धीरे-धीरे सरकारी अस्पतालों की स्थिति में सुधार हो रहा है, मगर देश की जनसंख्या को देखते हुए यह सुधार काफी नहीं है। इस दौर में भी देश के अनेक सरकारी अस्पतालों में कर्मचारियों की भारी कमी है। इतना विकास होने के बावजूद जिला सरकारी अस्पतालों में सभी परीक्षण नहीं हो पाते हैं। इस वजह से रोगियों को निजी डाक्टरों से परीक्षण कराने पड़ते हैं। कई बार सरकारी सेवा में कार्यरत डाक्टर लापरवाही बरतते हैं, तो कई बार सरकारी डाक्टर संसाधनों के अभाव में भी बेहतर काम नहीं कर पाते हैं।
अनेक जगहों पर सरकारी अस्पतालों में वर्षों तक मशीनें खराब पड़ी रहती हैं। डाक्टरों द्वारा विभाग को कई पत्र लिखने के बाद भी व्यवस्था में सुधार नहीं होता है। ऐसे माहौल में योग्य डाक्टरों का उत्साह कम हो जाता है। इसलिए लापरवाह डाक्टरों पर कार्रवाई और ईमानदार डाक्टरों के समर्पण को व्यवस्था की मार से बचाने की अपेक्षा स्वाभाविक है।
हाल ही में दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ। इस अस्पताल के दो चिकित्सकों समेत ग्यारह लोगों को गिरफ्तार किया गया। उन पर रिश्वत लेकर कुछ खास कंपनियों के उत्पाद को बढ़ावा देने का आरोप है। उन पर मरीजों से भर्ती करने के लिए अवैध रूप से वसूली का भी आरोप है। जब देश की राजधानी के अस्पतालों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है, तो दूर-दराज के अस्पतालों की स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
पिछले दिनों नीति आयोग ने स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाने की जरूरत रेखांकित की थी। यह कटु सत्य है कि हमारे देश में आबादी की जरूरत के हिसाब से स्वास्थ्य सेवाएं दयनीय स्थिति में हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का मात्र डेढ़ फीसद खर्च होता है। दुनिया के कई देश स्वास्थ्य सेवाओं की मद में आठ से नौ फीसद तक खर्च कर रहे हैं। कोराना काल में हमारे देश की लचर स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई थी। अगर हमारे देश का स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होता, तो कोराना काल में जनता को ज्यादा सुविधाएं दी जा सकती थीं।
उस वक्त जहां एक ओर अनेक डाक्टर कई तरह के खतरे उठा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर अनेक निजी अस्पतालों का ध्यान आर्थिक लाभ कमाने पर था। इस दौर में भी जब गंभीर रोगों से पीड़ित मरीजों के लिए अस्पतालों में स्ट्रेचर जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिल पाएं, तो देश की स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठना लाजमी है। इस प्रगतिशील दौर में भी ऐसी अनेक खबरें प्रकाश में आई हैं कि अस्पताल गरीब मरीज के शव को घर पहुंचाने के लिए एंबुलेंस तक उपलब्ध नहीं करा पाए।
गौरतलब है कि पिछले दिनों ‘सेंटर फार डिजीज डाइनामिक्स, इकोनामिक्स ऐंड पालिसी’ (सीडीडीईपी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में लगभग छह लाख डाक्टरों और बीस लाख नर्सों की कमी है। भारत में 10,189 लोगों पर एक सरकारी डाक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक हजार लोगों पर एक डाक्टर की सिफारिश की है। इसी तरह हमारे देश में 483 लोगों पर एक नर्स है।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में एंटीबायोटिक दवाइयां देने के लिए प्रशिक्षित कर्मियों की कमी है, जिससे जीवन रक्षक दवाइयां मरीजों को नहीं मिल पाती हैं। हमारे देश में व्यवस्था की नाकामी और विभिन्न वातावरणीय कारकों के चलते बीमारियों का प्रकोप ज्यादा होता है। भारत में डाक्टरों की उपलब्धता विएतनाम और अल्जीरिया जैसे देशों से भी बदतर है। हमारे देश में इस समय लगभग 7.5 लाख सक्रिय डाक्टर हैं। डाक्टरों की कमी के कारण गरीब लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने में देरी होती है। यह स्थिति अंतत: पूरे देश के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर गठित संसदीय समिति ने पिछले दिनों जारी अपनी रिपोर्ट में माना था कि हमारे देश में आम लोगों को समय पर स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के अनेक कारण हैं। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं को और तीव्र बनाने की जरूरत है। दरअसल, स्वास्थ्य सेवाओं के मुद्दे पर भारत अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। हालात ये हैं कि जनसंख्या वृद्धि के कारण बीमार लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। गरीबी और गंदगी के कारण विभिन्न संक्रामक रोगों से पीड़ित लोग इलाज के लिए तरस रहे हैं।
गौरतलब है कि चीन, ब्राजील और श्रीलंका जैसे देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमसे ज्यादा खर्च करते हैं। जबकि पिछले दो दशक में भारत की आर्थिक वृद्धि दर चीन के बाद शायद सबसे अधिक रही है। इसलिए पिछले दिनों योजना आयोग की एक विशेषज्ञ समिति ने भी यह सिफारिश की थी कि सार्वजनिक चिकित्सा सेवाओं के लिए आबंटन बढ़ाया जाए।
विडंबना है कि भारत में स्वास्थ्य योजनाएं भी लूट-खसोट की शिकार हैं। दूसरी ओर, निजी अस्पताल और डाक्टर चांदी काट रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय चिकित्सा परिषद ने डाक्टरों द्वारा दवा कंपनियों से लेने वाली विभिन्न सुविधाओं को देखते हुए एक आचार संहिता के तहत डाक्टरों को दी जाने वाली सजा की रूपरेखा तय की थी। मगर अब भी डाक्टर दवा कंपनियों से विभिन्न सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं और इसका बोझ रोगियों पर पड़ रहा है।
आज यह किसी से छिपा नहीं है कि दवा कंपनियां अपनी दवाइयां लिखवाने के लिए डाक्टरों को महंगे उपहार देती हैं। इसलिए डाक्टर इन कंपनियों की दवाइयां बिकवाने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कुछ डाक्टर अनावश्यक दवाइयां लिखकर दवा कंपनियों को दिया वचन निभाते हैं। इस व्यवस्था में डाक्टर के लिए दवा कंपनियों का हित रोगी के हित से ऊपर हो जाता है। पर, जो डाक्टर सेवाभाव से मरीजों के हितों के लिए रात-दिन एक कर रहे हैं उन पर भला कौन अंगुली उठाएगा।
आज अनेक डाक्टर गांवों की तरफ रुख नहीं करते हैं। दरअसल, इस दौर में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का खमियाजा ज्यादातर बच्चों, महिलाओं और बूढ़े लोगों को उठाना पड़ रहा है। इसी वजह से देश के अनेक राज्यों में जहां एक ओर बच्चे विभिन्न गंभीर बीमारियों के कारण काल के गाल में समा रहे हैं, तो दूसरी ओर महिलाओं को भी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। इस मामले में वृद्धों का हाल तो और दयनीय है।
अनेक परिवारों में वृद्धों को मानसिक संबल नहीं मिल पाता। साथ ही उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में उन्हें जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं भी मुहैया न हों तो उनका जीवन नरक बन जाता है। इसलिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का चुस्त-दुरुस्त और ईमानदार होना न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी जरूरी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास हेतु बदहाल सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने के लिए एक गंभीर पहल की जरूरत है।