Jansatta Rajpaat: सियासत की फिजाओं में इन दिनों मुद्दों की गर्मी कुछ ज़्यादा ही है। बिहार में जाति बनाम शराब का समीकरण बन रहा है तो महाराष्ट्र में ठाकरे भाइयों की नज़दीकियों ने सत्ता समीकरणों को उलझा दिया है। वसुंधरा राजे अपने तेवरों से भाजपा को भीतर से चुनौती दे रही हैं, वहीं डीके शिवकुमार कांग्रेस की धर्म और सत्ता नीति को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं। उधर, भाजपा संगठन के चुनाव भी धीमी रफ्तार से चल रहे हैं, जो अंदरखाने की खींचतान की ओर इशारा करते हैं। कुल मिलाकर राजनीति के इस दौर में हर चेहरा दोहरी रणनीति और बहुपरतीय एजेंडे के साथ मैदान में है।
जाति बनाम शराब
जाति जनगणना कराने का फैसला भाजपा को बिहार चुनाव के मद्देनजर ही लेना पड़ा है, इसमें किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए। जातीय जनगणना की मांग सबसे पहले बिहार से ही उठी थी। तब नीतीश कुमार का राजद से गठबंधन था। भाजपा विपक्ष में थी। नीतीश ने विधानसभा से इसके पक्ष में प्रस्ताव भी पारित कराया था। बिहार से सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री से भी मिला था। उस वक्त भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर इसके पक्ष में नहीं थी। जाहिर है कि नीतीश के दबाव और सियासी परिस्थितियों के मद्देनजर केंद्र सरकार को यह फैसला लेना ही पड़ा। खास कर तब जब राजद को कमजोर नहीं आंक जा सकता।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: बंटेंगे तो बचेंगे?
अन्य दलों के साथ अब भाजपा भी इस मुद्दे के सहारे दलितों और पिछड़ों की हमदर्द होने का दम भरेगी। पर शराबबंदी के सवाल पर तो भाजपा खामोश है। जबकि चुनाव में राजद ने इसे भी मुद्दा बनाने का फैसला किया है। तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि सरकार बनते ही वे ताड़ी को शराब की श्रेणी से बाहर कर उसका नियमितीकरण करेंगे। जबकि प्रशांत किशोर ने तो यहां तक दावा कर दिया है कि सरकार बनने के एक घंटे के भीतर सूबे से शराबबंदी खत्म कर देंगे। भाजपा महसूस तो कर रही है कि चुनाव में शराबबंदी के मुद्दे से नुकसान हो सकता है। पर नीतीश की इच्छाशक्ति के आगे मौन साधने में ही हित मान रही है।
पास आएंगे भाई?
महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव) के मुखिया उद्धव ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया और अपने चचेरे भाई राज ठाकरे के साथ रिश्ते सुधरने की चर्चा ने सियासी हलकों में खलबली मचा दी है। दोनों भाई बीस साल पहले एक दूसरे से सियासी तौर पर जुदा हुए थे। बीस साल बाद बाल ठाकरे के दोनों सियासी वारिसों की जमीन खिसकी है। उद्धव का कांगे्रस के साथ और राज का भाजपा के साथ होना दोनों के बीच तालमेल की बड़ी बाधा है। लेकिन मराठी अस्मिता और महाराष्ट्र के हित में दोनों ही त्याग करने का दावा कर रहे हैं। मुंबई नगर निगम के चुनाव ने दोनों को पुनर्विचार के लिए बाध्य किया है। ऊपर से उद्धव को अपने बेटे आदित्य और राज को अपने बेटे अमित के भविष्य की भी तो चिंता है। वैसे भी राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न दुश्मन।
अध्यक्ष…अभी तो देर लगेगी
