बेशुमार वादों और प्रचंड बहुमत के साथ देश में सत्ता के शिखर पर काबिज हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश की धरती से अपने चिरपरिचित आत्ममुग्ध अंदाज और नाटकीयता के साथ एक बार फिर लुभावने वादों की भावुक बारिश करके लौट आए हैं। इससे पहले पिछले साल अक्तूबर में वे अमेरिका गए थे और वहां अपनी लोकप्रियता का लगभग अश्लील प्रदर्शन करके लौटे थे।

उन्हें मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन से जले-भुने उनके आलोचकों ने उन्हें खूब आड़े हाथों लिया और देश-विदेश में रैली करने को उनकी लोकप्रियता की भूख करार दे जी भर कर कोसा। इस बार भी इस मामले में अपवाद नहीं। कांग्रेस ने तो उन पर राजनीति को गटर के स्तर पर ले जाने का आरोप जड़ दिया। मोदी अपनी पिछली यात्रा में भी फेसबुक के संस्थापक जकरबर्ग से मिले थे। यह उम्मीद थी कि वे अपने श्रीमुख से वादों की जो चिरपरिचित झड़ी लगा कर आए थे वह इस बार कुछ मूर्त रूप ले लेगी। लेकिन इस बार भी हाथ में वादे ही आए हैं।

कारण साफ है कि घर में अगर बाजार से कुछ बड़ा सामान लाना है तो उसके लिए घर के अंदर जगह बनानी होगी। मसल यह भी है कि हाथी पालने हैं तो दरवाजे बड़े करवाने होंगे। तब तक सपने देखिए, दिखाइए और बेच दीजिए। एक कामयाब राजनीतिक सौदागर की तरह। बिहार में चुनाव है, साख दांव पर है। दिल्ली का दर्द अभी भी कायम है। इस दर्द की दवा बिहार में विजय ही दिला सकती है। और, सोलह महीने की सरकार से अगर वोटर यह अपेक्षा कर रहा है कि उसके दुख हर लिए जाएं तो क्या गलत है? आखिर आप यही कह कर आए कि अब सब विघ्नहरण है।

आइए, देखें सपने:
पांच लाख गांवों को इंटरनेट से जोड़ा जाएगा। 500 रेलवे स्टेशन वाई फाई सुविधायुक्त होंगे। आठ भारतीय भाषाओं में एंड्रायड व इंटरनेट फोन शुरू किए जाएंगे। ऐपल की परियोजना की स्थापना होगी। ऐपल जन-धन योजना से जुड़ेगा। माइक्रोसॉफ्ट क्लाउड डाटा सेंटर की स्थापना करेगा। एक हजार करोड़ का निवेश होगा। पंख फैलाती कंपनियों को वित्तीय मदद दी जाएगी। नौकरियां झर-झर झरेंगी। बेशुमार, अनगिनत।

पुरानी नींद से जागिए। फिर से सो जाएं। नए सपने, पहले से कहीं ज्यादा लुभावने और हरे-भरे। उम्मीद है, इस बार ये सपने सच के थोड़ा तो करीब होंगे। कहीं ऐसा न हो कि इनका हश्र भी हरेक की जेब में पंद्रह लाख रुपए नकद डालने जैसा ही हो। उस नींद की खुमारी अभी है जिसमें कालाधन वापस लाकर हरेक को 15 लाख रुपए नकद देने का सपना दिखाया गया था। इस बार भी ऐसा न हो कि कुछ महीनों बाद भाजपा प्रमुख अमित शाह आपको झकझोर कर इस नींद से बाहर करके बताएं, ‘क्यों परेशान हो? ये तो राजनीतिक जुमले हैं जो चुनाव में बोले जाते हैं’।

बिहार चुनाव सिर पर है इसलिए डर और भी ज्यादा है। पता चले, इसी नींद में सोलह महीने और निकल गए। तब तक अगले लोकसभा चुनाव ही आने वाले होंगे और सपनों को भिगोने के लिए नई चाशनी तैयार होगी।

