सुशील कुमार सिंह
ब्रिक्स देशों का सम्मेलन बीते छह-सात जुलाई को ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में संपन्न हुआ, जहां कई ज्वलंत मुद्दे उठे और इन्हीं में एक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तत्काल सुधार से संबंधित भी था। ब्रिक्स देशों के नेताओं ने सुरक्षा परिषद को और अधिक लोकतांत्रिक, प्रभावी और कुशल बनाने की वकालत की है। खास बात यह भी रही कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में चीन और रूस ने संयुक्त राष्ट्र में तुलनात्मक रूप से बढ़ी हुई भूमिका निभाने की ब्राजील और भारत की इच्छा का समर्थन किया है। वैसे देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का मामला दशकों पुराना है।
यदि अमेरिका जैसे देश वास्तव में इस मसले पर गंभीर हैं, तो सुरक्षा परिषद में बड़े सुधार को सामने लाकर भारत को स्थायी सदस्य के रूप में उसमें जगह दी जानी चाहिए। कई वर्ष पहले रूस ने जोर दिया था कि स्थायी सदस्यता के लिए भारत मजबूत दावेदार है। दुनिया के कई देश इस मामले में भारत के साथ खड़े दिखाई देते हैं, लेकिन नतीजे वहीं के वहीं हैं।
संयुक्त राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप विश्व की बदलती जरूरतों के मुताबिक नहीं है
पिछले वर्ष भारत दौरे पर आए संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष डेनिस फ्रांसिस ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप विश्व की बदलती जरूरतों के मुताबिक नहीं है और इसमें सुधार नितांत आवश्यक है। अब ब्रिक्स सम्मेलन में चर्चा के बाद यह मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। ब्रिक्स देशों के नेताओं ने जोर दिया है कि सुरक्षा परिषद में सुधार वैश्विक दक्षिण के हितों के अनुरूप होना चाहिए। यानी यह सुधार विकासशील देशों की भूमिका को विस्तार देने से भी जुड़ा होना जाना चाहिए। वैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर विश्व व्यापार संगठन पर भी सवाल उठते रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र की उपयोगिता और उसकी सफलता तथा विफलता की लकीर भी कमोबेश छोटी-बड़ी रही है। संदर्भ यह भी है कि किसी भी संगठन या परिषद को यदि सुधार और बदलाव से विमुख कर लंबे समय तक रखा जाए, तो उसमें गैर उपजाऊ तत्त्व स्वत: शामिल हो जाते हैं। दुनिया में भारत का बढ़ता कद मौजूदा समय में पूरी धमक के साथ प्रतिबिंबित करता है कि सुरक्षा परिषद में फेरबदल के साथ उसे स्थायी सदस्य बनाया जाए। तभी वैश्विक हित के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में संतुलन संभव है।
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विदित हो कि संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों में भारत भी शुमार था और अब तक वह सुरक्षा परिषद का आठ बार सदस्य भी रह चुका है। आखिरी बार वर्ष 2021-22 में अस्थायी सदस्य के रूप में भारत ने अपनी भूमिका निभाई थी। मगर पूरी योग्यता और व्यापक समर्थन के बावजूद अभी तक उसे स्थायी सदस्यता नहीं मिल पाई है। हालिया परिप्रेक्ष्य में देखें, तो ब्रिक्स सम्मेलन में एक बार फिर इस मुद्दे की गूंज सुनाई दी है।
ब्रिटेन भी सुरक्षा परिषद के विस्तार का समर्थन करता रहा है, इतना ही नहीं वह भारत, जापान, ब्राजील समेत अफ्रीकी देशों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट देने की बात कह चुका है। पिछले आठ दशकों से चली आ रही इस व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन की मांग अक्सर उठती रही है। दुनिया ने कई तरह के आकार और प्रकार को ग्रहण कर लिया है, मगर सुरक्षा परिषद पांच स्थायी सदस्यों अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और रूस के अलावा दस अस्थायी सदस्यों के साथ यथावत स्थिति में है। ऐसे में अब परिवर्तन का समय आ चुका है।
