हरियाणा के नूंह में हुए दंगे ने एक बार फिर भारत के लोकतंत्र और उसकी धर्मनिरपेक्ष वाली पृष्ठभूमि को सवालों के घेरे में ला दिया है। एक शोभायात्रा निकली, दूसरे समुदाय ने पत्थर फेंके, हिंसा हुई, लोगों की जान गई, आगजनी हुई और तनाव बढ़ता चला गया। इस दंगे में कई लोगों को कसूरवार माना जा रहा है। पत्थर फेंकने वाले दोषी, फेसबुक पर वीडियो डालने वाला मोनू मानेसर दोषी, उस पर प्रतिक्रिया देने वाले दोषी। लेकिन इस लिस्ट में सबसे बड़े दोषी को सभी भूल गए हैं। पत्थर कब फेंके गए, जब मोनू का वीडियो सामने आया, उस पर प्रतिक्रिया देने वाले वीडियो वायरल हुए। ये वीडियो कहा पोस्ट किए गए? जवाब है फेसबुक।

फेसबुक पूरी दुनिया का सबसे बड़ा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है। किसी जमाने में अपने पुराने दोस्तों से जुड़ने का साधन माना जाने वाला ये प्लेटफॉर्म अब बदल गया है। समय के साथ सिर्फ इसके फीचर अपग्रेड नहीं हुए हैं, बल्कि इसकी नीयत भी बदल गई है। उसी नीयत की वजह से हेट स्पीच को रोकने के मामले में फेसबुक एकदम फिसड्डी साबित हो रहा है। तमाम सरकारों के सामने वो ये तो कहता है कि हेट स्पीच पर काबू पाने के लिए काफी पैसा खर्च किया गया, कई नए टूल बना दिए गए। लेकिन जब जमीनी हकीकत से वास्ता पड़ता है तो साफ हो जाता है कि फेसबुक के हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ हैं। अब नूंह में जो दंगा भड़का है, उसमें फेसबकु की भूमिका को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अब दंगों का फेसबुक कनेक्शन समझेंगे, लेकिन सबसे पहले इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के उस दावे को समझ लीजिए जिसके दम पर वो कहता रहता है कि हेट स्पीच रोकने के मामले में वो कारगर है।

क्या कहती है फेसबुक की हेट स्पीच पॉलिसी?

फेसबुक सभी इस्तेमाल करते हैं, उसकी हेल्प डेस्क भी है जहां पर तमाम तरह की कई पन्नों की गाइडलाइन बताई गई हैं। उन्हीं गाइडलाइन्स में फेसबुक ने काफी विस्तार से बताया है कि वो किसे हेट स्पीच मानता है। फेसबुक कहता है- हमारे लिए हेट स्पीच का मतलब होता है जब किसी इंसान पर सीधे तौर पर हमला किया जाए, किसी कॉन्सेप्ट या संस्थान पर की गई टिप्पणी को हम हेट स्पीच नहीं मानते। जब किसी इंसान को उसकी नस्ल, जाति, राष्ट्रीयता, विकलांगता, धर्म ने नाम पर अपमानित किया जाता है, इसे हेट स्पीच माना जाएगा। इसी तरह हिंसा को बढ़ावा देने वाले बयान, अमानवीय भाषण, हीनता वाले बयान, नफरत फैलाने वाले बयान, समाज में अलगाव पैदा करने बयान, ये भी हेट स्पीच के दायरे में आएगा।

