राकेश सिन्‍हा

भारत क्या है? इसका उत्तर यही होगा कि फ्रांस या पौलैंड की तरह एक देश है। यह सही तो है, पर सत्य नहीं है। सही इसलिए है कि स्भूभाग और भौतिक स्वरूप की जो आवश्यकता होती है, उसे यह पूरा करता है। सत्य इसलिए नहीं है कि जहां भूगोल और भौतिकता की बुनियाद पर आधारित सभ्यताएं इतिहास के गर्भ में समाती रही हैं, भारत की यात्रा निर्बाध रूप से चलती रही है।

इसके एक मंदिर या मठ अथवा समुदाय या परंपरा का ही इतिहास सैकड़ों वर्षों का है। इस निरंतरता और जीवंतता का कारण इसका आस्थावान होना है। आस्था से ही इसने अपने जीवन मूल्यों को ढाला है। अत: आस्था को हटाकर भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसको जानने, समझने और परिभाषित करने का यह अत्यंत ही सटीक मार्ग है। जब-जब इसकी आस्था पर प्रहार हुआ, भारत की सामूहिक चेतना चट्टान की तरह खड़ी रही। इस आस्था के कारण ही इसके चिंतन, सोच और खोज- तीनों में ब्रह्मांडीय चेतना है जो जीव-निर्जीव के संबंधों को भी परिभाषित करता है। कैलाश पर्वत से लेकर गंगा, नर्मदा तक इसे हम देख सकते हैं।

एक बात जो इसे अन्य देशों से अलग करता है। वह है- वे अपने अस्तित्व से अस्मिता उपार्जित करते हैं, जबकि भारत अपनी अस्मिता के आईने में अस्तित्व को देखता है। इसी अस्मिता की समृद्धि यह सहस्त्राब्दियों से करता रहा है। अस्मिता सदैव अस्तित्व के भौतिक स्वरूप से बड़ी रही है। तभी तो युद्ध, आक्रमण और प्रतिकार – तब और अब शस्त्र से अधिक शास्त्र केंद्रित रहा है। बख्तियार खिलजी ने धन लूटने और अत्याचार करने के साथ विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाना अपने उपक्रम का अभिन्न हिस्सा माना। यह अपवाद स्वरूप घटना नहीं है।

भारत विजय को आक्रमणकारी कभी पूर्ण नहीं मानते थे, क्योंकि आस्था ने अस्मिता की मांग को उजड़ने नहीं दिया। गजनी-गोरी से बाबर तक आस्था के केंद्र और वाहक निशाने पर रहे हैं। यह भी एक कारण रहा है कि भारत की अधोगति के लिए ब्राह्मण को जिम्मेदार ही नहीं एकमात्र कारण प्रमाणित करने का प्रयास होता रहा है। यह इस उदाहरण से और भी साफ हो जाता है कि 1911 की जनगणना में गरीब और जातीय रूप से उपेक्षितों को कर्मकांड की सेवा देने वाले पुरोहित ब्राह्मणों को ‘गिरे हुए ब्राह्मण’ की संज्ञा दी गई।

साम्राज्यवादी या आक्रमणकारी भूल में थे कि मंदिरों से आस्था पैदा होती है। यूरोप में चर्च और राज्य के बीच सामंजस्य एवं संघर्ष की कहानी के कारण वे भारत की आस्था का अभिप्राय नहीं समझ पाए। यह विकेंद्रिकृत है और निरंतर स्व-आलोचना पर भी आधारित है। यह जितना मंदिर में है उतना ही नदी, पीपल-केले के पेड़ों में, तुलसी के पत्तों में और प्रकृति के अन्य उपादानों में है।

इसीलिए पश्चिम से आयातित विचार पीढ़ियों को पढ़ाया गया, पर भारतीय मन उससे अस्पृश्य बना रहा। हिंदू अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए अव्यक्त चिंता में रहा है। हिंदुत्व के आंदोलन की उत्पत्ति उसी चिंता को संबोधित करने का आधार बना। चिंता आध्यात्मिक स्वतंत्रता के निरंतर बाधित होने की, भूगोल खंडित होते रहने की और अपने प्रति अपराध बोध के भाव का अमरबेल की तरह पसरते रहने की थी।