पहले लोकसभा चुनाव और बाद में दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद भी भाजपा के संगठन चुनाव की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो पाई है। देशभर में 38 में से बीस राज्यों के प्रदेशों के नाम भी तय हो जाए तो नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम आसानी से तय हो सकता है लेकिन पहले चुनाव और अब पहलगाम हमले के बाद से संगठन में चुनाव की प्रक्रिया लटकी हुई है। केवल मध्य प्रदेश के संगठन की प्रक्रिया का ही उदाहरण लें तो यहां करीब दो माह से भी अधिक समय पहले जिला अध्यक्षों के चयनकी प्रक्रिया को पूर्ण कर लिया गया था। इस प्रक्रिया के बाद भी राज्य को नया प्रदेश अध्यक्ष नहीं मिला है। राज्यों की प्रक्रिया आगे बढ़ने के बाद ही इस प्रक्रिया को पूरा किया जा सकता है। अभी तो देर लगेगी…।
बेअसर तेवर
वसुंधरा राजे को उनकी पार्टी ने बेशक हाशिए पर पहुंचा रखा है पर वे अपनी हनक छोड़ने को तैयार नहीं। पिछले लंबे समय से वे भाजपा में अपनी अहमियत साबित करने की कोशिश में लगी हुई हैं। उन्होंने कई बार साफ किया है कि फिलहाल अपने अस्तित्व से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। अपने तेवर उन्होंने पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा और पार्टी के प्रभारी महासचिव राधा मोहन दास अग्रवाल की मौजूदगी में भी बेबाकी से दिखा दिए। मौका मदन राठौर की फिर पार्टी अध्यक्ष पद पर ताजपोशी का था। अग्रवाल ने राजस्थान भाजपा में गुटबाजी की समस्या का सीधे तो उल्लेख नहीं किया पर पड़ोसी राज्य गुजरात का उदाहरण दे वहां मौजूद सूबे के पार्टी नेताओं को नसीहत देने की कोशिश जरूर की। फरमाया कि गुजरात आज तकरीबन कांगे्रस मुक्त है। पर राजस्थान में 11 लोकसभा सीटें भाजपा के पास नहीं हैं। स्थानीय निकायों में तो चुनौती और बड़ी है। संगठन को एकजुट होकर गुजरात जैसी मिसाल पेश करनी चाहिए। वसुंधरा की बारी आई तो उन्होंने अग्रवाल को उन्हीं की शैली में बेबाक जवाब दिया कि गुजरात से तुलना हम नहीं कर सकते क्योंकि राजस्थान अपने हिसाब से चलता है। लोग तभी साथ देते हैं जब हम उनकी चिंता करते हैं। हम पार्टी को मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के भरोसे ही नहीं छोड़ सकते। हमारी भी जिम्मेदारी है। हमें एकजुट, नो गुट और एक मुख की नीति पर चलना होगा।
डीके की दृष्टि
डीके शिवकुमार अपनी ही पार्टी के लिए पहेली बन चुके हैं।कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिवकुमार को कांगे्रस का संकट मोचक माना जाता है। विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी को मुख्यमंत्री का फैसला करने में पसीने छुड़ा दिए थे अपनी दावेदारी से शिवकुमार ने। जब-तब उनके भाजपा में जाने की अटकलें भी लगती रही हैं। पिछले दिनों जब वे महाकुंभ में प्रयागराज गए थे तब भी कानाफूसी हुई थी क्योंकि उसी समय गृहमंत्री अमित शाह भी वहीं मौजूद थे। उनके लिए पार्टी को एक व्यक्ति-एक पद के सिद्धांत से समझौता करना पड़ा है। या तो मुख्यमंत्री बनेंगे अन्यथा प्रदेश अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री दोनों पदों पर रहेंगे। अब उन्होंने नया दांव चला है। वे मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं।
यह बात अलग है कि शिवकुमार कई बार कह चुके हैं कि वे हिंदू हैं और हिंदू ही मरेंगे। उनके मंदिर दर्शन को लेकर राज्य सरकार के ही एक मंत्री के एन राजन्ना ने भी सवाल उठाया था। जिसका जवाब शिवकुमार के भाई पूर्व सांसद डीके सुरेश ने दिया था। लगता है कि शिवकुमार दूर दृष्टि दिखाते हुए अपनी छवि कांगे्रस नेता के साथ-साथ हिंदुवादी नेता की भी बना रहे हैं।
संकलन: मृणाल वल्लरी