24th Kargil Vijay Diwas: अब से 24 साल पहले 26 जुलाई 1999 को जब कारगिल पर सीमापार के दुश्मन फौजियों को भारतीय सेना ने खदेड़ कर ‘ऑपरेशन विजय’ में सफलता पाई थी और कारगिल के दुर्गम चोटियों पर भारतीय ध्वज तिरंगा फहराया था, तब हर भारतीय का सिर अपने वीर जवानों को देखकर सम्मान से ऊंचा हो गया था। इस युद्ध में हमारे बहादुर जवानों ने दुश्मन देश के अनगिनत फौजियों को मौत के घाट उतार दिया था। जो बचे थे या तो वे घायल थे या फिर डरकर भाग गये थे।
पीस पोस्टिंग से सीधे कारगिल की ओर कूच
इस युद्ध में जिन बहादुर जवानों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया उनमें से एक कैप्टन मनोज पांडेय (Captain Manoj Kumar Pandey) भी थे। भारतीय सैनिक युद्ध शुरू होने से पहले सियाचीन की पहाड़ियों पर अपनी तीन महीने की ड्यूटी पूरी कर पुणे मे पीस पोस्टिंग पर जाने का इंतजार कर रहे थे। तभी अचानक युद्ध शुरू होने की सूचना मिली और सैनिकों से कहा गया कि वे पुणे न जाकर कारगिल की ओर बढ़ें। इसके बाद कैप्टन मनोज कुमार पांडेय समेत भारतीय सेना के तमाम जवान दुश्मनों से दो-दो हाथ करने के लिए तेजी से आगे बढ़ चले थे।
चुनौतियों से खेलने का था जुनून
गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन के कैप्टन मनोज कुमार पांडे हमेशा चुनौतियों से खेलने के आदि रहे हैं। वे खुद आगे बढ़कर अपने साथियों के साथ कारगिल ओर की चल दिये थे। कैप्टन मनोज कुमार पांडेय ‘ऑपरेशन विजय’ के दौरान साहसपूर्वक नेतृत्व वाले हमलों की एक श्रृंखला में भाग लिया और 11 जून, 1999 को बटालिक सेक्टर से घुसपैठियों को वापस खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में 3 जुलाई, 1999 की सुबह जौबार टॉप (Jaubar Top) और खालूबार (Khalubar) पर कब्जा कर लिया गया था।
कारगिल की जंग को भारतीय सरजमीं पर लड़े गए अब तक के सबसे बड़े खूनी मुकाबलों में से एक माना जाता है। इस युद्ध में भारत के सैकड़ों बहादुर सैनिकों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। इनमें अनुज नायर, विक्रम बत्रा और कैप्टन मनोज पांडेय जैसे वीर सिपाही भी शामिल थे। इन सिपाहियों ने गोलियां लगने के बावजूद घुसपैठियों को कड़ी टक्कर दी और हर उस मोर्चे पर फतह हासिल की जो सिर्फ उनके देश का था।
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय को दुश्मन कुछ नहीं बिगाड़ पाये। कैप्टन मनोज पहाड़ी की चोटी पर अपनी चोटों के कारण दम तोड़ दिए। भारत सरकार ने उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया। उन्होंने खालूबार की चोटी पर कब्जा किया था। इस चोटी पर तिरंगा फहराने के लिए ही उन्होंने अपनी शहादत दी थी।
देश की रक्षा करने का था सपना
कैप्टन मनोज पांडेय का जन्म यूपी के सीतापुर के कमलापुर में 25 जून 1975 को हुआ था। उनके पिता का नाम गोपी चंद्र पांडेय था। अपने बचपन से ही कैप्टन मनोज पांडेय अपनी मां से वीरों की कहानियां सुना करते थे। इन्हीं कहानियों ने उनके मन में सेना में जाने की भावना को मजबूत किया था। मनोज की शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई। यहीं से उन्होंने अनुशासन और देशप्रेम का पाठ सीखा था। इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने प्रतियोगी परीक्षा पास करके पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया था।
तो मैं मौत को ही मार डालूंगा’
कारगिल युद्ध भारत के लिए बेहद तनाव भरी स्थिति थी। सभी सैनिकों की आधिकारिक छुट्टियां रद कर दी गईं थीं। महज 24 साल के कैप्टन मनोज पांडेय को ऑपरेशन विजय के दौरान जौबार टॉप पर कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गई थी। हाड़ कंपाने वाली ठंड और थका देने वाले युद्ध के बावजूद कैप्टन मनोज कुमार पांडेय की हिम्मत ने जवाब नहीं दिया। युद्ध के बीच भी वह अपने विचार अपनी डायरी में लिखा करते थे। उनके विचारों में अपने देश के लिए प्यार साफ दिखता था। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था,”अगर मौत मेरा शौर्य साबित होने से पहले मुझ पर हमला करती है तो मैं अपनी मौत को ही मार डालूंगा।”

अपने बचपन से ही कैप्टन मनोज पांडेय अपनी मां से वीरों की कहानियां सुना करते थे। सेवा चयन बोर्ड ने उनके इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा था,”आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं? मनोज ने कहा,”मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूं।” मनोज पांडेय को न सिर्फ सेना में भर्ती किया गया बल्कि 1/11 गोरखा रायफल में भी कमिशन दिया गया था। इंटरव्यू में कहे हुए उनके शब्द सच साबित हुए। उन्हें कारगिल युद्ध में अपनी वीरता को साबित करने के लिए भारत के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
चार दुश्मन सैनिकों की जान ली
तीन जुलाई 1999, कैप्टन मनोज पांडेय की जिंदगी का सबसे ऐतिहासिक दिन था। हाड़कंपाऊ ठंड में उन्हें खालूबार चोटी को दुश्मनों से आजाद करवाने का जिम्मा दिया गया। उन्हें दुश्मनों को दायीं तरफ से घेरना था। जबकि बाकी टुकड़ी बायीं तरफ से दुश्मन को घेरने वाली थी। वह दुश्मन के सैनिकों पर चीते की तरह टूट पड़े और उन्हें अपनी खुखुरी से फाड़कर रख दिया। उनकी खुखुरी ने चार सैनिकों की जान ली। ये लड़ाई हाथों से लड़ी गई थी।
इस पूरी मुहिम में उनके कंधे और घुटनों पर चोट लगी थी। चोट लगने के बावजूद उन्होंने पीछे लौटने से इंकार कर दिया। घायल हालत में ही अपने सैनिकों को लड़ने की हिम्मत देते रहे। उन्होंने अपनी गोलियों और ग्रेनेड हमलों से दुश्मन के सारे बंकर तबाह कर दिए थे। इन्हीं हमलों की चोट उनकी जान पर भारी पड़ी और कैप्टन मनोज पांडेय ने खालूबार की चोटी पर ही शौर्य के सबसे ऊंचे शिखर को छू लिया।