असल में सुरक्षा परिषद की स्थापना वर्ष 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विश्व युद्ध से उपजी स्थिति को देख कर की गई थी, लेकिन आठ दशकों में बहुत कुछ बदल चुका है। देखा जाए तो शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइश थी, जो नहीं किया गया। पांच स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है, जबकि आबादी के लिहाज से वह मुश्किल से पांच फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य देश इसमें स्थायी नहीं है, जबकि संयुक्त राष्ट्र का पचास फीसद कार्य इन्हीं से संबंधित है।
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सुरक्षा परिषद के ढांचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व दिखता है। भारत की सदस्यता के मामले में दावेदारी बहुत मजबूत दिखाई देती है। भारत जनसंख्या की दृष्टि से चीन को पीछे छोड़ कर पहला सबसे बड़ा देश बन गया है, जबकि अर्थव्यवस्था के मामले में दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। ऐसे में भारत की दावेदारी कहीं अधिक मजबूत है। इतना ही नहीं भारत को विश्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावशाली माना जा सकता है।
एल-69 समूह जिसमें भारत, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के 42 विकासशील देशों की अगुआई कर रहा है, वह भी सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग करता रहा है। अफ्रीकी समूह में 54 देश हैं, जो सुधारों की वकालत करते रहे हैं। इनकी मांग है कि अफ्रीका के कम-से-कम दो राष्ट्रों को ‘वीटो’ की शक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाए। यदि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिलती है, तो चीन जैसे देशों के ‘वीटो’ के दुरुपयोग पर न केवल अंकुश लगेगा, बल्कि व्याप्त असंतुलन को भी पाटा जा सकेगा।
गौरतलब है कि अपनी स्थापना से अब तक सुरक्षा परिषद की सफलताओं के साथ कई नाकामियां भी जुड़ी रही हैं। यह बात सकारात्मक है कि इसके गठन के बाद तृतीय विश्व युद्ध नहीं हुआ, मगर दुनिया कई युद्धों से गुजरी है। रूस और यूक्रेन के बीच अभी युद्ध जारी है। हाल में ईरान और इजराइल के बीच संघर्ष हुआ। इजराइल और हमास तो संघर्षरत हैं ही। इससे पहले अमेरिका के नेतृत्व में वर्ष 2003 में इराक पर आक्रमण, वर्ष 2008 में रूस का जार्जिया पर हमला, अरब-इजराइल युद्ध, 1994 में रवांडा का जनसंहार और 1993 में सोमालिया में गृहयुद्ध सुरक्षा परिषद की विफलता की कहानी है।
माना जाता है कि जिस स्थायी सदस्यता के लिए भारत पिछले कुछ वर्षों से प्रयासरत है, वह वर्ष 1950 के दौर में आसानी से सुलभ थी। आवश्यकता की दृष्टि से देखें, तो भारत को इसका स्थायी सदस्य इसलिए होना चाहिए, क्योंकि सुरक्षा परिषद प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है। प्रतिबंध लगाने या अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए इस परिषद के समर्थन की जरूरत पड़ती है। ऐसे में एशिया में शांति और स्थिरता की दृष्टि से भारत को स्थायी सदस्यता मिलनी ही चाहिए।
चीन द्वारा सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने में बार-बार अड़ंगा लगाना इस बात को पुख्ता करता है। स्थायी सदस्यता मिलने से भारत को वैश्विक पटल पर अधिक मजबूती से अपनी बात कहने की ताकत मिलेगी और चीन की चाल कमजोर होगी। इसके अलावा बाह्य सुरक्षा खतरों और भारत के खिलाफ सुनियोजित आतंकवाद जैसी गतिविधियों को रोकने में भी मदद मिलेगी।