मैकाले और मार्क्स के अनुयायियों ने भारत-बोध को यूरोप का प्रतिबिंब बनने में देखना शुरू किया। यह एक बड़ी त्रासदी तब साबित हुई, जब राजनीतिक स्वतंत्रता को सब कुछ मान लिया गया। संविधान सभा में ईमानदार प्रयास हुआ घड़ी की सुई की दिशा ठीक करने का, पर यूरोप केंद्रित ताकत ने अपना आधिपत्य बनाए रखा। संविधान सभा की बहस में महावीर त्यागी ने कहा था कि स्वराज का तात्पर्य राम राज है, जो राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है।

इस देश की आध्यात्मिक आजादी तब छिन गई, जब सोमनाथ पर आक्रमण हुआ। यह क्रम चलता रहा। काशी, मथुरा, अयोध्या इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। सांस्कृतिक स्वतंत्रता और संप्रभुता की प्राप्ति लक्ष्य नहीं बन पाया। उल्टे उस लक्ष्य को आधुनिकता और पंथनिरपेक्षता का निषेध माना जाता रहा। राजनीतिक और बौद्धिक कुलीन आम हिंदू को न तो अपनी बात से सहमत कर पाए और न ही परास्त कर पाए।

वे विरासत को धूमिल करने और आस्था के आक्रांताओं को भारतीय वांगमय का सम्मानित हिस्सा बनाने का प्रयास जरूर करते रहे। यह तभी संभव था, जब हिंदुओं का अहिंदूकरण होता रहे। इसी भय के कारण संविधान सभा में लक्ष्मीकांत मैत्रा और एचवी कामथ ने चेताया था कि भारतीय राज्य को धर्म और आध्यात्म की अवधारणाओं से अलग करना भारत की अस्मिता मिटा देने के समान होगा।

ओड़ीशा के लोकनाथ मिश्र ने एक कदम आगे बढ़कर चेतावनी के स्वर को और भी प्रखर किया। उन्होंने नेहरूवादियों से कहा कि जिस धर्मनिरपेक्षता के ब्रह्मसूत्र को वे मान रहे हैं, वह एक फिसलने वाली जमीन है, जिसका अभिप्राय भारत की प्रचानी संस्कृति और विरासत को नजरअंदाज कर देना है। यूरोप से आयातित विचार प्रणाली को खारिज कर भारतीय अवधारणाओं को सहज रूप से पनपने के अवसर की मांग कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी ने की। इसके स्वर में राजकुमारी अमृत कौर, तजामुल हुसैन और एचसी मुखर्जी का स्वर मिला हुआ था।

वे वटवृक्ष नहीं बन पाए पर बीज बने रहे। आस्था, अस्मिता और अस्तित्व की हिंदू चिंता को राज्य ने पहली बार साहस और संकल्प के साथ 2014 से संबोधित करना शुरू किया। नरेंद्र मोदी आस्थावान प्रधानमंत्री सिद्ध हुए। उन्होंने सर्वसमावेशी हिंदू मन को सिमटने, मिटने और संकोची बने रहने के भय से मुक्त किया। छद्म धर्मनिरपेक्ष बौद्धिकों की जमात के शोर-शराबे के बीच यह कहना किसी फौलादी व्यक्तित्व और आध्यात्मिक संकल्प के कारण ही संभव हो सका। अब यह यात्रा अपरिवर्तनीय बन चुकी है।

जैसे-जैसे चिंता को गहराई से संबोधित किया जा रहा है आलसी, भयभीत, छद्म विवेकवादी और उदासीन हिंदू अपने नए स्वाभाविक स्वरूप में वापस आ रहा है। आस्था प्रबलता दिखा रही है। तभी तो पिछले दो वर्षों में काशी विश्वनाथ में धर्मयात्रियों की संख्या 12.92 करोड़ थी। कुंभ में श्रद्धालुओं की संख्या छलांग लगा रही है।

इसलिए राम मंदिर का बहिष्कार करने वाले राजनेता इतने यूरोपीय हो चुके हैं कि आस्था उनके लिए प्रतिक्रियावाद बन चुकी है। उनका जीवन काल इसी अविवेक और अज्ञानता में व्यतीत होगा या द्वंद्व का शिकार बने रहेंगे। हिंदू चिंता को संबोधित करते हुए आस्था के प्रति चेतना जताना ही मोदी को दिग्विजयी बना देता है। यह आस्था के पुनर्जागरण का काल है।