देखने में सहज प्रतीत होने वाली ऐसी मनोवैज्ञानिक उलझनों के हालात इंसान को भीतर से तोड़ देते हैं। विषाक्त होते संबंधों के चलते परिवार की पुरानी और नई पीढ़ी का जीवन भी मुश्किलों में घिर जाता है। नतीजतन, बहुत आम-सा लगने वाला बर्ताव भी अगर एक पक्ष के मन-जीवन को ठेस पहुंचा रहा है तो दूसरे पक्ष का समय पर चेत जाना आवश्यक है। केवल शरीर के घावों को ही पीड़ा मानने की सोच से समाज को बाहर आना चाहिए।

बीते दिनों तलाक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय की खूब चर्चा हुई। इस फैसले में सर्वोच्च अदालत ने पूरे परिवार को जोड़कर रखने की जिम्मेदारी, जीवनसाथी के बार-बार आत्महत्या की धमकी देने और एक दूसरे के चरित्र पर सवाल उठाने के मुद्दों की चर्चा की है। फैसले में अदालत ने क्रूरता का जिक्र करते हुए कहा कि भारत में तलाक के लिए किए जाने वाले मुकदमों में क्रूरता को आधार बनाना सबसे आम वजहों में से एक है, पर क्रूरता को परिभाषित करना एक कठिन काम होगा।

कानूनी रूप से क्रूरता का पैमाना और इसकी परिभाषा हर मामले में अलग-अलग होती है। यह किसी शादी की किसी विशेष अवस्था और सामाजिक-आर्थिक हालात पर भी निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार केवल शारीरिक क्रूरता को ही पीड़ित के शरीर पर पड़े निशान के रूप में स्पष्ट देखा जा सकता है।

दरअसल, साथी की आपराधिक गतिविधियों या शारीरिक दुर्व्यवहार से परे वैवाहिक जीवन से जुड़ी इन बातों का जिक्र मौजूदा दौर में मनोवैज्ञानिक रूप से बिखरते मन-जीवन का एक जरूरी पक्ष है। शादीशुदा जीवन में बहुत-सी छोटी-छोटी बातें भी मन को ठेस पहुंचाने का काम करती है। किसी भी पक्ष के लिए मानसिक प्रताड़ना का कारण बन जाती हैं। भावनात्मक मोर्चे पर बिखराव लाती हैं।

ऐसी बातों और बर्ताव को कानूनी रूप से परिभाषित कर पाना दुष्कर है। यही वजह है कि इस पक्ष पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ दिशा-निर्देश तय किए हैं, जिनके आधार पर वैवाहिक जीवन में क्रूरता की पहचान की जा सकती है। अदालत के अलग-अलग आदेशों के मुताबिक जिन बातों को क्रूरता माना जा सकता है, उनमें जीवनसाथी के विचार और व्यवहार से जुड़े कई पहलू शामिल हैं। कई पहलू लगते तो सहज से हैं, पर मन को असहज और जीवन को असुरक्षा के हालात की ओर धकेल देते हैं।

वैवाहिक जीवन बहुत से सामाजिक-पारिवारिक और व्यक्तिगत हालात से प्रभावित होता है। इनमें सब कुछ मुखर और स्पष्ट परिलक्षित नहीं होता। यही वजह है कि इन दिशा-निर्देशों में ऐसे कई ऐसे बिंदुओं को समाहित किया गया है, जो दिन-प्रतिदिन जीवन को दुष्कर बनाते हुए संबंधों में बिखराव लाते हैं। इनमें अनकहा अलगाव, मानसिक तनाव, असामान्य बर्ताव, मौखिक अभद्रता और असहयोग जैसी बातें शामिल हैं।

जैसे, किसी शारीरिक या उचित कारण के बिना जीवनसाथी के साथ लंबे समय तक अलगाव रखने और पति या पत्नी का शादी के बाद कोई बच्चा पैदा न करने के एकतरफा फैसले को मानसिक क्रूरता माना जा सकता है। सचमुच, साझे जीवन में बढ़ते असहयोग के स्थिति पीड़ा हो जाए तो यह भी मानसिक प्रताड़ना का कारण है।

यही वजह है कि अत्यधिक मानसिक तनाव, दर्द और दुख, जिसकी वजह से पति-पत्नी का एक साथ रह पाना संभव न हो पाए और लगातार रूखा व्यवहार, चिड़चिड़ापन, अनदेखी और उपेक्षा से शादीशुदा जिंदगी ऐसी स्थिति में पहुंच जाए जो पीड़ित के लिए असहनीय हो तो इसे भी मानसिक मोर्चे पर पीड़ादायी माना जा सकता है। साथ ही मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले पहलुओं की भी चर्चा गई है।

आए दिन गाली-गलौच और अत्याचार या उत्पीड़न, जिससे किसी एक की जिंदगी परेशानियों से भर जाए, वह भी मानसिक क्रूरता के अंतर्गत आ सकती है। विचारणीय है कि भारतीय परिवेश में पति-पत्नी का रिश्ता दो पीढ़ियों का पुल कहा जाता है। बुजुर्गों से जुड़ाव और नई पीढ़ी का पालन-पोषण एक साझी जिम्मेदारी के रूप में दोनों के हिस्से आता है।