डर इसलिए भी लगता है कि उन सपनों को यथार्थ के धरातल पर उतारना इतना आसान है क्या? जिस देश के कस्बों और गांवों में बच्चों को स्कूलों के दरवाजे पर लाने के लिए मिड डे मील का आकर्षण पैदा किया हो, जहां स्कूल खोलने की वजह साक्षरता फैलाना न होकर राजनीतिक लाभ कमाना हो। ‘मैंने स्कूल खुलवा दिया’, चुनावी मंचों से होने वाली जुमलेबाजी का हिस्सा हो। जहां स्कूल के नाम पर एक जर्जर इमारत हो। जहां स्कूल हो पर शौचालय न हो। सबसे बड़ी बात जहां स्कूल हो पर पढ़ाने के लिए शिक्षक न हो। जो शिक्षक हो भी उसकी प्राथमिकता पढ़ाई न हो। जहां के सरकारी आंकड़ों में ही स्कूल में पंजीकरण 93 फीसद हो जो माध्यमिक स्तर तक आते-आते 69 फीसद रह जाती हो। उत्तर माध्यमिक स्तर पर तो यह 25 फीसद हो जाती हो।

जहां विज्ञान की प्रयोगशाला न हो, खेल का मैदान न हो, आंतरिक ढांचे का तो कहना ही क्या? वहां के स्कूल में सरकार की आप्टिकल फाइबर पहुंचाने की योजना अति महत्त्वाकांक्षी ही कहलाएगी। काश, सरकार देश में शुरू किए गए ‘एजुसैट’ कार्यक्रम का हश्र देख लेती। स्कूलों में उसकी याद तब आई जब पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिक्षक दिवस पर संबोधन करना था। धूल फांकते यंत्रों को तब निकाला गया और कार्यक्रम के बाद वे फिर उसी स्थिति में चले गए। स्कूल में बच्चों के लिए क्या विज्ञान के प्रयोग जरूरी हैं या ‘आॅनलाइन सर्फिंग’। शायद सरकार को अपनी प्राथमिकता तय करने में कहीं भूल तो नहीं हो रही।

बहरहाल, जिस देश में मानव संसाधन व विकास मंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर ही गंभीर विवाद हो वहां ज्यादा उम्मीद करना बहुत आशापरक तो नहीं। जहां एक प्रमुख संस्थान के छात्र तीन महीने से भी ज्यादा समय तक अपने संस्थान के मुखिया की योग्यता पर सवालिया निशान लगा कर हड़ताल पर हों वहां कितनी उम्मीद की जा सकती है, सोचने की बात है।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 80 के दशक में भारत को कंप्यूटर का ककहरा पढ़ाया। उस वक्त भी इस हाईटेक सपने को पूरा करने का जरिया क्या होगा, जैसे सवाल पूछे गए, और सभी सरकारों की तरह उनके पास भी इसका जवाब नहीं था। नब्बे के दशक की सूचना की क्रांति से भारत अछूता नहीं रहा। कांग्रेस के थिंक टैंक सैम पित्रोदा ने हर हाथ में मोबाइल देने का सपना दिखाया। कांग्रेस से मोदी तक सत्ता के हस्तांतरण में गांवों के हर हाथ में मोबाइल तो पहुंचा लेकिन हर घर में शौचालय नहीं और ना ही कमजोर तबके का हर बच्चा स्कूल पहुंचाया जा सका।

आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में 90 फीसद स्कूल ऐसी जगहों पर हैं जहां बच्चों के पास स्कूलों तक पहुंचने के लिए साधन नहीं हैं। ना ही सरकारों का ध्यान इस ओर जाता है कि गांवों के बच्चों को स्कूलों तक पहुंचाने के लिए सरकारी परिवहन के साधनों का इंतजाम कराया जाए। जहां सरकार लड़कियों को साइकिल मुहैया कराते हुए उस पर अपने मुख्यमंत्री की तस्वीर चिपकाने पर ज्यादा ध्यान देती हो, जहां बच्चों को दिए गए लैपटॉप पर पहले मुख्यमंत्री की छवि उभरती हो वहां शिक्षा कोई मकसद नहीं वरन एक जरिया है, राजनीति चमकाने का। देश के गांवों में लोगों की प्राथमिकता यह नहीं कि उनका बच्चा स्कूल जाए वरन यह है कि वह घर के काम में हाथ बंटाए।

