आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी और उनकी बहन वाईएस शर्मिला के बीच बिजली कंपनी के शेयरों को लेकर कानूनी विवाद छिड़ गया है, जिससे जगनमोहन की राजनीतिक स्थिति कमजोर हुई है। वहीं, महाराष्ट्र में पवार परिवार में तनाव बढ़ रहा है, जहां अजित पवार ने अपने भतीजे को चुनावी मैदान में उतारा है। दिल्ली में भाजपा के नए नेताओं के आने के बावजूद पुराने नेताओं की दूरी बनी हुई है, जबकि उत्तर प्रदेश में सपा ने मुसलमान वोटों को लेकर चिंताएं जताई हैं। इसी बीच, जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की कैबिनेट ने राज्य को पूर्ण दर्जा बहाल करने का प्रस्ताव पारित किया है, जिससे नई उम्मीदें जग गई हैं।

अदालत में रिश्ते

आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी का अपनी बहन वाईएस शर्मिला के साथ कानूनी विवाद सुर्खियों में है। शर्मिला इस समय आंध्र प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। जबकि जगनमोहन रेड्डी अपनी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं। विवाद एक बिजली कंपनी के शेयरों को हस्तांतरित करने को लेकर है। जगनमोहन के मुताबिक ये शेयर उन्होंने अपनी मां विजयाम्मा को उपहार में दिए थे। जो शर्मिला ने मां से अपने नाम करा लिए। घर की कलह से जगनमोहन की परेशानी तो बढ़ी ही है। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के साथ गठबंधन के कारण भाजपा से अब वे किसी मदद की उम्मीद कर नहीं सकते। चुनाव में जगनमोहन की हार के बाद कांग्रेस को आस जगी थी कि अपनी बहन की तरह वे भी अपनी मूल पार्टी में वापस आ जाएंगे। फिलहाल यह मुमकिन नहीं लगता। सियासी परिवारों के बीच मतभेद व कानूनी जंग पहले भी होते रहे हैं। मसलन मेनका गांधी की संजय गांधी की मौत के बाद सास और तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ लड़ाई इस हद तक कटु हो गई थी कि मेनका ने कांग्रेस से नाता ही तोड़ लिया। राजमाता विजया राजे सिंधिया की अपने बेटे माधव राव सिंधिया से संपत्ति के बंटवारे को लेकर लड़ाई सामने आई थी। जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार और बहू कमलजीत कौर ही नहीं, उनके बेटे सुरेश की प्रेमिका सुषमा तक ने पारिवारिक संपत्ति में दावा ठोका था।

पवार परिवार

अजित पवार की बारामती विधानसभा सीट पर चाचा शरद पवार ने अपने नौजवान पौत्र युगेंद्र पवार को मैदान में उतार दिया है। युगेंद्र अजित के सगे भतीजे हैं। उनके छोटे भाई श्रीनिवास पवार के पुत्र हैं। पवार परिवार में इस तरह का विभाजन एनसीपी के बंटवारे के बावजूद नहीं दिखा था। पर शुरुआत खुद अजित पवार ने लोकसभा चुनाव में अपनी चचेरी बहन सुप्रिया सुले के मुकाबले अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को उतारकर की थी। उनके छोटे भाई श्रीनिवास पवार ने तभी उनकी मुखर आलोचना कर दी थी। इस चुनाव में सुनेत्रा के हारने से अजित पवार की किरकिरी तो हुई ही थी, महायुति यानी गठबंधन के सहयोगियों भाजपा और एकनाथ शिंदे की नजर में उनका कद भी बौना हो गया था। लोकसभा चुनाव की तरह ही इस बार भी अगर अजित पवार पटखनी खा गए तो खतरे में पड़ जाएगा उनका सियासी भविष्य।

