Priyanka Gandhi entry in politics: बीजेपी ने जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी को तुरुप का इक्का की तरह इस्तेमाल किया था, उसी तरह कांग्रेस ने 2019 के लिए प्रियंका गांधी को इस्तेमाल कर लिया है। कांग्रेस ने अपनी वास्तविक राजनीतिक स्थिति और जरूरतों के मद्देनजर प्रियंका को जिम्मेदारी दी है। उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया गया है। यह पहली बार है जब प्रियंका औपचारिक रूप से राजनीति में उतरी हैं। वैसे वह सीमित रूप में प्रचार में भागीदारी करती रही हैं और कांग्रेस की राजनीतिक बैठकों में भी शामिल होती रही हैं।
प्रियंका को उतारने के नफा-नुकसान: कांग्रेस के लिए प्रियंका को राजनीति में उतारने के कई मायने हैं। इसके नुकसान भी हो सकते हैं, पर ज्यादा फायदे ही हैं। नुकसान सिर्फ एक दिख सकता है कि राहुल की राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़ाने में कांग्रेस को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। प्रचार हो या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का मसला (अगर ऐसी स्थिति बनी), प्रियंका की दावेदारी राहुल से मजबूत हो सकती है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस और गोरखपुर दो अहम क्षेत्र हैं, जहां बीजेपी का दबदबा है। बनारस पीएम नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है, जबकि गोरखपुर योगी आदित्य नाथ के प्रभुत्व वाला इलाका माना जाता है। इन इलाकों की जिम्मेदारी प्रियंका को देने के पीछे साफ है कि कांग्रेस बीजेपी के बड़े चेहरे पर चोट करना चाह रही है। आज की तारीख में प्रियंका कांग्रेस का सबसे ज्यादा स्वीकार्य और बड़ा चेहरा हैं। राहुल गांधी के नाम पर विपक्षी दलों में मतभेेेद सामने आते रहे हैं। प्रियंका को उतार कर कांग्रेस इस समस्या से भी जूझना चाहती है।
राहुल गांधी ने राज्यवार सीटों का जोड़-घटाव कर 2019 चुनाव के लिए कांग्रेस के लिए अच्छी उम्मीदें बांध रखी हैं। एनडीए सरकार बनने की संभावना पूरी तरह खत्म करने के लिए प्रतिकूल शर्ताें पर भी गठबंधन करने के लिए तैयार हो रहे हैं। इन सबके बावजूद यूपी में कांग्रेस के लिए गठबंधन की स्थिति नहीं बनी। दिल्ली की कुर्सी दिलाने में यूपी के महत्व को देखते हुए कांग्रेस के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। राहुल ने इससे हिम्मत नहीं हारते हुए ‘ब्रह्मास्त्र’ लेकर मैदान में उतरने का फैसला किया है, जिससे अपने सैनिकों में भी जोश भरा जा सकता है और वार निशाने पर हुआ तो दुश्मन भी चित हुए बिना नहीं रह सकता।
पिछले कई चुनावों से देखा जा रहा है कि हर बार कांग्रेसी ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ के नारे लगाते रहे हैं। यानि राहुल गांधी ने कांग्रेसियों की पुरानी मांग पूरी की है। वैसे, खुद प्रियंका ने 1999 में बीबीसी को एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मैं हजार बार कह चुकी हूं कि राजनीति में जाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।’ लेकिन, असल में वह राजनीति से दूर नहीं रह पाईं। खास कर बीते कुछ सालों में। पर जब बात विरासत की हो तो इच्छा ज्यादा मायने नहीं रखती। उनके पिता राजीव गांधी भी कहां अपनी इच्छा से प्रधानमंत्री बने थे! कांग्रेस से जुड़े सूत्र बताते हैं कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति के लिए तैयार करने में खुद राहुल ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। इस आशंका को नजरअंदाज करते हुए कि निजी तौर पर उन्हें नुकसान भी हो सकता है। वैसे, दिवंगत कांग्रेसी दिग्गज नेता एम.एल. फोतेदार के नजरिये से देखें तो राहुल ने दादी इंदिरा की ख्वाहिश पूरी करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। फोतेदार दावा का दावा था कि 1984 में इंदिरा ने यह इच्छा जताई थी कि प्रियंका उनकी विरासत को आगे बढ़ाएं। अब जब यह हो गया है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि वह इस विरासत को किस ऊंचाई तक ले जा सकती हैं।