उत्तर प्रदेश में विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव ने राजनीतिक नाटक का एक नया अध्याय शुरू कर दिया है। जहां एक ओर यह लड़ाई राजग और इंडिया गठबंधन के बीच मानी जा रही है, वहीं असल में यह संघर्ष भाजपा और सपा के बीच तेजी से चल रहा है। कांग्रेस, जो पहले पांच सीटों की मांग कर रही थी, ने हाल ही में अपनी हार स्वीकार करते हुए किसी भी सीट पर उपचुनाव न लड़ने का निर्णय लिया है। उपचुनाव 13 नवंबर को होने वाले हैं, और इन चुनावों की दिशा अयोध्या जैसे महत्वपूर्ण स्थलों से जुड़ी हुई है। वहीं, हरियाणा में भी भाजपा वंशवाद के मुद्दे को हवा दे रही है, जबकि दिल्ली में वह पूर्वांचली वोट बैंक को साधने में जुटी है। ऐसे में इस चुनावी माहौल में भाजपा, सपा, और अन्य क्षेत्रीय दलों की रणनीतियों का प्रभाव सीधे तौर पर मतदाता के मनोबल पर पड़ने वाला है।

सीधी जंग

उत्तर प्रदेश में विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव की जंग कहने को तो राजग और इंडिया गठबंधन के बीच होगी। हकीकत में तो यह लड़ाई सीधे भाजपा और सपा के बीच है। कल तक पांच सीटें मांग रही कांग्रेस ने आखिर में सपा के आगे घुटने टेक दिए। हरियाणा की हार ने उसका मनोबल गिराया है। तभी तो उसने अब एक भी सीट पर उपचुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। उपचुनाव 13 नवंबर को होगा। शुरू में उम्मीद बंधी थी कि हाईकोर्ट से चुनाव याचिका का निपटारा हो गया तो मिल्कीपुर सीट का उपचुनाव भी साथ ही हो जाएगा। अब उसकी उम्मीद नहीं बची है। मिल्कीपुर सीट अयोध्या से सटी है और फैजाबाद लोकसभा सीट का हिस्सा है। यह सीट सपा के अवधेश प्रसाद के फैजाबाद से लोकसभा चुनाव जीतने से खाली हुई है। अयोध्या भी इसी लोकसभा का हिस्सा है। फैजाबाद जीतकर सपा ने भाजपा पर हमला बोला कि जागरूक मतदाताओं के आगे राम मंदिर के मुद्दे का सियासी फायदा उठाने के भाजपा के दांवपेच धरे रह गए। भाजपा ने भी सभी नौ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। निषाद पार्टी को कोई सीट नहीं दी है। मीरापुर सीट कहने को रालोद को दी है पर उम्मीदवार मिथलेश पाल भाजपाई हैं। भाजपा बेहतर प्रदर्शन कर यह संदेश देना चाहेगी कि लोकसभा चुनाव के परिणाम विपक्ष के भ्रामक प्रचार का परिणाम थे। उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं थी।

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वंश निर्विवाद?

हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भाजपा का एक मुद्दा हुड्डा का वंशवाद भी रहा। वे खुद विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा लोकसभा के सदस्य हैं। वंशवाद की भाजपाई परिभाषा कौन समझ सकता है। किरण चौधरी को राज्यसभा की सदस्य बना दिया तो उनकी बेटी को विधानसभा टिकट देकर राज्य सरकार में मंत्रिपद देते वक्त भाजपा को वंशवाद नहीं दिखा। केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह की बेटी आरती राव को भी विधानसभा टिकट देने और जीतने के बाद राज्य सरकार में मंत्रिपद मिला। नई सरकार के तीन मंत्री तो ऐसे हैं जिनके दादा मुख्यमंत्री रहे। पर तीन पीढ़ियों तक चलने वाली सत्ता की सियासत को भाजपा वंशवाद नहीं मानती। ऐसे और भी अनेक भाजपाई हैं जिनकी एक साथ दो-तीन पीढ़ियां सियासत में सक्रिय हैं। तो क्या वंशवाद सिर्फ कांग्रेस के लिए बुरा है, भाजपा के लिए नहीं?