अब ये तो फेसबुक की गाइडलाइन का सिर्फ एक अंश है। उसने कई तरह के किंतु-परंतु भी बता रखे हैं। फिर चाहे क्या पोस्ट करने से बचना चाहिए, किस तरह की पोस्ट से हिंसा भड़क सकती है, ये सब भी उसने अपनी गाइडलाइन में बता रखा है। लेकिन क्या खुद फेसबुक अपनी इन गाइडलाइन्स को समझता है? उसे इस बात का अहसास भी है कि उसी के प्लेटफॉर्म के जरिए सबसे ज्यादा नफरत की सामग्री शेयर की जा रही है? किसी पर आरोप लगाया जाए तो तर्क में सबूत पेश करना जरूरी हो जाता है। फेसबुक के खिलाफ भी कई पुख्ता सबूत मिले हैं। भारत के भी उदाहरण हैं, विदेश के भी उदाहरण हैं और फेसबुक की एक पूर्व कर्मचारी के सनसनीखेज खुलासे भी मौजूद हैं। इन तीनों पहलुओं के बारे में विस्तार से आपको बताते हैं।

भारत में फेसबुक का दंगा कनेक्शन

भारत में फेसबुक 17 साल पहले 26 सितंबर, 2006 में लॉन्च हुआ था। जिस समय लॉन्चिंग हुई, तब भी फेसबुक को इस बात का अहसास था कि उसका ये प्लेटफॉर्म लोगों के लिए वरदान भी रहने वाला है, लेकिन अगर गलत तरह से इस्तेमाल हुआ तो श्राप भी साबित हो सकता है। अब कई सालों बाद भारत फेसबुक के खतरनाक प्रभावों से जूझ रहा है। हिंसा तो भारत में पहले भी हो जाती थी, लेकिन अब सोशल मीडिया ने इसका स्वरूप पूरी तरह बदल दिया है। एकजुट करने से लेकर भड़काऊ भाषण देने तक, हर चीज के लिए फेसबुक का सहारा लिया जा रहा है। आज से पांच साल पहले देश ने भयंकर हिंसा का दौर देखा था जिसमें 11 लोगों की मौत हुई थी। उस समय SC/ST एक्ट के खिलाफ भारत बंद का ऐलान किया गया था।

केस स्टडी 1- SC/ST एक्ट के खिलाफ भारत बंद

असल में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि SC/ST एक्ट के तहत जो तुरंत गिरफ्तारी पहले हो जाती थी, अब ऐसा नहीं होगा। गिरफ्तारी के लिए डीएसपी स्तर के अधिकारी की मंजूरी की बात भी कही गई थी। अब सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला दलित संगठनों को रास नहीं आया, उन्होंने इसे अपने समाज के खिलाफ माना। इसी वजह से दलित संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया। उस ऐलान के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, पंजाब, झारखंड जैसे तमाम राज्यों में बड़े स्तर पर हिंसा देखने को मिली। उस हिंसा में कुल 11 लोगों की जान गई, कई राज्यों में पुलिस थानों को आग के हवाले कर दिया गया। जब उस हिंसा की जांच शुरू की गई, तो एक कॉमन पैटर्न हर राज्य में देखने को मिला- सोशल मीडिया का इस्तेमाल।

भड़काऊ वीडियो लगातार पोस्ट किए गए, सेट टाइमिंग के तहत अलग-अलग ग्रुप्स ने अपने समुदायों को साधने के लिए वीडियो बनाए और फिर उसी के जरिए एकजुटता हुई और कई राज्यों तक हिंसा की आग पहुंची। उस हिंसा में मुजफ्फरनगर में भी एक शख्स की मौत हुई थी। ऐसे में तब खुद मुजफ्फरनगर के तत्कालीन एसएसपी अनंत देव तिवारी ने एक जारी बयान में कहा था कि हम खुद हैरान हैं कि आखिर कैसे मेरठ से मुजफ्फरनगर तक हिंसा फैल गई। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कई लोग सोशल मीडिया के जरिए एक दूसरे से कनेक्टेड थे। यानी कि जो भीड़ इकट्ठा हो रही थी, उसमें फेसबुक और वाट्स ऐप ने एक अहम भूमिका निभाई।

