शंकर जालान
पश्चिम बंगाल को शक्ति यानी देवी पूजा के रूप में जाना जाता है। यहां की भूमि पर जितने धूमधाम से पंडालों में देवी दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है उतने ही प्रसिद्ध मां काली के कई मंदिर हैं, जिसमें दक्षिण कोलकाता स्थित कालीघाट, उत्तर चौबीस परगना जिला स्थित दक्षिणेश्वर, हावड़ा में हजार हाथ काली मंदिर और बीरभूम जिले में तारापीठ मंदिर। कोलकाता से 220 किलोमीटर दूर बीरभूम के तारापीठ की विशेष महत्ता है।
यह मंदिर है तो मां काली का, लेकिन इसमें विराजमान प्रतिमा को तारा मां के नाम से जाना जाता है। इस काली मंदिर की सबसे अनोखी बात यह है कि यहां तारा मां को मदिरा यानी शराब को भोग (प्रसाद) लगाया जाता है। इससे इतर तारा मां की भूमि का तंत्र साधना की भूमि भी कहा जाता है। तारापीठ धर्म के साथ-साथ पर्यटन स्थल भी है। यहां चार से पांच घंटे का सफर तय कर निजी व सरकारी बस, ट्रेन (रामपुर हाल्ट स्टेशन) व निजी वाहनों से पहुंचा जा सकता है।
मालूम हो कि देवी के 51 शक्तिपीठों में से पांच शक्तिपीठ इसी यानी बीरभूम जिले में ही हैं, जिनके नाम हैं- बकुरेश्वर, नालहाटी, बंदीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ। इन पांचों में तारापीठ सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल और एक सिद्धपीठ है।
कहते हैं जब माता सती ने पिता के द्वारा शिव के अपमान पर यज्ञ कुंड में कूदकर अपनी जान दी तो शिव महातांडव करने लगे। वे माता के मृत शरीर को कंधे पर लिए तांडव करते हुए ब्राह्मण के विनाश को आतुर हो गए। तभी भगवान विष्णु ने शिव का क्रोध शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से माता के शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया। ऐसे में माता सती के शरीर के अंग देश के विभिन्न भागों में जाकर गिरे। मान्यता है कि महातीर्थ में माता सती के आंख की पुतली का तारा गिरा था, इसी वजह से इसका नाम तारापीठ पड़ा।तारापीठ में राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन भी है।
बताया जाता है कि प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ यहां मां तारा की आराधना करके सिद्धियां प्राप्त की थी। उस समय उन्होंने मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन कालक्रम में वह मंदिर जमीन के नीचे धंस गया। बाद में जयव्रत नामक एक व्यापारी ने मौजूदा मंदिर बनवाया।
सिद्धसंत वामाखेपा को मां तारा ने दिव्यज्ञान दिया था। मां ने उन्हें श्मशान में दर्शन देकर कृतार्थ किया था, लिहाजा तारापीठ तांत्रिकों के लिए भी साधना कास्थान बन गया।
गरीबी और विपत्ति से जूझते हुए वामाखेपा ने मां की आराधना की और अल्पायु में सिद्धि प्राप्त की। काली पूजा यानी कार्तिक अमावस्या की रात वामाखेपा को साधना के दौरान मां तारा ने दर्शन दिया। महज 18 साल की आयु में सिद्धि प्राप्त करने वाले इस संत ने 72 साल की आयु में तारापीठ के महाशमशान में अपने प्राण त्यागे। अघोरियों (तंत्र साधना करने वालों) के लिए यह स्थान बेहद पवित्र माना जाता है। मुख्य मंदिर के सामने ही महाशमशान है। दिलचस्प बात है कि यहां की लारिका नदी दक्षिण से उत्तर की दिशा में बहती है, जबकि भारत की अन्य नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं।
तारापीठ मंदिर व माता के चमत्कार को लेकर कई किस्से मौजूद हैं। तंत्र साधना के लिए इस स्थान को उपयुक्त बताया गया है। महाशमशान में ही तारा देवी का पादपद मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि यहां मनोकामना जरूर पूरी होती है। यहां वामाखेपा समेत कई संतों की समाधियां हैं। कहा जाता है कि काली मां अपने गले की मुंडमाला यहीं रखकर द्वारका नदी में स्नान करने जाती हैं। यह भी एक शमशान स्थल ही है। इस मंदिर की दीवारों को संगमरगर से सजाया गया है। इसकी छत ढलान वाली है जिसे ढोचाला कहा जाता है। इसके प्रवेश द्वार पर जो नक्काशी की गई है वह बेहद आकर्षक है।
मंदिर में आदिशक्ति के कई रूपों को दिखाया गया है। देवी की तीन आंखों को यहां देखा जा सकता है, जिसे तारा भी कहा जाता है। गर्भगृह में मां तारा का निवास है। जहां तीन फट की धातु निर्मित मूर्ति है। मां तारा की मौलिक मूर्ति देवी के रौद्र और क्रोधित रूप को दिखाता है।