चुनावी डुबकी यमुना में

हरियाणा में जाट और गैर जाट की राजनीति में चुनावी समीकरण सधने के बाद अब भाजपा दिल्ली के समीकरण साधने में लग गई है। दिल्ली की सत्ता से एक लंबे समय से दूर भाजपा ने इसकी शुरुआत पूर्वांचली वोट बैंक को जोड़ने की राजनीति से की है। दीपावली के बाद छठ पर्व की शुरुआत होगी और यह पूर्वांचल की आस्था से जुड़ा पर्व है। इस आस्था की होड़ में एक गैर पूर्वांचली नेता उतरे हैं और यमुना में डुबकी लगाकर इस वोट बैंक को साधने की कोशिश भी की है। हालांकि अब तक पूर्वांचल के नाम पर दिल्ली में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा भोजपुरी कलाकार व सांसद हैं जो फिर से एक बार जीतकर संसद तक पहुंचे हैं। पूर्वांचल के मतदाताओं का असर सीधे तौर पर एक दर्जन सीटों पर होता है।

पीटर और राय

अगर अजब-गजब संयोग न हों तो राजनीति ही क्या? एक उधर तो दूसरा इधर। अब झारखंड का ही उदाहरण लीजिए। भाजपा ने अपनी बिहार की सहयोगी जद (एकी) को यहां विधानसभा की दो सीटें दी हैं। जमशेदपुर पश्चिम और तमाड़। जद (एकी) का बिहार में खास जनाधार नहीं रहा। तभी तो दोनों सीटों पर उधारी उम्मीदवार उतारने पड़े हैं। पर दोनों हैं बड़े मंजे खिलाड़ी। कुछ दिन पहले ही दोनों पार्टी में आए। तमाड़ से राजा पीटर ने 2009 में झारखंड के मुख्यमंत्री और आदिवासियों के सबसे प्रतिष्ठित नेता शिबू सोरेन को हराया था। जबकि जमशेदपुर पश्चिम के सरयू राय ने 2019 में जमशेदपुर पूर्वी सीट से मुख्यमंत्री रघुबर दास को निर्दलीय हैसियत से ही धूल चटा दी थी। जेपी आंदोलन से निकले सरयू राय 2019 तक भाजपा में ही थे। मुख्यमंत्री रघुबर दास को तो उन्होंने चुनाव में हराया था। पर दूसरे मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव को चारा घोटाले में जेल भिजवाने वालों में सरयू राय ही सूत्रधार थे। अविभाजित बिहार में वे एमएलसी रहे। झारखंड बना तो तीन बार विधायक। रघुबर दास की सरकार में मंत्री थे तो भ्रष्टाचार का विरोध नेता प्रतिपक्ष के अंदाज में करते थे। सो रघुबर दास ने उनका टिकट कटवा दिया। नाराजगी में वे रघुबर दास के मुकाबले ही निर्दलीय की हैसियत के साथ लड़े और जीत गए। भाजपा ने बाहर कर दिया तो क्या जद (एकी) के जरिए फिर भाजपा के करीब आ गए।

ठहराव के खिलाफ ‘टाईगर’

पटना में इन दिनों बड़ी संख्या में दीवारों पर लगे पोस्टरों में लिखा गया है, ‘टाईगर जिंदा है’ और ‘टाईगर रिटर्न्स’। इसके साथ तस्वीर है पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह की जिनका मानना है कि बिहार की राजनीति में लंबे समय से ठहराव दिख रहा है। आरसीपी सिंह का लंबे समय तक जनता दल (एकी) में जलवा रहा। बिहार के नालंदा जिले में जन्मे आरसीपी सिंह उत्तर प्रदेश काडर के 1984 बैच के आइएएस अफसर थे। संयुक्त मोर्चे की सरकार में मंत्री रहे। बाराबंकी के सपा नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने अपनी बिरादरी के आरसीपी सिंह को अपना निजी सचिव बनाया था। वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार मंत्री बने तो बेनी बाबू ने ही उन्हें नीतीश का निजी सचिव बनवा दिया। तब एक तरह से सरकार की कमान आरसीपी के हाथ में ही रही। फिर 2010 में नौकरी छोड़ वे नीतीश बाबू की कृपा से राजनीति में कूद पड़े। राज्यसभा सदस्य से लेकर जद (एकी) के अध्यक्ष और एक साल केंद्रीय इस्पात मंत्री भी रहे। भाजपा से नजदीकी बढ़ाई तो नीतीश बाबू ने दूध में मक्खी की तरह निकाल बाहर किया। भाजपा से पुनर्वास की आस भी अधूरी रही। सो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बनाएंगे अपनी अलग पार्टी।

(संकलन : मृणाल वल्लरी)