इस बात के सबूत तो उस वायरल वीडियो से भी मिल गए थे जब एक नौजवान अंबेडकर हॉस्टल में कुछ मु्स्लिम और दलित छात्रों को संबोधित कर रहा था। उन्हें साथ मिलकर विरोध प्रदर्शन करने के लिए उकसा रहा था। वो वीडियो भारत बंद वाले ऐलान से कुछ दिन पुराना था, यानी कि रणनीति के तहत सभी को साथ लाने की तैयारी की जा रही थी। उस वीडियो में भाषण देने वाले युवक के साथ स्थानीय उधम सिंह सेना का एक दलित नेता भी बैठा था। बाद में जांच हुई तो पता चला कि हिंसा से ठीक पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश लेकर से लेकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा तक ये वीडियो वायरल हो गया था। यानी कि उस एक वीडियो ने ट्रिगर प्वाइंट का काम किया जिस वजह से भारत बंद के समय बड़े स्तर पर हिंसा देखने को मिली।

केस स्टडी 2- दिल्ली दंगे और फेसबुक की भूमिका

साल 2020 में दिल्ली ने सबसे भयंकर दंगे देखे थे जिसमें 53 लोगों की दर्दनाक मौत हुई और 400 से ज्यादा बुरी तरह घायल हुए। करोड़ों का नुकसान भी उस एक दंगे ने देश की राजधानी को दे दिया था। उस दंगे की पृष्ठभूमि जरूर CAA कानून रहा, लेकिन बाद में कई रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि दोनों फेसबुक और वाट्स ऐप ने ही दंगे की भूमिका तैयार की थी। नफरत फैलाने वाले वीडियो की फेसबुक पर बाढ़ थी,लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की गाइडलाइन्स की हवा निकल चुकी थी। दिल्ली दंगों पर वॉल स्ट्रीट जर्नल की एक रिपोर्ट ‘Communal Conflict in India’ खूब सुर्खियों में रही जिसमें फेसबुक को लेकर बड़े दावे हुए। कहा गया कि दिल्ली दंगों से ठीक पहले फेसबुक पर भड़काऊ पोस्ट्स में 300 प्रतिशत की बढ़ोतरी थी। ये उछाल दिसंबर 2019 से दिखना शुरू हो गया था, यानी कि दंगों से दो महीने पहले। इसी तरह वाट्स ऐप पर कई ऐसे ही फर्जी वीडियो वायरल करवा दिए गए थे। आगे चलकर उन्हीं वीडियो और पोस्ट्स ने अफवाह का माहौल बनाया और दिल्ली में दंगों की शुरुआत हो गई।

वैसे दंगों के बाद दिल्ली विधानसभा की एक कमेटी ने भी फेसबुक को ही जिम्मेदार माना था। तब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को समन भी भेजा गया था। जब उस समन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, तब सर्वोच्च अदालत ने भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की भूमिका को अहम माना था। एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सोशल मीडिया के पास लोगों को प्रभावित करने की ताकत होती है। तमाम तरह की बहस और दूसरी पोस्ट्स के जरिए समाज में ध्रुवीकरण किया जा सकता है। वहीं क्योंकि उन पोस्ट की सत्यता को सत्यापित करने के लिए आम लोगों के पास संसाधन नहीं होते, ऐसे में ये ज्यादा बड़ी चुनौती बन जाता है।

केस स्टडी 3- नूंह दंगे में वायरल वीडियोज का खेल

हरियाणा के नूंह में जो दंगा भड़का, उसमें कई आरोपी शामिल रहे। एक बड़ी साजिश से भी इनकार नहीं किया जा सकता। टाइमिंग को लेकर भी पुलिस के सामने कई सवाल हैं। लेकिन उस फेसबुक का क्या जो इस दंगे का सबसे बड़ा पहलू है। हिंसा फैली, आगजनी हुई, लेकिन सबकुछ वीडियोज के दम पर किया गया। शोभायात्रा निकाले जाने से पहले ही कई ऐसे वीडियो फेसबुक पर वायरल चल रहे थे जो किसी को भी भड़का सकते हैं, एक समुदाय के प्रति नफरत करने पर मजबूर कर सकते हैं। बात सबसे पहले उस वीडियो की जिसे इस दंगे की जड़ माना जा रहा है। मोनू मानेसर जो फरार चल रहा है, जुनैद और नासिर की हत्या में जिसे मुख्य आरोपी माना जा रहा है, उसने नूह दंगों से पहले एक वीडियो सोशल मीडिया पर डाला था।

