओं को कथ्य बनाते हुए अहम सत्यकथाएं लिखी हैं। ‘मुक्ताराजे’ के छद्म नाम से कभी सत्यकथा लिखने वाली पुष्पा भारती संस्मरण, जीवनी और रेखाचित्र की विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं।
उनके संस्मरणों की किताब को केके बिरला फाउंडेशन ने व्यास सम्मान के लिए चुना है। सम्मानित किताब में उन साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य में एक लकीर बनाई है। माखनाल चतुर्वेदी, अज्ञेय, महादेवी वर्मा, निराला, राही मासूम रजा, कमलेश्वर, कवि प्रदीप, धर्मवीर भारती के ये संस्मरण एक साहित्यिक दस्तावेज की तरह हैं।
हिंदी साहित्य और संस्मरण का रिश्ता काफी पुराना है, लेकिन पुष्पा भारती ने इस विधा में जो साहित्यक सिद्धी हासिल की है उसका उदाहरण ‘यादें, यादें और यादें’ हैं। साहित्यिक संस्मरणों को जिस संवेदना के स्तर पर पुष्पा भारती ले जाती हैं, उन यादों को जिस तरह संजोती हैं, उससे इस विधा की कतार में अलग खड़ी नजर आती हैं।
संकलन : मृणाल वल्लरी