यह अत्यंत चिंता का विषय है कि मन के जुड़ाव की बुनियाद पर चुने गए सहजीवन संबंधों में भी आए दिन शारीरिक-मानसिक शोषण, हत्या, आत्महत्या, धोखाधड़ी और ‘ब्लैकमेलिंग’ के मामले सामने आते हैं। बावजूद इसके, दायित्वबोध से दूर यों साथ रहने वाले लोगों के आंकड़े बढ़ रहे हैं। कभी महानगरों में देखे-सुने जाने वाले सहजीवन रिश्तों के वाकये अब छोटे शहरों और कस्बों तक में आम हो चले हैं।
माता-पिता बन चुके महिला-पुरुष भी सहजीवन रिश्तों को चुनने लगे हैं। कभी दबे-छुपे रहने वाले आधुनिक जीवनशैली के इन रिश्तों को लेकर अब खुलकर संवाद होने लगा है। शोषण और जीवन से हार जाने की ऐसी दर्दनाक घटनाएं इन्हें चर्चा का विषय बनाती हैं। ऐसे में सवाल है कि केवल अपनी सहूलियत और आपसी समझ के आधार पर चुने गए जीवन के साझेपन में भी संघर्ष की स्थितियां क्यों बन जाती हैं? आमतौर पर सहजीवन संबंधों में न तो समाज का दबाव होता है और न ही परिजनों का दखल। एक-दूजे संग जीने के अलावा कोई जिम्मेदारी भी ऐसे युवक-युवतियों या उम्रदराज महिला-पुरुषों पर नहीं होती। फिर भी कभी जीवन से हारने की स्थितियां बन जाती हैं, तो कभी एक-दूजे की जान ले लेने की।
इसमें दो राय नहीं कि साझा संबंधों में दायित्वबोध का भाव ही सुरक्षा और संबल देता है। साझेपन के इन पहलुओं को सहजीवन संबंधों के मामले में भी न्यायिक रूप से परिभाषित किया जा चुका है। ऐसे रिश्तों को काफी समय पहले कानूनी मान्यता मिल चुकी है। सहजीवन में रहने के लिए अठारह वर्ष से अधिक आयु वाला जोड़ा किसी भी लिंग का हो सकता है।
साथ ही, बिना किसी दबाव के दोनों की आपसी सहमति होनी चाहिए। सहजीवन में रहने वाले जोड़े के जीवन में उनके माता-पिता सहित कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सहजीवन वाले जोड़ों को जीवन का अधिकार है। स्पष्ट है कि ऐसे रिश्तों में नाते-रिश्तेदारी के किसी दूसरे संबंध या परिजनों के कारण उपजे मानसिक दबाव के चलते उलझनें पैदा नहीं हो सकतीं।
एक ओर बगैर शादी के लंबे समय तक एक ही घर में साझा जीवन जीने वाले जोड़ों के संबंधों से जुड़ी पेचीदगियां बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर अपराध के आंकड़े। गौरतलब है कि किसी सहजीवन संबंध में माता-पिता बने जोड़े के बच्चों के अधिकार की बात हो या पहले से शादीशुदा लोगों का सहजीवन में रहने का रास्ता चुन लेना। बिखराव-उलझाव के कई पक्षों पर न्यायालय की टिप्पणियां आ चुकी हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में पति को तलाक दिए बिना सहजीवन में रहने वाली एक विवाहित महिला की याचिका खारिज कर दी थी। उच्च न्यायालय ने कहा कि विवाहित महिला पति से तलाक लिए बिना किसी और के साथ सहजीवन में नहीं रह सकती। इस मामले में न्यायालय ने महिला की सुरक्षा की मांग को खारिज करते हुए दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया था। न्यायालय ने कहा था कि अगर ऐसे रिश्तों को मान्यता दी जाती है, तो इससे अराजकता बढ़ेगी और समाज का ताना-बाना नष्ट हो जाएगा।
