सुधीर कुमार

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी की गई ‘वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक-2018’ रिपोर्ट के मुताबिक एक दशक (2005-06 से 2015-16 ) के दौरान देश में सत्ताईस करोड़ लोग गरीबी की बेड़ियों से मुक्त हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि केरल, दिल्ली और गोवा जैसे राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे लोगों की संख्या तेजी से घटी है। जबकि जिन चार राज्यों- बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में देश के गरीबों का आधा हिस्सा निवास करता है, वहां गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को तेज किए जाने की जरूरत है। गरीबों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने और समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने की सरकार की प्रतिबद्धता और गैर-सरकारी संगठनों की मिलीजुली कोशिशों से देश में गरीबी उन्मूलन की गति में तेजी देखने को मिली है, लेकिन देश में अब भी गरीबी रेखा से नीचे रह रहे छत्तीस करोड़ लोगों को मुख्यधारा में जोड़ा जाना शेष है।

कुछ समय पहले एक अमेरिकी शोध संस्था ने अपनी ‘फ्यूचर डवलपमेंट रिपोर्ट’ में दावा किया था कि भारत में प्रति मिनट चवालीस लोग गरीबी रेखा से बाहर आ रहे हैं। यह दर दुनिया में सर्वाधिक बताई गई और अनुमान लगाया गया कि कुछ वर्षों में ही भारत गरीबी की समस्या से मुक्त हो जाएगा। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य के तहत वर्ष 2030 तक दुनियाभर से गरीबी को जड़ से मिटाना है। इस लक्ष्य को पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने गरीबी की समस्या से ग्रस्त राष्ट्रों को प्रति मिनट अपने बानवे नागरिकों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने का संकल्प दिलाया है। इस लिहाज से देखें, तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में भारत का रुख सकारात्मक और प्रभावी मालूम पड़ता है। अगर भारत इसी रफ्तार से गरीबी उन्मूलन की दिशा में प्रयासरत रहता है, तो संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य वर्ष (2030) से पूर्व ही भारत उस लक्ष्य को हासिल कर लेगा जब देश में गरीबों की संख्या नगण्य हो जाएगी।

आमतौर पर ‘गरीब’ होने से तात्पर्य मानव जीवन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से विरत, उपेक्षित और लक्ष्यविहीन जीवन जीने की अवस्था से है। गरीबी की परिभाषा विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2015 में निश्चित की गई थी, जिसके मुताबिक दो डॉलर से कम खर्च करके दैनिक गुजर-बसर करने वाला व्यक्ति गरीब माना गया। दरअसल, किसी प्रदेश में गरीबी से अभिशप्त आबादी समाज की मुख्यधारा की विकास प्रक्रिया से जुड़ नहीं पाती है, जिससे उनकी उन्नति रुक जाती है। इस तरह, विकास प्रक्रिया से एक पीढ़ी के नहीं जुड़ पाने के कारण आगे आने वाली कई पीढ़ियां गरीबी से अभिशप्त, उपेक्षित और बेबस जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं। गरीबी की समस्या मुख्यत: जनसंख्या विस्फोट, रोजगार के अभाव, निरक्षरता, कल्याणकारी योजनाओं में निहित भ्रष्टाचार, खराब स्वास्थ्य सुविधाएं, परिवार का बड़ा आकार और व्यक्ति के निकम्मेपन की वजह से जन्म लेती है। किसी देश के अल्प विकास का सबसे बड़ा कारण गरीबी ही है। गरीबी अर्थव्यवस्था की गति को धीमा करती है और मानव संसाधन को निष्क्रिय बना देती है। वहीं, गरीबी की अवस्था व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रूप से भी कमजोर बना देती है।