कहना न होगा कि इतनी बुनियादी बात तो देश में बरास्ता इंटरनेट विकास का खाका खींचने वालों को सहज ही ध्यान होगी कि शिक्षा का सीधा ताल्लुक विकास से है। संभावनाओं से है। अपने देश में संभावनाएं पैदा करने में हमारी अक्षमता के कारण ही यहां से ब्रेन ड्रेन हुआ जिसके कारण सत्य नडेला या सुंदर पिचई विदेश की धरती पर पढ़ कर वहीं संभावनाएं तलाशने निकल पड़े। खुशी की बात है कि प्रधानमंत्री इस ब्रेन ड्रेन को ‘गेन’ कह रहे हैं। अगर यह ‘गेन’ है तो हर भारतीय आज इसे भी अपना ‘गेन’ ही मानता है कि आप एक समान सक्षमता के साथ देश से लेकर विदेश की धरती तक अपनी भाषणीय प्रतिभा का अप्रतिम प्रदर्शन करके वाहवाही लूट रहे हैं। इससे हर भारतीय अभिभूत है कि आपके जुमलों पर यहां भी वाह-वाह और अमेरिका में भी वाह-वाह।

अभी स्थिति क्या है, किसी से छुपी नहीं है। देश में महज साढ़े बारह फीसद लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। सवा सौ करोड़ के देश में ऐसा अनुमान है कि तेरह करोड़ के करीब लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। इसमें एक बड़ा तबका उसे विज्ञापन का आसान तरीका मान कर भी उसका इस्तेमाल करता है। देश में सरकार के ई-गवर्नेंस का लाभ शहरी क्षेत्रों में बेशक एक सीमा तक कामयाब है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी बहुत प्रयास की जरूरत है।

गौर से देखिए, प्रधानमंत्री ने विदेश की धरती पर कुछ ठोस करने के बजाए भावनाओं के आसमान पर संभावनाओं की जमीन तलाश की। विदेश की धरती पर रोटी और रोजी की जुगत में गए उन पेशेवरों का उनकी जड़ों से लगाव उनसे छुपा नहीं था। जाहिर है कि उन्होंने सपनों का ताना-बाना बुनने से पहले अपनी मां को याद किया। अपने अभाव के दिनों को याद किया। अपने और उन सबके बीच एक समांतर स्थिति पैदा की। सबने खड़े होकर करतल उनका अभिनंदन किया। जकरबर्ग के माता-पिता भी समारोह में मौजूद थे, स्वाभाविक तौर पर ही अभिभूत हो गए। सपने परवान चढ़ गए। यही तो लक्ष्य था।

अब इसके बाद मौका इन सपनों को देश की धरती पर हकीकत में बदलने का है जिसके लिए काम धरातल पर करना होगा। देश के जिन गांवों तक मोदी इंटरनेट का जाल फैलाना चाहते हैं वहां लोगों की ऊंगलियों को कंप्यूटर के मॉनीटर और मोबाइल की स्क्रीन पर महज नाम लिखने और नंबर डायल करने से आगे लेकर जाना होगा, वरना यह सपना टूटना ही इसकी हकीकत होगा। और यह सारा अभ्यास चंद बड़ी कंपनियों का फायदा पहुंचाने तक सीमित होकर रह जाएगा जिन्हें यह जाल बिछाने का ठेका दिया जाएगा। इन सबको चंद हाथों में सिमटने से बचाने का यही कारगर तरीका होगा कि सूचना की इस क्रांति में सहभागिता को सहज और सरल बनाया जाए। उसे छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा जाए ताकि जो युवा ‘स्टार्ट अप’ में शामिल होना चाहते हैं वे उससे लाभान्वित हों। यह तय करना होगा कि यह सपना भी कहीं आभिजात्य वर्ग के वातानुकूलित दफ्तरों तक ही सीमित न हो जाए और बाकी देश की आंखें बिन बिजली नींद तो क्या लें, झपकने भी न पाएं।

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