अब राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। दोस्त को दुश्मन और दुश्मन को दोस्त बनने में देर नहीं लगती। आजकल तो हर कोई वैसे भी सुविधा की राजनीति ही कर रहा है। सिद्धांत और नीतियां तो गायब ही हैं। राजस्थान कांग्रेस की गुटबाजी से इसे बखूबी समझा जा सकता है। विधानसभा चुनाव करीब देख कांग्रेस के बागी नेता पायलट अचानक पलट गए हैं। अशोक गहलोत से उनकी अदावत अब दूर हो गई है। उनके शब्दों में कहें तो अदावत कभी थी ही नहीं। मतभेद जरूर थे। अपने पिता की पुण्यतिथि पर पिछले पखवाड़े तक पायलट के सुर बागी ही दिख रहे थे। उन्हें लेकर तमाम तरह की अटकलें भी लगाई जा रही थी।
पायलट ने कहा कि पार्टी अध्यक्ष खरगे की सलाह को निर्देश मानते हैं
मसलन, कोई उनके भाजपा में शामिल होने की संभावना जता रहा था तो कोई अलग पार्टी बनाकर छोटे दलों के तीसरे मोर्चे को सामने लाने की बात कर रहा था। लेकिन, दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान ने राजस्थान के दोनों नेताओं को साथ बैठाकर मतभेदों पर फिलहाल तो विराम लगा ही दिया है। पायलट ने कहा है कि पार्टी अध्यक्ष खरगे की सलाह को निर्देश मानते हैं। खरगे ने उनसे कहा है कि माफ करो, भूल जाओ और आगे बढ़ो। विधानसभा चुनाव में आगे बढ़ने के लिए सामूहिक नेतृत्व ही एकमात्र रास्ता है। गहलोत को सियासत का जादूगर कहा जाता है। उनका नाम लिए बिना पायलट ने कहा कि कोई भी जादू से चुनाव जिताने का दावा नहीं कर सकता है।
गहलोत के बारे में उन्होंने फरमाया-वे मुझसे बड़े हैं, उनके पास अनुभव भी ज्यादा हैं, उनके कंधों पर भारी जिम्मेदारियां हैं। मैं प्रदेश अध्यक्ष था तो सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश की। वे आज मुख्यमंत्री हैं, इसलिए वे सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। पर सियासत के जानकार मानते हैं कि पायलट ने अपने भविष्य की चिंता करके ही यू टर्न लिया है। मौजूदा विधायकों में उनके साथ ज्यादा नहीं हैं। अलग पार्टी बनाना दो दलीय सियासत वाले इस सूबे में नुकसानदेह हो सकता है। भाजपा में भी वसुंधरा के रहते उनके लिए यह पद पाना आसान नहीं। कम से कम राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का तो समर्थन उनके साथ है ही। मुमकिन है कि कांग्रेस में रहकर ही चुनाव बाद दिन फिर जाएं उनके।
बदले तेवर
महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ गठबंधन में सब कुछ सहज और सामान्य नहीं है। अजित पवार के नेतृत्व में राकांपा के बागी विधायकों के साथ आ जाने के बाद भाजपा नेतृत्व ने शिंदे गुट के प्रति अपने तेवर बदले हैं। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायकों की नींद उड़ी है। शिंदे सहित शिवसेना के 16 बागी विधायकों पर अयोग्य घोषित होने की तलवार लटकी है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को विधानसभा अध्यक्ष को नोटिस भी जारी कर दिया। अदालती हस्तक्षेप के कारण विधानसभा अध्यक्ष अब इस मामले को अनिश्चितकाल तक नहीं टाल पाएंगे। वैसे, खबर तो यह भी चल रही है कि सुप्रीम कोर्ट की आड़ लेकर देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र की सियासत से शिंदे को जल्द ही बाहर का रास्ता दिखा देंगे।
सत्तारूढ़ गठबंधन के ही कई नेता खुलेआम कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनके हिसाब से तो शिंदे समेत 16 विधायकों की सदस्यता जाएगी। मुख्यमंत्री बनने की फडणवीस की राह आसान हो जाएगी। अब तो शिंदे खेमा भी समझ चुका है कि राकांपा खेमे के समर्थन के बाद भाजपा की उसके लिए कोई उपयोगिता नहीं बची है। मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद विभागों के आबंटन में जैसी रस्साकसी नजर आई, उससे भी अनिश्चितता को ही बल मिला है। शिंदे तो बस नाम के मुख्यमंत्री रह गए हैं। ज्यादातर अहम विभाग तो फडणवीस ने ही ले लिए हैं। एक तरफ सरकार में हैसियत कम हो चुकी है तो दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे खेमा दावा कर रहा है कि असली शिवसेना किसकी है, यह फैसला अगले लोकसभा चुनाव में राज्य की जनता कर देगी। महाराष्ट्र में चार साल में जितने राजनीतिक समीकरण बदले हैं, आगे और भी उठापटक मचने की आशंका है।
अटकलों के बीच कहां अटके जयंत?
जयंत चौधरी को लेकर भाजपा के साथ गठबंधन करने और संसद सत्र से पहले केंद्र में मंत्री-पद की शपथ लेने की अटकलें गरम हैं। चुप्पी साध कर जयंत ने इन अटकलों को और हवा दी है। जयंत की पार्टी के उत्तर प्रदेश विधानसभा में आठ विधायक हैं। कम हैसियत के बावजूद अखिलेश यादव ने सपा समर्थन से अपनी पत्नी की जगह उन्हें राज्यसभा भेजा था। पिछला लोकसभा चुनाव वे और उनके पिता अजित सिंह (अब दिवंगत) दोनों ही हार गए थे। यह सही है कि दूसरे नेताओं की तरह अजित सिंह ने भी कई बार पाला बदला।
पर, जयंत के करीबियों का कहना है कि वे भाजपा के साथ जाने वाले नहीं। भाजपा के सहयोगियों की गत वे देख चुके हैं। उन्हें साधने की कोशिश भाजपा ने पिछले साल विधानसभा चुनाव से पहले भी की थी। वे तब भी चुप्पी साध गए थे। सियासी हलकों में उनके भाजपा ही नहीं कांग्रेस के साथ जाने की संभावना भी जताई गई थी। अंतत: वे गए सपा के साथ। हां अनिश्चय का माहौल बनाने का फायदा जरूर हो गया। 25 से ज्यादा सीटें न देने वाले अखिलेश ने उन्हें 35 सीटें दे दी। करीबी तो उनके ताजा पैंतरे को भी लोकसभा चुनाव में ज्यादा सीटें पाने का हथकंडा बता रहे हैं। (संकलन : मृणाल वल्लरी)