भारतीय राजनीति में गठबंधन और समीकरणों का खेल दिलचस्प मोड़ पर है। दक्षिण में भाजपा और तेलगुदेशम के रिश्तों में मधुरता के बावजूद सियासी आशंकाएं बनी हुई हैं, तो वहीं कांग्रेस अपने राज्यसभा के प्रमुख विपक्षी दल के दर्जे को बचाने की जद्दोजहद में जुटी है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ मिल्कीपुर सीट जीतने के लिए हर दांव खेल रहे हैं, जबकि कर्नाटक में शिवकुमार और सिद्धारमैया की रस्साकशी कांग्रेस के लिए नई मुसीबत खड़ी कर रही है। उधर, मायावती दिल्ली चुनाव में दलित वोट बैंक मजबूत करने की रणनीति में जुटी हैं, जिससे केजरीवाल की चिंता बढ़ गई है।
दक्षिण के दोस्त
भाजपा और तेलगुदेशम के रिश्ते देखने में तो बेहद मधुर लगते हैं। केंद्र की सरकार के लिए चंद्रबाबू नायडू ने किसी तरह की अड़चन अभी तक पैदा नहीं की। प्रधानमंत्री भी नायडू के सूबे का बिहार से कहीं ज्यादा ध्यान रख रहे हैं। बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इसके बावजूद न तो नीतीश की विशेष राज्य के दर्जे की मांग अभी तक पूरी की है और न ही बिहार को कोई बड़ा आर्थिक पैकेज दिया है। इसके उलट आंध्र के लिए प्रधानमंत्री खुद जाकर दो लाख करोड़ की परियोजनाएं घोषित कर आए। अमरावती को राजधानी बनाने के लिए तो 15 हजार करोड़ रुपए की रकम पहले ही मंजूर कर दी थी। इसके बावजूद दोनों दलों के रिश्ते आशंकाओं से मुक्त नहीं हैं। नायडू जानते हैं कि भाजपा दक्षिण में पांव पसारना चाहती है। आंध्र में अभी पार्टी कमजोर है। यहां पार्टी को पवन कल्याण से उम्मीद है जो जनसेना पार्टी के नेता हैं और हिंदुत्व के प्रबल समर्थक माने जाते हैं। नायडू जहां कम्मा हैं वहीं पवन कल्याण कापू समुदाय से आते हैं। पहली बार दो मजबूत समुदाय एक साथ आएं हैं। भाजपा जानती है कि कापू और कम्मा का साथ ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। सो वह पवन कल्याण को ज्यादा निकट मान रही है। भाजपा जड़ें जमाएगी तो तेलगुदेशम को घाटा होगा। भविष्य के समीकरणों का ख्याल कर नायडू पवन कल्याण को सियासत में ज्यादा मजबूत नहीं होने देना चाहते।
दर्जा पर खतरा
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद कांग्रेस को दस साल के इंतजार के बाद मिला है। इस खुशी पर ग्रहण राज्यसभा लगा सकती है, जहां कांगे्रस के सदस्यों की संख्या में बढ़ोतरी के बजाए कमी आई है। प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा बनाए रखने के लिए कांग्रेस के राज्यसभा में न्यूनतम 24 सदस्य होने जरूरी हैं। अभी यह आंकड़ा 27 है और पार्टी का यह दर्जा कायम है। लोकसभा चुनाव के बाद उसकी सीटें राज्यसभा में घटी हैं। केसी वेणुगोपाल और दीपेंद्र हुड्डा ने लोकसभा के लिए चुने जाने पर राज्यसभा से इस्तीफा दिया है। उपचुनाव में ये सीटें कांग्रेस के हाथ से निकलनी तय हैं। राज्यसभा के अगले चुनाव में कांग्रेस को छत्तीसगढ़ और राजस्थान में नुकसान होगा। कर्नाटक और तेलंगाना में कुछ लाभ मिल सकता है। कांग्रेस झारखंड में हेमंत सोरेन से राज्यसभा की एक सीट के लिए गुहार लगा सकती है।
मिल्कीपुर पर योगी की नजर