ऐसे में बहुत से फैसले मिलजुल कर लिए जाने जरूरी हैं। इन दिशा-निर्देशों के अनुसार स्वास्थ्य से जुड़ी किसी अहम वजह और अपनी पत्नी की सहमति के बिना पुरुष का बधियाकरण या स्टरलाइजेशन कराना और बिना किसी चिकित्सीय कारण और अपने पति की सहमति के पत्नी का नसबंदी या गर्भपात कराना भी क्रूरता माना जा सकता है।

साथ ही एक दूसरे के बुरे बर्ताव से अगर मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है तो यह भी क्रूरता के तहत आ सकता है। गौरतलब है कि आज भी जीवन भर के साथ में ऐसी बहुत-सी बातों पर आमतौर पर गौर नहीं किया जाता, जो वैवाहिक संबंधों के बिखरते ताने-बाने की वजह बन रही हैं। कई परिवारों में यही सहज-सा लगाने वाला बर्ताव आपराधिक घटनाओं की पृष्ठभूमि बन जाता है।

कुछ समय पहले दिल्ली की एक पारिवारिक अदालत ने एक क्रिकेटर को उनकी पत्नी द्वारा मानसिक क्रूरता के आधार पर ही तलाक दिया था। निर्णय सुनाते हुए कहा गया कि विवाह बहुत पहले ही समाप्त हो चुका था और दोनों काफी समय से पति-पत्नी के रूप में नहीं रह रहे हैं। देखा जाए तो इस फैसले में अलगाव और साथ न रहने के स्थिति को क्रूरता के रूप में माना गया है।

दरअसल, व्यावहारिक जीवन की दूरियां हों या मानसिक द्वेष, वैवाहिक रिश्ते के बिखराव को लंबा खींचना दोनों ही पक्षों के लिए पीड़ादायी होता है। बीते कुछ वर्षों में हुए मामलों में ऐसी उलझन की पीड़ा से रिसते-खिंचते संबंधों का रूप भयावह आपराधिक घटना के रूप में सामने आया है। रिश्तों का भटकाव कभी विवाहेतर संबंधों में फंसने तो कभी बुरी आदतों और बर्बर होते बर्ताव के रूप में और तकलीफदेह हो जाता है।

साझा जीवन बिताने से जुड़ी स्थितियां ऐसी हो चली हैं कि सहजीवन संबंधों में भी बर्बर अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है। शादीशुदा जीवन में तो परिस्थितिजन्य कारण, रिश्ते के प्रति निराशा का भाव और भावनात्मक अस्थिरता आए दिन जीवन से जूझने के हालात बना देती हैं। बात असहयोग और असहमति तक ही न रहकर मानसिक संघर्ष तक पहुंच जाती है।

देखने में सहज प्रतीत होने वाली ऐसी मनोवैज्ञानिक उलझनों के हालात इंसान को भीतर से तोड़ देते हैं। विषाक्त होते संबंधों के चलते परिवार की पुरानी और नई पीढ़ी का जीवन भी मुश्किलों में घिर जाता है। नतीजतन, बहुत आम-सा लगने वाला बर्ताव भी अगर एक पक्ष के मन-जीवन को ठेस पहुंचा रहा है तो दूसरे पक्ष का समय पर चेत जाना आवश्यक है। केवल शरीर के घावों को ही पीड़ा मानने की सोच से समाज को बाहर आना चाहिए।

देखने में आता है कि पति-पत्नी के बीच कलह को खत्म कराने के लिए बने परिवार परामर्श केंद्रों में आने वाले अधिकतर मामले जीवनसाथी के असहयोग और समय न देने जैसी छोटी-छोटी शिकायतों से ही जुड़े होते हैं। यही छोटी लगने वाली बहुत-सी परेशानियां अब घरेलू अपराध का आंकड़ा बढ़ा रही हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़ों में भी पारिवारिक कलह आपराधिक घटनाओं की एक अहम वजह के रूप में सामने आया है। विशेषकर आत्महत्या करने के कारणों में पारिवारिक कलह से जुड़ी वजहें पहले स्थान पर हैं। बावजूद इसके समाज के दबाव और परिवार को जोड़े रखने के लिए साथी की क्रूरता सहन किए जाने का परिवेश कायम है।

दुखद यह भी है कि कानूनी पेचीदगियों के चलते भी लोग बिखरते रिश्तों से बाहर आने का रास्ता नहीं ढूंढ़ते, क्योंकि वैवाहिक अनबन से जुड़े नियम-कानून न केवल ऐसे विवादों को और उलझाने वाले साबित होते हैं, बल्कि बरसों-बरस कोई निर्णय भी नहीं आ पाता। रिश्तों में घुलती कड़वाहट कम होने के बजाय और मुखर हो उठती है।

दमघोंटू पारिवारिक माहौल में अभिभावकों के साथ बच्चे भी अनगिनत समस्याएं झेलते हैं। कई बार तो कटुता और द्वेष के इस खेल में बच्चों को ही हथियार बना लिया जाता है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश प्रताड़ना की परतों तले दबी अनकही पीड़ा को संबोधित करते हैं। वैवाहिक जीवन की साझी यात्रा में कोई भी मानसिक या शारीरिक रूप से तकलीफों का शिकार क्यों हो?