उस वीडियो में मोनू मानेसर ने कहा कि मैं और मेरी टीम नूंह में यात्रा के दौरान मौजूद रहने वाली है। सभी समर्थक भाई बृज मंडल जलाभिषेक यात्रा में हिस्सा लेने जरूर आएं। मोनू के इस एक वीडियो ने सोशल मीडिया पर तहलका मचा दिया। जो आरोपी इतने महीनों से गायब चल रहा है, जिसे पुलिस तलाश रही है, उसने फेसबुक के सहारे अपने समर्थकों को ये बड़ा संदेश दे दिया। अब दूसरे समुदाय के लोगों ने मोनू मानेसर के वीडियो को चुनौती के रूप में देखा। सभी के मन में बस एक बात चल रही थी- नासिर और जुनैद का हत्यारा नूंह आ रहा है। इस नेरेटिव ने पहले सोशल मीडिया पर माहौल गर्म किया। दूसरी तरफ से कई फेसबुक पर ही पोस्ट किए गए, भड़काऊ से लेकर धमकी तक वाले।

ये सारी घटनाएं नूंह दंगे से दो दिन पहले हो रही थीं। उसी कड़ी में एक फरीदाबाद के शख्स ने फेसबुक पर लिखा था- मोनू मानेसर आ रहा है, जो करना है कर लो। हमारे पास करीब 150 गाड़ियां हैं, मैं सारी लोकेशन तुम्हें बता दूंगा। ढूंढ सको तो ढूंढ लो। इसी तरह एक पोस्ट में लिखा गया- शांति बनाए रखनी है तो यहां मत आना। इस तरह के कई बयान फेसबुक पर खूब पोस्ट किए गए। यानी कि धमकी से लेकर हिंसा करने की चेतावनी लगातार जारी की जा रही थी। फेसबुक तो इस पर कोई कार्रवाई कर ही नहीं सका, साइबर पुलिस भी सोती रह गई। बड़ी बात ये है कि जिस दिन नूंह में हिंसा भड़की, तब कई लोग फेसबुक पर लाइव करते दिख गए। ऐसे भी वीडियो सामने आए जिसमें बाइक सवार युवक उस यात्रा का पीछा कर रहे थे जिसमें वीएचपी के कार्यकर्ता मौजूद थे। ‘ये ग्रुप पर डाल दो, यहां से निकल गए’ जैसे बयान लगातार सुनाई पड़ रहे थे। यानी कि सोशल मीडिया के जरिए एक दूसरे को यात्रा की लाइव लोकेशन बताने का काम चल रहा था।

केस स्टडी 4- बांग्लादेश और म्यांमार में फेसबुक वाली हिंसा

बांग्लादेश में कई मौकों पर हिंदू मंदिरों पर हमले हुए हैं। कुछ समय पहले तक बांग्लादेश उसी हिंसा की चपेट में बुरी तरह फंस चुका था। साल 2021 में मंदिरों पर हुए हमले कौन भूल सकता है। 100 के करीब मंदिरों में तोड़फोड़ कर दी गई थी। 6 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल बताए गए थे। इससे पहले 2013 और 2014 में हिंदू बाहुल कई गांवों में हमला किया गया था, आरोप ये था कि एक शख्स ने फेसबुक पर मोहम्मद प्रोफेट का अपमान कर दिया। कुछ इसी तरह 2017 में एक हिंदू बाहुल गांव को 20 हजार की भीड़ ने आग के हवाले कर दिया था। इसी तरह एक विशेष समुदाय की गाड़ी इसलिए जला दी गई क्योंकि उसने फेसबुक पर प्रोफेट मोहम्मद को लेकर गलत टिप्पणी की। ये अलग बात है कि वो बात भी बाद में फर्जी निकली। यानी कि भारत के अलावा बांग्लादेश में भी हिंसा भड़काने में फेसबुक का सबसे ज्यादा सहारा लिया जा रहा है।