उत्तर प्रदेश की मिल्कीपुर विधानसभा सीट को उपचुनाव में योगी आदित्याथ किसी भी कीमत पर समाजवादी पार्टी से छीनना चाहते हैं। कांग्रेस और बसपा ने यहां उम्मीदवार खड़े नहीं किए हैं तो मुकाबला भाजपा और सपा में है। किसी एक विधानसभा सीट का उपचुनाव हो तो आमतौर पर मुख्यमंत्री वहां प्रचार करने नहीं जाते। लेकिन मिल्कीपुर की लड़ाई को महाभारत मानकर लड़ रहे योगी तो अब तक मिल्कीपुर के कई दौरे कर चुके हैं। अखिलेश यादव इसी खुशफहमी में हैं कि इस सीट पर 90 फीसद वोट पीडीए का है। भाजपा हारी तो बड़ी बात नहीं होगी क्योंकि मिल्कीपुर उसका गढ़ नहीं पर जीती तो योगी आदित्यनाथ अपने अपराजेय होने का संदेश जरूर दे पाएंगे।
सहज नहीं सरकार
कर्नाटक में डीके शिवकुमार और सिद्धरमैया के बीच कोई घोषित जंग भले न हो रही हो पर दोनों ही खेमे एक-दूसरे को कमजोर करने का कोई मौका नहीं चूक रहे। शिवकुमार मुख्यमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। जबकि सिद्धरमैया मुख्यमंत्री हैं। पिछड़ों, मुसलमानों और दलितों में उनकी पैठ शिवकुमार से कहीं ज्यादा है। यही देखकर कांग्रेस आलाकमान ने शिवकुमार की जगह सिद्धरमैया को मुख्यमंत्री बनाया था। शिवकुमार खेमा इसे पार्टी हित में अपने नेता का त्याग बताता है। यह खेमा कई बार कह चुका है कि मुख्यमंत्री पद के लिए आलाकमान ने दोनों नेताओं को ढाई-ढाई साल तक मौका देने की बात कही थी। इसे सिद्धारमैया ने पहले खारिज किया था। पर अब उनके सुर नरम पड़े हैं। उन्होंने पहली बार माना है कि सत्ता हस्तांतरण की बात हुई थी। पर फैसला आलाकमान को करना है। इस बीच सिद्धरमैया खेमे ने एक व्यक्ति एक पद का जुमला उछाल दिया है। सिद्धरमैया चाहते हैं कि शिवकुमार को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाया जाए। किसी और को सूबे में पार्टी की कमान सौंपी जाए। उन्हें लगता है कि वे प्रदेश अध्यक्ष शिवकुमार से आसानी से नहीं निपट सकते। जबकि उपमुख्यमंत्री शिवकुमार से निपटना उतना कठिन नहीं होगा। आलाकमान जानता है कि शिवकुमार जिस वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं, उसमें भाजपा का जनाधार ज्यादा है। ऐसे में दोनों क्षत्रपों के दांव-पेच मुसीबत बढ़ा रहे हैं।
दिल्ली में मायावती
मायावती ने अपने जनाधार वाले राज्य के मिल्कीपुर में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा है। लेकिन वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत लगा रही हैं। आम आदमी पार्टी के नेता दबी जुबान से उन पर यह आरोप लगाने से नहीं चूक रहे कि वे दलित वोट का बंटवारा कर भाजपा को फायदा पहुंचाने की मंशा से इस चुनाव में उतरी हैं। चुनाव की कमान उनके भतीजे आकाश आनंद के हाथ में है। आम आदमी पार्टी के उभार से पहले दिल्ली में बसपा को चुनाव में छह फीसद वोट तक मिल गए थे। सीट भी जीती थी उसने। पिछले दो चुनाव में पार्टी का खाता तो खुला ही नहीं वोट भी सिमट कर एक फीसद रह गए। विधानसभा की 70 में से 68 सीटों पर बसपा के उम्मीदवार मैदान में हैं। आरक्षित सीटें भले 12 हों पर मायावती ने दलित उम्मीदवार 45 उतारे हैं। जाहिर है कि जीत से ज्यादा मकसद दलित वोट बैंक को साथ लाना है। चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी भी यहां 15 सीटों पर लड़ रही है। दिल्ली में दलित और मुसलमान आम आदमी पार्टी का जनाधार माने जाते हैं। दलितों में बसपा ने सेंध लगाई तो घाटा केजरीवाल को होने का अंदेशा है।