यूएनडीपी की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में अभी गरीबों की संख्या करीबन एक सौ तीस करोड़ है। आठ करोड़ सत्तर लाख निर्धन आबादी के साथ नाइजीरिया पहले और साढ़े सात करोड़ निर्धन आबादी के साथ भारत अब दूसरे स्थान पर है। बहरहाल, गरीबी और भुखमरी की समस्या देश के विकास में बाधक बन सकती है। विडंबना यह है कि आजादी के सात दशक और आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के ढाई दशक बाद भी देश में उन्नीस करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। ये हमारे समाज के वे अंतिम लोग हैं, जिन्हें मुख्यधारा में लाए बिना समावेशी विकास के लक्ष्य को भी हासिल नहीं किया जा सकता। देश के संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत नागरिकों को ‘जीवन की सुरक्षा का अधिकार’ प्रदान किया गया है, अत: भुखमरी और गरीबी से होने वाली मौतों को रोकना और प्रभावित जनसंख्या को विकास की मुख्यधारा में शामिल करना सरकार व समाज के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है।

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर नौ में से एक आदमी रोज भूखे पेट सोने को मजबूर है। दूसरी तरफ, दिनों-दिन बढ़ती आबादी, घटता कृषि उत्पादन और अन्न की निर्मम बर्बादी की वजह से दुनियाभर में भूख जनित समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2018 के मुताबिक एक सौ उन्नीस देशों की सूची में भारत एक सौ तीन वें पायदान पर है, जबकि पिछले साल यानी 2017 में सौवें स्थान पर था। साफ है, भारत भुखमरी से जंग के मामले में पिछड़ता जा रहा है। समतामूलक समाज की स्थापना और समावेशी विकास की परिकल्पना को साकार करने के लिए भुखमरी और गरीबी जैसी समस्याओं से निपटना बेहद जरूरी है। मौजूदा समय में भारत में विश्व की भूखी आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा निवास करता है और देश में करीबन उनतालीस फीसद बच्चे पर्याप्त पोषण से वंचित हैं।

हालांकि, कुपोषण और भुखमरी से निपटने के लिए समय-समय पर हमारी सरकारों ने कई योजनाओं को कागज पर उतारा जरूर है, लेकिन उचित क्रियान्वयन के अभाव में वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई हैं। मध्याह्न भोजन योजना (1995), सार्वजनिक वितरण प्रणाली (1997), अंत्योदय अन्न योजना (2000), राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005), जननी सुरक्षा योजना (2005), इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना (2010), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) और उत्तर प्रदेश सरकार का शबरी संकल्प अभियान और मातृ वंदन योजना भी इसी दिशा में एक प्रयास है। हालांकि, देश में योजनाएं खूब बनती हैं, लेकिन उनका उचित क्रियान्वयन और फिर मूल्यांकन नहीं हो पाता। देश में खाद्य सुरक्षा विधेयक और भोजन के अधिकार को लेकर भी गाहे-बगाहे चर्चाएं होती रहती हैं। लेकिन इसे विडंबना ही कहेंगे कि ये चर्चाएं आज तक धरातल पर उतर नहीं पाई हैं।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश में आज भी करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं, तो दूसरी तरफ विवाह व पूजा जैसे आयोजनों में प्रतिदिन भोजन का एक बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। भोजन बर्बाद करते समय हम यह भूल जाते हैं कि अन्नदाताओं ने इसे कितनी मेहनत से तैयार किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज अन्नदाता स्वयं दाने-दाने को मोहताज हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन करने वाले लोग अपने घर का बचा हुआ भोजन अथवा अनाज के अंश पालतू जानवरों को खिला देते हैं, लेकिन शहरों में घर के शेष भोजन का हिस्सा प्रतिदिन कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है।

गरीबों और वंचितों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए देश के कुछ शहरों में ‘रोटी बैंक’ नाम से एक अच्छी शुरुआत की गई है। इस बैंक की खूबी यह है कि यहां घरों में प्रतिदिन का बचा खाना लाया जाता है और फिर उसे जरूरतमंदों के बीच वितरित किया जाता है। बहरहाल, साझा प्रयास किए बिना गरीबी और भुखमरी को संसार से बाहर किया जाना संभव नहीं है। भूखा इंसान सरकार से रोटी की अपेक्षा करता है, लेकिन निराशा मिलने पर वह पथ-विमुख हो जाता है। सरकार का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों का पेट भरे, इसे सुनिश्चित कराए। हालांकि, यह काम सरकार अकेले नहीं कर सकती। आम नागरिक भी इसमें मदद करें, तभी भूख की समस्या से निजात मिल सकेगी।