दरअसल, परंपरागत बंधनों से परे और सामाजिक-पारिवारिक जीवन की रीति-नीति से हट कर अपनी इच्छा से जोड़े गए सहजीवन संबंधों में हो रही भयावह घटनाएं अनगिनत प्रश्न उठाती हैं। जीवन की हर उलझन से दूर, आपसी सहमति से चुने सहजीवन संबंध क्यों असुरक्षा, अपमान और अवसाद की ओर धकेलने वाले साबित हो रहे हैं? रहने-सहने के मोर्चे पर क्या मनमर्जी से चुने रिश्ते निभाना भी अब कठिन हो गया है? देखने में आ रहा है कि प्रेम, सहजता और आपसी समझ के आधार पर साथ रहने का मार्ग चुनने वाले संबंधों में भी हत्या और आत्महत्याओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं।
अधिकतर मामलों का भावनात्मक भटकाव और व्यावहारिक पहलुओं की समझ नदारद होती है। समाज से टूटकर और खुलकर जीने के नाम पर किए गए अनगिनत वादों-इरादों में वास्तविक जीवन से जूझने की समझ और साहस दोनों कमजोर पड़ जाते हैं। साथ ही, दायित्वबोध की कमी कभी नकारात्मक और बर्बर सोच ले आती है, तो कभी भावनात्मक टूटन। बिखरी मानसिकता के दौर में पहली वजह अपने साथी का जीवन छीन लेने का कारण बनती है, तो दूसरी अपनी जान देने की।
स्नेह-साथ के जुड़ाव में मौखिक दुर्व्यवहार और हिंसा के मामले भी आए दिन सामने आते हैं। यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा सहजीवन में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून से संरक्षण दिया है। ऐसे में सहजीवन में रहने वाली महिला के साथ किसी भी तरह का हिंसात्मक बर्ताव होता है, तो वह अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा सकती है।
चिंताजनक है कि प्रेम और परवाह के भाव से शुरू होने वाले सहजीवन में साथी और उसके परिजनों का जीवन छीनने जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं। जबकि कई सहजीवन रिश्तों की शुरुआत तो इस सोच के साथ होती है कि आगे चलकर परंपरागत ढंग से शादी कर साझा जीवन जीएंगे। सहजीवन रिश्तों को अपनाने वाले बहुत से लोग इस संबंध को शादी से पहले एक-दूसरे को पूरी अंतरंगता से जान लेने के लिए जरूरी बताते हैं।
दुखद है कि जानने-समझने की इस यात्रा में ही शोषण और हिंसा के हालात बन जाते हैं। बिना पारिवारिक दायित्व और सामाजिक दबाव के, मनमर्जी से चुने संबंधों में भी समाज को दहलाने वाली पीड़ादायी घटनाएं होने की परिस्थितियां बन जाती हैं। यही वजह है कि 2022 में इंदौर उच्च न्यायालय ने पिछले कुछ बरसों में सहजीवन संबंधों में बढ़ते अपराधों का संज्ञान लेते हुए टिप्पणी की थी कि यह अभिशाप नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी का सह-उत्पाद है।
सहजीवन संबंधों में हो रहे अपराधों को देखते हुए अदालत यह टिप्पणी करने पर मजबूर है कि यह भारतीय समाज के लोकाचार को निगल रहा है। सहजीवन संबंध तीव्र कामुक व्यवहार के साथ ही व्यभिचार को बढ़ावा दे रहा है, जिससे यौन अपराधों में लगातार इजाफा हो रहा है। गौरतलब है कि इंदौर हाईकोर्ट यह टिप्पणी सहजीवन में रह रही एक महिला से बार-बार बलात्कार, उसकी सहमति के बिना उसका जबरन गर्भपात कराने, और आपराधिक धमकी देने वाले पच्चीस वर्षीय युवक की अग्रिम जमानत याचिका खारिज करते हुए की थी।
निस्संदेह, मनचाहे रिश्तों में बन रही अनचाही स्थितियां आज के दौर में समग्र समाज को चेताने वाली हैं। साथ ही व्यक्तिगत मोर्चे पर भी ऐसे आपराधिक वाकये हर इंसान को आगाह करते हैं कि जिम्मेदारियों को छोड़ कर मन-मुताबिक जीवन जीने की जद्दोजहद भी कम नहीं। दायित्वबोध का भाव और सम्मानजनक मानवीय जुड़ाव हर संबंध में आवश्यक है।