म्यांमार में तो फेसबुक की वजह से सबसे ज्यादा तबाही देखने को मिली है। रोहिंग्या मुसलमानों का जिस तरह से म्यांमार में नसंहार हुआ है, उसने फेसबुक की पोल खोलकर रख दी। असल में म्यांमार में रोहिंग्या के खिलाफ फेसबुक पर हेट स्पीच के कई मामले सामने आए। रॉयटर्स ने साल 2013 में फेसबुक के कुछ ऐसे उदाहरण सामने रखे थे जिससे साफ पता चला कि उन पोस्ट की वजह से ही म्यांमार में नरसंहार शुरू हुआ। एक पोस्ट में लिखा गया- हमे इन लोगों से उस तरह से लड़ना चाहिए जैसे हिटलर ने यहूदियों का मुकाबला किया था। इसी तरह एक दूसरे पोस्ट में लिखा गया- तेल डालो आग लगाओ जिससे ये लोग अल्लाह से जल्दी मुलाकात कर सकें। अब ऐसे एक नहीं कई पोस्ट रहे, कई शिकायतें की गईं, लेकिन फेसबुक ने कुछ नहीं किया। नतीजा ये निकला कि 2017 के मिलिट्री ऑपरेशन में करीब 10 हजार से ज्यादा रोहिंग्या मारे गए।

अब इस समय फेसबुक से ही उन रोहिंग्या की मौत का हिसाब मांगा जा रहा है। इसी कड़ी में अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में फेसबुक के खिलाफ एक शिकायत दर्ज हुई और उससे पूरे 12,27,000 करोड़ रुपये बतौर मुआवजा मांगा गया। आरोप ये लगा कि फेसबुक के एल्गोरिदम में हिंसा को और ज्यादा बढ़ाने का काम किया था।

फेसबुक की पूर्व कर्मचारी के बड़े खुलासे

अब अभी तक तो फेसबुक पर जो आरोप लगे, वो सब रिपोर्ट्स के हवाले से थे। लेकिन साल 2021 में फेसबुक की ही पूर्व कर्मचारी Frances Haugen ने अपनी कंपनी के खिलाफ एक मुहिम शुरू की। उनकी तरफ से यूके की संसद में फेसबुक की पूरी तरह पोल खोली गई। एक बयान में उन्होंने तब कहा था कि मुझे इस बात की चिंता है कि एक ऐसा प्रोडक्ट बना दिया गया है जो लोगों को अकेला बना रहा है, असल चीजों से दूर कर रहा है। चिंता की बात ये है कि लोगों को गलत जानकारियां दी जा रही हैं, विशेष समुदाय को दी जा रही हैं। उन्होंने यहां तक कहा था कि फेसबुक एक ऐसी कंपनी है जो लोगों के हित से ज्यादा अपने मुनाफे के बारे में सोचती है।

उनकी तरफ से ही खुलासा किया गया था कि अमेरिका के 2020 वाले राष्ट्रपति चुनाव में फेसबुक के जरिए फर्जी और गुमराह करने वाली जानकारियां पोस्ट की गई थीं। इसी तरह उन्होंने बताया था कि फेसबुक का बच्चों की सेहत पर गलत असर पड़ रहा है।

फेसबुक हेट स्पीच को रोक क्यों नहीं पा रहा?

