देश के ज्यादातर हिस्सों में लोग भीषण गर्मी से बेहाल नजर आ रहे हैं। दिल्ली सहित कई इलाकों में तापमान इस बार 49 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया और देश के कुछ हिस्सों में 50 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर गया। आमतौर पर ठंडे रहने वाले शिमला, मनाली, धर्मशाला सहित लगभग तमाम पर्वतीय शहर भी तप रहे हैं। इनमें से कुछ पर्वतीय इलाकों में भी पारा 40 के पार पहुंच चुका है। वैसे तो हर वर्ष उत्तर पश्चिमी भारत, मध्य, पूर्व और उत्तर प्रायद्वीपीय भारत के मैदानी इलाकों में मार्च से जून के दौरान लू का दौर चलता है, लेकिन जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जा रही है, दिन और रात भी सामान्य से अधिक गर्म हो रहे हैं, जिससे मौतों तथा बीमारियों की आशंका भी बढ़ रही है।
पिछले पंद्रह वर्षों में 2009, 2010, 2016, 2017 और 2022 भारत में दर्ज पांच सबसे गर्म वर्ष रहे। आइएमडी के मुताबिक पंद्रह सबसे गर्म वर्षों में से ग्यारह वर्ष 2008 से 2022 के बीच ही दर्ज किए गए। प्रश्न है कि भारत में गर्म हवाओं को लेकर ऐसी स्थिति क्यों बन रही है? पिछले तीस वर्षों के तापमान तथा गर्म हवाओं का आकलन करते हुए आइआइटी खड़गपुर के एक अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया था कि घटती हरियाली, शहरीकरण तथा कंक्रीट से निर्माण के कारण अब प्रतिवर्ष लू में वृद्धि हो रही है।
पेड़-पौधों की कमी, अधिक शहरीकरण तथा कंक्रीट से अधिक निर्माण आदि विविध कारणों से शहर ज्यादा तप रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह शहरों में निरंतर बढ़ता जनसंख्या घनत्व भी है। दरअसल, कामकाज और सुविधा संपन्न जिंदगी की चाह में ग्रामीण अंचलों से बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर रुख कर रहे हैं और फिर सदा के लिए वहीं बस जाते हैं। इससे शहरों में तमाम संसाधनों पर बोझ बढ़ रहा है, जनसंख्या का घनत्व बढ़ने के कारण हरियाली नष्ट हो रही है। सुविधाओं के विस्तार के लिए पर्यावरण विरोधी विकास योजनाओं के नाम पर हरे-भरे प्राकृतिक क्षेत्रों को सीमेंट तथा कंक्रीट के तपते जंगलों में तब्दील किया जा रहा है। मौसम विभाग के अनुसार कुछ स्थानीय कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं। दरअसल, अधिक हरे-भरे इलाकों में तापमान कम दर्ज किया जाता है, जबकि चारों ओर बसी कालोनियों तथा ऊंची-ऊंची इमारतों वाले इलाकों में तापमान ज्यादा दर्ज होता है। तकनीकी भाषा में इसे ‘अर्बन हीट आईलैंड इफैक्ट’ कहा जाता है
विभिन्न शोधों के आधार पर वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि लू के लिए जलवायु संकट जिम्मेदार है और शहरीकरण तथा जनसंख्या घनत्व इसमें बड़ा योगदान देते हैं। आइआइटी दिल्ली के शोधकर्ताओं के 1972 से 2014 के दिल्ली-एनसीआर में जमीन के बदल रहे उपयोग पर किए गए एक अध्ययन में भी सामने आ चुका है कि इस दौरान दिल्ली में धरातल के तापमान में 1.02 डिग्री की वृद्धि दर्ज की गई और तापमान में यह बदलाव अधिक शहरीकरण तथा क्षेत्र में जमीन के उपयोग में बदलाव के कारण ही हुआ। कापरनिक्स सेंटिनल-3, इनसैट 3डी तथा नासा के एक उपग्रह द्वारा कुछ समय पहले पृथ्वी की सतह की ली गई तस्वीरों से यह चौंकाने वाला खुलासा भी हुआ था कि धरती की सतह का तापमान (एलएसटी) 60 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो गया है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजंसी के मुताबिक उत्तर पश्चिम भारत के कई हिस्सों में एलएसटी 55 डिग्री के करीब है, जबकि अहमदाबाद के दक्षिण-पूर्व तथा दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में तो यह 65 डिग्री दर्ज किया गया है। गौरतलब है कि धरती की सतह सूर्य की किरणों के ताप को अवशोषित कर उसे ऊष्मा के रूप में छोड़ती है, जिससे धरती की सतह तथा आसपास का तापमान बढ़ जाता है। इसी को एलएसटी (लैंड सरफेस टेंपरेचर) कहा जाता है, जबकि आमतौर पर मापा जाने वाला तापमान सतह से कुछ फुट की ऊंचाई का तापमान होता है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्लूएमओ) की ‘द स्टेट आफ द ग्लोबल क्लाइमेट 2021’ रपट में कहा गया था कि भूमध्यसागरीय तथा उत्तरी अमेरिकी क्षेत्रों में भी लू ने सारे कीर्तिमान तोड़ दिए हैं और बीते सात साल सबसे गर्म रहे हैं। रपट के मुताबिक विगत नौ दशकों में धरती से लेकर समुद्र तक इंसानी दखल बढ़ने से मौसम का मिजाज बिगड़ा है और मौसम, पृथ्वी, समुद्र तथा पर्यावरण को होने वाली क्षति ने सारे कीर्तिमान तोड़ दिए हैं। प्रचंड लू से बाढ़ तक के लिए मानव निर्मित ऐसी परिस्थितियां ही जिम्मेदार हैं। डब्लूएमओ की रपट के अनुसार 2020 में वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मौजूदगी 413.2 पीपीएम थी और उद्योगीकरण से पहले की तुलना में वर्ष 2021 में इसमें 149 फीसद की बढ़ोतरी हुई।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार भारत में 1991 से 2018 के बीच लू लगने के कारण 24 हजार से भी ज्यादा लोगों की मौत हुई, जबकि एक अन्य रपट के मुताबिक अत्यधिक गर्मी या लू से 2010 के बाद से अब तक साढ़े छह हजार से भी ज्यादा लोगों की मौत हुई है। आइआइटी खड़गपुर के एक अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि तापमान में वृद्धि तथा लू का मानव शरीर पर व्यापक असर पड़ रहा है। गर्म हवाओं से मस्तिष्क आघात, हृदयाघात, नसों में खून के थक्के जमने की आशंका, स्थायी विकलांगता का खतरा बढ़ जाता है और इससे मृत्यु दर में भी वृद्धि हो सकती है। राष्ट्रीय एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम के मुख्य अन्वेषक का कहना है कि लू, बाढ़ के बाद दूसरी सबसे घातक आपदा है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौतियां पेश कर रही है। लू से ऐसे लोगों की स्थिति और खराब होने की संभावना होती है, जो हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, गुर्दे की बीमारी आदि समस्याओं से पीड़ित हैं। इन घातक स्थितियों से बचने के लिए जलवायु संकट से निपटने के अन्य उपायों के अलावा प्राकृतिक जंगलों के संरक्षण तथा आवासीय इलाकों में हरियाली बढ़ाने के लिए वृक्षारोपण अभियान को बढ़ावा देना होगा।
अत्यधिक तापमान से जहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर की स्वास्थ्य प्रणालियों की चिंता बढ़ जाती है, वहीं लू का श्रमिकों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है, जिससे देश की समग्र अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रपट के अनुसार भारत ने 1995 में गर्मी के कारण काम के करीब 4.3 फीसद घंटे खो दिए और 2030 में काम के घंटों में 5.8 फीसद की कमी आने की संभावना है। 2030 तक 3.4 करोड़ लोगों की नौकरियों पर संकट होगा। 2030 में गर्मी के कारण कृषि तथा निर्माण क्षेत्रों में 9.04 फीसद काम के घंटे कम हो जाने की उम्मीद है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रपट के अनुसार भीषण गर्मी तथा लू के कारण 2030 तक दुनिया भर में अर्थव्यवस्था को 4.2 ट्रिलियन डालर की क्षति का अनुमान है।
अत्यधिक तापमान से जहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर की स्वास्थ्य प्रणालियों की चिंता बढ़ जाती है, वहीं लू का श्रमिकों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है, जिससे देश की समग्र अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रपट के अनुसार भारत ने 1995 में गर्मी के कारण काम के करीब 4.3 फीसद घंटे खो दिए और 2030 में काम के घंटों में 5.8 फीसद की कमी आने की संभावना है। 2030 तक 3.4 करोड़ लोगों की नौकरियों पर संकट होगा। 2030 में गर्मी के कारण कृषि तथा निर्माण क्षेत्रों में 9.04 फीसद काम के घंटे कम हो जाने की आशंका है।