मोदी सरकार OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की सर्वमान्य सीमा तय करने पर विचार कर रही है। ऐसा इसलिए करने की कोशिश है कि केंद्र और राज्य सरकार के अलग-अलग विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (PSUs), विश्वविद्यालयों और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के बीच ‘बराबरी’ लाई जा सके। इस संबंध में एक प्रस्ताव तैयार किया जा चुका है।

इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, अन्य मंत्रालयों और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) के बीच बातचीत के बाद तैयार किया गया है।

केंद्र सरकार का कहना है कि इससे OBC वर्ग में ज्यादा लोगों को मौके मिलेंगे, उनके लिए रोजगार के मौके बढ़ेंगे और इससे आत्मनिर्भर भारत की मुहिम को भी समर्थन मिलेगा। थोड़ा सा इस मामले के बैकग्राउंड में चलते हैं।

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‘मंडल फैसले’ के बाद जोड़ी गई ‘क्रीमी लेयर’ की व्यवस्था

1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इसे ‘मंडल फैसले’ के नाम से भी जाना जाता है। इस फैसले के बाद ही OBC के भीतर ‘क्रीमी लेयर’ की व्यवस्था को जोड़ा गया था। सरकारी नौकरियां न करने वालों के लिए ‘क्रीमी लेयर’ का मानदंड 1993 में 1 लाख रुपये प्रति वर्ष निर्धारित किया गया था और 2004, 2008 और 2013 में इसमें संशोधन किया गया। 2017 में इस सीमा को 8 लाख रुपये प्रतिवर्ष कर दिया गया और तब से अब तक यह इतनी ही है।

‘क्रीमी लेयर’ के दायरे में कौन आते हैं?

OBC के बीच ‘क्रीमी लेयर’ को लेकर कुछ विशेष समूह आते हैं। जैसे- संवैधानिक पदों पर काम कर रहे लोग जिनमें – ऑल इंडिया सर्विसेज, केंद्रीय और राज्य सेवा में काम करने वाले Group-A/Class-I के ऑफिसर्स, केंद्र और राज्य के Group-B/Class-II के कर्मचारी, सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) के कर्मचारी; सशस्त्र बलों के ऑफिसर; पेशेवर, व्यापार और उद्योग से जुड़े लोग; संपत्तियों के मालिक और ऐसे लोग जो आय/संपत्ति परीक्षण के दायरे में आते हैं।

2017 में कुछ केंद्रीय PSUs में ‘बराबरी’ तय करने को लेकर फैसला लिया गया था लेकिन उस समय प्राइवेट सेक्टर के साथ-साथ विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थाओं और राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों में ऐसा नहीं हो पाया।

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OBC का जाति सर्टिफिकेट जारी करने में मुश्किल

बताना होगा कि मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर OBC में आने वाले ‘नॉन क्रीमी लेयर’ को केंद्र सरकार की नौकरियों में और शैक्षणिक संस्थानों में दाखिलों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। राज्य सरकार में यह आरक्षण अलग-अलग होता है और इस वजह से OBC का जाति सर्टिफिकेट जारी करने में मुश्किल आती है।

द इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि विश्वविद्यालयों के असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर्स की सैलरी लेवल 10 या इससे ऊपर से शुरू होती है और यह सरकार में Group-A के पद या उससे ज्यादा है। सरकार की ओर से तैयार किए गए प्रस्ताव में कहा गया है कि इन्हें ‘क्रीमी लेयर’ माना जाए। इसका सीधा मतलब यह है कि उनके बच्चों को OBC आरक्षण का लाभ न मिले।

प्राइवेट सेक्टर में पद और सैलरी को लेकर पैमाने अलग-अलग हैं और वहां पर इस तरह की ‘बराबरी’ को स्थापित कर पाना मुश्किल है। इसलिए प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘बराबरी’ को स्थापित करने के लिए आय/संपत्ति के मानदंड को आधार माना जाए।

OBC को लेकर प्रस्ताव में और क्या कहा गया?

विश्वविद्यालयों के नॉन-टीचिंग स्टाफ के कर्मचारियों को उनके लेवल/ग्रुप/पे स्केल के अनुसार क्रीमी लेयर में रखा जाएगा।

राज्य सरकार के तहत आने वाले PSUs के लिए कहा गया है कि एग्जिक्यूटिव लेवल के पदों, जिनमें बोर्ड लेवल के अफसर और बोर्ड लेवल से नीचे के मैनेजमेंट वाले पद शामिल हैं, उन्हें ‘क्रीमी लेयर’ श्रेणी में माना जाए। लेकिन अगर इनकी आय 8 लाख रुपये से कम है तो यह ‘क्रीमी लेयर’ में नहीं आएंगे।

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सरकारी सहायता से चलने वाले संस्थानों के लिए यह प्रस्ताव रखा गया है कि क्योंकि यह सामान्य तौर पर संबंधित केंद्रीय या राज्य सरकार की शर्तों और पे स्केल का पालन करते हैं इसलिए कर्मचारियों का वर्गीकरण उनके पद और सैलरी के आधार पर किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में इसे लेकर कई मामले लंबित पड़े हुए हैं इसलिए यह जरूरी है कि स्पष्ट नियम बनाए जाएं। 
केंद्र सरकार का कहना है कि इससे ओबीसी वर्ग के अंदर ज्यादा लोगों को मौके मिलेंगे।

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