दिवाली पर दिख गई दूरी

दिल्ली के राजनीतिक पर्यावरण पर चुनाव का मौसम आ चुका है। चुनाव से पहले दूसरे दलों के बड़े नेताओं ने हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के परिवार में प्रवेश किया है लेकिन स्थानीय स्तर पर नेता इन ‘बाहरी’ नेताओं से अभी भी दूरी बनाते नजर आ रहे हैं। यह दूरी पिछले दिनों हुए दीपावली मिलन के कार्यक्रमों में साफ नजर आई जहां दक्षिण दिल्ली के एक नेता ने ‘दीपावली भाजपा परिवार वाली’ कार्यक्रम का आयोजन किया। ऐसे आयोजनों से पूर्व विधायक और कांग्रेस से आए नेता दूर ही रहे। यह इस बात की तरफ साफ इशारा है कि जमीनी स्तर पर दूसरे दलों के नेताओं को नहीं स्वीकारा जा रहा है। इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव के स्तर पर भी साफ नजर आने वाला है।

वोट की चोट

‘इंडिया’ गठबंधन के दोनों बड़े दलों के बीच मुसलमान वोट को लेकर चूहे-बिल्ली वाला खेल चल रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए 16 सीटें छोड़नी पड़ी थीं। वजह यह अवधारणा थी कि सारे देश में मुसलमान मतदाताओं का रुख तब कांग्रेस के पक्ष में माना जा रहा था। सपा और कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मिलकर नहीं लड़ते तो भले कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाता पर सपा भी उस मुकाम तक कतई न पहुंच पाती जहां वह गठबंधन के चलते पहुंच गई। अपने पिता के 2004 में सपा के सर्वाधिक लोकसभा सीट जीतने के रिकॉर्ड को भी तोड़ दिया अखिलेश ने। इससे उनकी यह चिंता भी बढ़ गई कि सूबे में मुसलमान तो दशकों से सपा का वोट बैंक थे।

वे कांग्रेस के साथ गए तो सपा का भविष्य खतरे में आ जाएगा। शायद इसी चिंता ने उन्हें सूबे में हो रहे विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव में चार मुसलमान उम्मीदवार उतारने को मजबूर किया है। वे महाराष्ट्र में भी महाराष्ट्र विकास अघाड़ी पर एक दर्जन सीटों के लिए दबाव बना रहे हैं। पांच सीटों के उम्मीदवार तो वे घोषित भी कर आए। पांचों ही मुसलमान। अखिलेश के महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता अबू आजमी धमकी दे चुके हैं कि उन्हें मांग के मुताबिक सीटें न मिली तो 25 सीटों पर अकेले लड़ेंगे। कांग्रेस फिलहाल इंतजार करो और देखो की नीति पर चल रही है। हरियाणा की हार के बाद पार्टी का हाल बुरा ही है।

उम्मीदजदा उमर

उम्मीद है कि केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के मूड में है। शायद इसलिए अब्दुल्ला कैबिनेट के पहले ही फैसले पर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने मंजूरी दे दी। अब्दुल्ला कैबिनेट ने 17 अक्टूबर को अपनी पहली ही बैठक में जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव एकमत से पारित कर उपराज्यपाल को भेजा था। उपराज्यपाल ने भी उसे मंजूरी देने में देर नहीं लगाई। उमर अब्दुल्ला भी अगले ही हफ्ते दिल्ली पहुंच गए। जहां गृहमंत्री, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तीनों से ही उनकी मुलाकात हुई। संकेत मिले हैं कि प्रधानमंत्री ने राज्य के दर्जे के मामले में सकारात्मक रुख दिखाते हुए संसद के आगामी सत्र में इसे लाने की बात कही है।

राज्य का दर्जा बहाल करने का फैसला उमर अब्दुल्ला पर कोई एहसान नहीं होगा। दरअसल एक तो भाजपा ने चुनाव में इसका वादा किया था, ऊपर से सुप्रीम कोर्ट के आदेश में भी विधानसभा चुनाव कराने और राज्य का दर्जा बहाल करने की बात कही गई थी। उमर अब्दुल्ला के केंद्र के साथ सहयोग कायम रखने, 370 की वापसी की मांग फिलहाल नहीं करने और कांग्रेस को सरकार में शामिल न करने जैसे फैसलों ने भाजपा को संतुष्ट तो किया ही होगा।