सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 27 सीटों का भूगोल और गणित अलग है। यहां मुसलिम और दलितों की आबादी निर्णायक स्थिति में है। इसी स्थिति में जाट बिरादरी है। हालांकि भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 एवं 2022 के विधानसभा चुनावों में सभी तरह के विरोधी गठबंधनों को ध्वस्त करने का काम किया। लेकिन इस बार की स्थिति थोड़ी अलग हो सकती थी, यदि गैर भाजपाई दल सपा, बसपा, कांग्रेस, लोकदल एकजुट होकर चुनाव लड़ते।

अखिलेश से अलग होने पर जयंत के पास था बीजेपी का सहारा

गठबंधन से अलग होकर भाजपा से मिलने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अकेले बड़े नेता जयंत चौधरी को अखिलेश यादव ठीक से साध नहीं सके। विधानसभा चुनावों में जयंत चौधरी रालोद को लेकर बीजेपी की बेरुखी के कारण अखिलेश यादव के साथ खड़े हुए लेकिन जिस तरह की रणनीति अखिलेश यादव की थी, उसकी कोई काट तब जयंत चौधरी के पास नहीं थी। इस बार उन्हें अखिलेश से अलग होने की स्थिति में भाजपा का सुरक्षित मंच हासिल था।

विधानसभा चुनावों में सपा ने कई उम्मीदवार उनके क्षेत्र में उतारे थे

विधानसभा चुनावों में अखिलेश यादव ने अपने कई उम्मीदवार जाट बहुल क्षेत्रों में रालोद के टिकट पर खड़े किए जिनमें से तीन चंदन चौहान मीरापुर, अनिल कुमार पुरकाजी सुरक्षित और गुलाम मोहम्मद सिवाल खास विजयी हुए। छह उम्मीदवार जयंत चौधरी के अपने निशान पर जीते। रालोद के नौ विधायकों में दो मुसलिम, दो गुर्जर, एक अनुसूचित जाति और चार जाट बिरादरी के हैं। जयंत चौधरी ने युवा चंदन चौहान को देखते हुए युवा राष्ट्रीय लोकदल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। चंदन चौहान के बाबा बाबू नारायण सिंह 1980 में जनता पार्टी की बाबू बनारसी दास के नेतृत्व की उत्तर प्रदेश सरकार में पहले उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे। उन्होंने चौधरी चरण सिंह के साथ वर्षों कंधे से कंधा मिलाकर राजनीति की।

जाट और गुर्जर दोनों किसान बिरादरियों के बीच अद्भुत समन्वय ने चौधरी चरण सिंह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी ताकत बनाने और प्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने में भी रालोद सफल हुआ। चंदन चौहान के पिता दिवंगत संजय चौहान ने चौधरी अजित सिंह के साथ मिलकर रालोद को ताकत दी। 2009 के लोकसभा चुनावों में संजय चौहान भाजपा-रालोद गठबंधन से बिजनौर सीट से चुनाव जीते। इसी चुनाव में रालोद ने भाजपा गठबंधन के साथ सात में से पांच सीटों पर जीत दर्ज की थी। जिनमें अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी भी शामिल थे। अब फिर से उसी तरह का गठबंधन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आकार ले रहा है। जाहिर है भाजपा और रालोद दोनों को लाभ होगा। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा पश्चिम में आठ लोकसभा सीटों पर पराजित हो गई थी। अब रालोद के साथ आने से भाजपा की बेफिक्री बढ़ जाएगी।

लोकसभा चुनावों में भी अखिलेश यादव जयंत चौधरी से ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद कर रहे थे। उन्हें जो सात लोकसभा की सीटें आवंटित की थीं, उनमें से तीन या चार पर अखिलेश यादव अपने उम्मीदवारों को रालोद टिकट पर चुनाव लड़वाना चाहते थे। यह बात जयंत चौधरी को स्वीकार नहीं हुई। सालभर से भाजपा का रूख भी जयंत चौधरी को लेकर सकारात्मक था। उस तरफ से विश्वसनीय लोगों ने जयंत चौधरी से लगातार संपर्क बनाए रखा। जयंत चौधरी कुछ दिन ही ऊहापोह की स्थिति में रहे और आखिर में उन्होंने अखिलेश यादव के आगे समर्पण करने के बजाय भाजपा को चुना।

दिलचस्प है कि सपा की सात सीटों की खैरात के बजाय जयंत चौधरी ने भाजपा द्वारा दी जा रही दो सीटें बिजनौर और बागपत सहर्ष स्वीकार कर लीं। इससे जयंत चौधरी की मनोस्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। वह बिल्कुल भी अखिलेश यादव के साथ खुद को सहज और सुरक्षित नहीं मान रहे थे। लोकसभा चुनावों में भी अखिलेश यादव जयंत चौधरी से ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद कर रहे थे। उन्हें जो सात लोकसभा की सीटें आवंटित की थीं, उनमें से तीन या चार पर अखिलेश यादव अपने उम्मीदवारों को रालोद टिकट पर चुनाव लड़वाना चाहते थे। यह बात जयंत चौधरी को स्वीकार नहीं हुई। ?