अगर आप किसी सुबह उठें और अखबारों में यह चीखता हुआ शीर्षक पढ़ने को मिल जाए कि, ‘अब कोई गरीब नहीं: भारत से गरीबी का सफाया’, तो हैरान न हों। नीति आयोग भी यही चाहता है कि आप इस बात पर विश्वास कर लें। इस आयोग जैसी प्रतिष्ठित संस्था सरकार की एक चाटुकार प्रवक्ता बन कर रह गई है। पहले उसने घोषणा की थी कि उसके अनुमान के मुताबिक बहुआयामी गरीबों का अनुपात 11.28 फीसद है। अब, इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने अपने अन्वेषण के आधार पर घोषणा की है कि भारत की कुल आबादी में गरीबों का अनुपात पांच फीसद से अधिक नहीं है।

उन्होंने यह आश्चर्यजनक दावा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा प्रकाशित घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) के नतीजों के आधार पर किया है। एचसीईएस ने कुछ सुखद आश्चर्य प्रस्तुत किए हैं, मगर निश्चित रूप से इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि भारत में गरीबों का अनुपात पांच फीसद से अधिक नहीं है।

आंकड़ों का अध्ययन

घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के बीच आयोजित किया गया था। इसमें 8,723 गांवों और 6,115 शहरी क्षेत्रों से 2,61,745 घरों (ग्रामीण क्षेत्रों में 60 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 40 फीसद) को शामिल करते हुए जानकारी एकत्र की गई। चलिए, हम मान लेते हैं कि यह नमूना आकार पर्याप्त था और कार्यप्रणाली सांख्यिकीय रूप से सुदृढ़ थी। इसका मकसद वर्तमान/ नाममात्र कीमतों में मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (एमपीसीई) की गणना करना था।

औसतन, एक व्यक्ति का मासिक व्यय था: ग्रामीण, रु. शहरी, रु. शीर्ष 5 फीसद 10,501 20, 824 औसत (माध्य) 3,773 6,459 निम्न 5 फीसद 1,373 2,001 माध्य 3,094 4,963 माध्य औसत व्यय का अर्थ है कि कुल जनसंख्या की पचास फीसद आबादी का प्रति व्यक्ति व्यय 3,094 रुपए (ग्रामीण) और 4,963 रुपए (शहरी) से अधिक नहीं था। अब निचली पचास फीसद आबादी पर ध्यान दें। परत-दर-परत नीचे चलते जाएं तो रपट का कथन 4 निम्नलिखित आंकड़े प्रस्तुत करता है: ग्रामीण, रु. शहरी, रु. 0-5 फीसद 1,373 2,001 5-10 फीसद 1,782 2,607 10-20 फीसद 2,112 3,157 अब बीस फीसद वाले हिस्से पर थोड़ा रुकते हैं।

क्या नीति आयोग ने इस बात पर कभी गंभीरता से विमर्श किया कि जो लोग ग्रामीण क्षेत्रों में महीने का (खाद्य और गैर-खाद्य पर) लगभग 2,112 रुपए या प्रतिदिन 70 रुपए खर्च करते हैं, वे गरीब नहीं हैं? या शहरी इलाकों में जिन लोगों का मासिक खर्च 3,157 रुपए या प्रतिदिन 100 रुपए है, वे गरीब नहीं हैं? मेरा सुझाव है कि सरकार नीति आयोग के हर अधिकारी को 2,100 रुपए दे और उनसे कहे कि वे एक महीने ग्रामीण इलाकों में जाकर रहें और फिर बताएं कि वहां उनका जीवन कितना ‘रईसी’ वाला था।

देखी हुई हकीकत

एचसीईएस ने खुलासा किया है कि ग्रामीण क्षेत्रों के उपभोग में भोजन की हिस्सेदारी घटकर 46 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 39 फीसद हो गई है। शायद यह सच हो, क्योंकि आय/व्यय और खाद्य उपभोग की मात्रा में बढ़त वैसी ही बनी हुई है या फिर धीमी गति से बढ़ रही है। अन्य आंकड़ों से लंबे समय से देखी जा रही वास्तविकताओं की पुष्टि होती है। अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां सबसे गरीब सामाजिक समूह हैं। वे औसत से नीचे हैं। ओबीसी औसत के करीब हैं। इसमें ‘अन्य’ औसत से ऊपर हैं।

राज्यवार आंकड़े भी देखी गई हकीकत की पुष्टि करते हैं। सबसे गरीब नागरिक छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मेघालय में रहते हैं- उनका ग्रामीण क्षेत्रों में एमपीसीई अखिल भारतीय औसत एमपीसीई से नीचे है। अगर हम शहरी क्षेत्रों की अखिल भारतीय औसत एमपीसीई पर विचार करें, तो केवल राज्यों के नामों में मामूली अंतर नजर आता है। इन राज्यों में लंबे समय तक भाजपा और अन्य गैर-कांग्रेस दलों का शासन रहा है। आश्चर्यजनक रूप से, तमाम प्रचारों को ध्वस्त करते हुए, 1995 से भाजपा शासित गुजरात में अखिल भारतीय औसत एमपीसीई के बरक्स ग्रामीण क्षेत्रों में 3,798 रुपए बनाम 3,773 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 6,621 रुपए बनाम 6,459 रुपए है।

गरीबों के प्रति अंधत्व

यह दावा मुझे परेशान करता है कि भारत में गरीब कुल आबादी के पांच फीसद से अधिक नहीं हैं। इसका निहितार्थ यह है कि गरीब एक लुप्त होती जनजाति है और हमें अपना ध्यान और संसाधनों का प्रवाह मध्यवर्ग और अमीरों की तरफ केंद्रित करना चाहिए। अगर यह दावा सच है तो-सरकार अस्सी करोड़ लोगों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलो मुफ्त अनाज क्यों बांटती है? जबकि, अनाज और दूसरे विकल्पों के हकदार कुल एमपीसीई का केवल 4.91 फीसद ग्रामीण और 3.64 फीसद शहरी हैं? अगर गरीब पांच फीसद से ज्यादा नहीं हैं, तो फिर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 क्यों किया गया?

निम्नलिखित चौंकाने वाले तथ्यों पर ध्यान दें: रक्ताल्पता से पीड़ित 6-59 महीने की उम्र के बच्चे 67.1 % रक्ताल्पता से पीड़ित 15-49 वर्ष की महिलाएं 57.0 % 5 वर्ष से कम उम्र के अविकसित बच्चे 35.5 % 5 वर्ष से कम उम्र के कमजोर बच्चे 19.5 % क्या नीति आयोग ने दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगते बच्चों की तरफ से अपनी आंखें बंद कर ली हैं? क्या उसे नहीं पता कि ऐसे हजारों लोग बेघर हैं और फुटपाथों या पुलों के नीचे सोते हैं? मनरेगा के तहत 15.4 करोड़ सक्रिय पंजीकृत श्रमिक क्यों हैं? उज्ज्वला लाभार्थी एक साल में औसतन केवल 3.7 सिलेंडर क्यों खरीद पाते हैं? अगर नीति आयोग केवल अमीरों की सेवा करना चाहता है, तो वह बेशक करे, मगर उसे गरीबों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। सरकार भले गरीबी दूर करने में सफल न हुई हो, पर गरीबों को अपनी नजरों से ओझल करने की पुरजोर कोशिश कर रही है।