अब फेसबुक ने किस तरह से कब-कब दंगा भड़काने में अपनी भूमिका निभाई, इसकी समझ तो लग गई, लेकिन आखिर क्योंकि फेसबुक हेट स्पीच को नहीं कंट्रोल कर पा रहा, ये समझना अभी बाकी है। एक्सपर्ट्स बताते हैं कि फेसबुक की सबसे बड़ी चुनौती ये है कि उसकी लोकल भाषा पर पकड़ नहीं। कहने को कई भाषाओं को अब शामिल कर लिया गया है, लेकिन फिर भी भारत जैसे विविधता वाले देश में तो उसे अभी भी कई भाषाओं का आभाव है। उसी वजह से जब-जब अगर लोकल भाषा में कोई हेट स्पीच वाला वीडियो फेसबुक पर शेयर किया जाता है, फेसबुक का एल्गोरिदम उसे समझ ही नहीं पाता।

Frances Haugen ने खुद फेसबुक से बाहर निकलने के बाद इस बात का खुलासा किया था। उन्होंने माना था कि फेसबुक के जरिए गुमराह करने वाली जानकारी इसलिए वायरल हो जाती है क्योंकि उसके पास उस कंटेंट को समझने वाली तकनीक ही नहीं है। भारत को लेकर कहा गया कि फेसबुक की हिंदी और बंगाली की पकड़ काफी कमजोर है, ऐसे में हेट स्पीच वाली पोस्ट के खिलाफ कोई एक्शन नहीं हो पाता। यहां समझने वाली बात ये है कि फेसबुक अभी भी अमेरिका की तुलना में दूसरे देशों के साथ भेदभाव करता है। इस तरह का भेदभाव जहां पर गुमराह करने वाली खबरों पर रोक लगाने के लिए जो बजट लाया गया है, उसका 84 फीसदी अकेला अमेरिका के लिए इस्तेमाल हो जाता है, बाकी बचे पैसे दूसरे देशों में लगते हैं। ये आलम तब है जब भारत में जितने लोग फेसबुक का इस समय इस्तेमाल करते हैं, वो अमेरिका की कुल आबादी है।

भारत से खूब पैसा कमाता है फेसबुक

एक आंकड़ा बताता है कि फेसबुक का जो भारत में रिवेन्यू रहा है, वो साल 2020-21 में 40 फीसदी तक बढ़ गया था. 2020 में फेसबुक का भारत में प्रॉफिट 32.6 बिलियन डॉलर तक का रहा। वर्तमान में 300 मिलियन से ज्यादा लोग भारत में फेसबुक का इस्तेमाल कर रहे हैं, ये आंकड़ा जिस स्पीड से बढ़ रहा है, फेसबुक का और ज्यादा फायदा होना लाजिमी है। लेकिन फिर भी भारत की ही जरूरतों को फेसबुक पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा है। इसी वजह से भारत में जब भी सांप्रदायिक घटनाएं होती हैं, उसमें फेसबुक की भूमिका हर बार सामने आ जाती है। भारत को लेकर चिंता की बात ये है कि सांप्रदायिक हिंसा के मामले कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं।

फेसबुक की मेहरबानी, हिंसक घटनाएं बढ़ी

NCRB के ही आंकड़े बताते हैं कि 2021 में भारत में कुल 378 सांप्रदायिक दंगे हुए थे। वहां भी अकेले झारखंड में 100 मामले सामने आए, महाराष्ट्र में 77, बिहार में 51, हरियाणा में 40, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 22। वहीं अगर सांप्रदायिक दंगों अलग बात की जाए तो भी देश में उस साल कुल 41,066 हिंसा की घटनाएं हुईं जहां पर अकेले झारखंड में 1426 मामले सामने आ गए। इन बढ़ें हुए आंकड़ों के पीछे फेसबुक की पूरी लापरवाही शामिल है। उसकी विफलता का हर्जाना देश भुगत रहा है। पैसा उसे यहां से कमाना है, लेकिन यहां के हितों के बारे में उसे नहीं सोचना। ये फेसबुक की वर्तमान वाली सच्चाई है जिससे शायद अभी भी कई लोग वाकिफ नहीं है।