बिहार विधानसभा के समर में एक अद्भुत तसवीर सामने आई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (एकीकृत) राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का घटक है। लेकिन इसी गठबंधन के अहम शरीक दल लोक जनशक्ति पार्टी ने बिहार में उसके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और विधानसभा चुनाव में राजग से बाहर चुनाव लड़ रही है। केंद्र में दोस्त, राज्य में दुश्मन की तर्ज पर बन रही तसवीर की वजह क्या है?

वर्ष 2005 में भी लोजपा ने नीतीश कुमार की खिलाफत की थी। तब मुख्यमंत्री पद को लेकर नीतीश को समर्थन नहीं दिया और आखिरकार बिहार में किसी की सरकार नहीं बन पाई थी। प्रदेश में मध्यावधि चुनाव कराने पड़े थे। उस वक्त नीतीश चाहते थे कि रामविलास पासवान उनके साथ रहकर लालू परिवार के खिलाफ छिड़ी मुहिम में शामिल हों लेकिन रामविलास अकेले ही मैदान में उतरे। तब रामविलास ने किसी मुसलिम को मुख्यमंत्री बनाने की मांग रखकर समर्थन की उम्मीद कर रहे नीतीश को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।

इसके बाद नीतीश कुमार ने बिहार में 16 फीसद दलित मतदाताओं पर निगाह डाली, जिनके जरिए रामविलास पासवान ने लोजपा की नींव डाली थी। पासवान इन्हीं दलितों के सहारे लोजपा की राजनीति खड़ी करना चाहते थे। लेकिन नीतीश कुमार ने 15 साल पहले सत्ता में आते ही महादलित दांव चला, जिसके घाव लोजपा आज भी सहला रही है।

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की तर्ज पर बिहार में भी दलित सियासत को स्थापित करने के लिए रामविलास पासवान ने जद (एकी) से अलग होकर साल 2000 में लोजपा का गठन किया था। फरवरी 2005 के चुनाव में पासवान बिहार में किंगमेकर बनकर उभरे, लेकिन उन्होंने किसी को भी अपना समर्थन नहीं दिया।

बिहार में राष्ट्रपति शासन और छह महीने के बाद दोबारा विधानसभा चुनाव हुए, जिनमें नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राजग ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई। तब नीतीश ने पासवान जाति को छोड़कर दलित मानी जाने वाली अन्य 21 उपजातियों के लिए महादलित श्रेणी बनाकर उन्हें कई सहूलियतें दीं। महादलित जातियों के कल्याण के लिए एक आयोग का भी गठन किया गया।

नीतीश का यह महादलित का दांव मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ इससे बिहार के दलितों की सियासी निष्ठा बदल गई। महादलित नीतीश के साथ हो गए और सिर्फ दुसाध समुदाय पासवान कावफादार रहा। इस बार रामविलास पासवान के बेटे चिराग अपनी खोई उसी जमीन की तलाश में हैं।