द्विपक्षीय संबंधों में सहयोग और प्रतिस्पर्धा के गुण कूटनीतिक जटिलताओं को दिखाते हैं। भारत और चीन इसके पर्याय हैं। एशिया की दो महान शक्तियां एक दूसरे की पड़ोसी हैं। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से दोनों देश एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन सीमा विवाद ऐसी लक्ष्मण रेखा है जो राजनीतिक संबंध को सामान्य होने नहीं देती। इसका असर रणनीतिक तौर पर दोनों देशों के हितों को स्पष्ट रूप से विभाजित करता है।
चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने भारत यात्रा के दौरान स्वीकार किया कि दोनों देशों के बीच भले ही कई मुद्दों पर मतभेद हों, लेकिन कुछ साझा आपसी हित भी हैं, जो दोनों देशों को सहयोग के लिए प्रेरित करते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की शुल्क नीतियों से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। भारत पर इसका असर कहीं ज्यादा पड़ रहा है। चीन भी इससे आशंकित है। चीन और अमेरिका दुनिया में प्रमुख प्रतिद्वंदी के रूप में उभरे हैं, वहीं अमेरिका की कूटनीतिक महत्वाकांक्षाओं और आर्थिक नीतियों के अनुसार व्यवहार न कर पाने से भारत की चुनौतियां बढ़ गई हैं। इससे भारत और चीन के बीच संबंध बेहतर करने के अवसर भी बने हैं।
चीन भारत का एक बड़ा व्यापारिक साझेदार है
भारत और चीन दोनों विशाल बाजार हैं। चीन भारत का एक बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जबकि भारत चीनी कंपनियों के लिए निवेश और उपभोक्ता बाजार उपलब्ध कराता है। चीन की तकनीकी और औद्योगिक क्षमता तथा भारत की श्रमशक्ति और बाजार मिल कर विकास के अवसर प्रदान कर सकते हैं। दोनों देशों को तेल, गैस और खनिजों की भारी जरूरत है। सहयोग से आपूर्ति शृंखला मजबूत की जा सकती है।
सौर और हरित ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग कर भविष्य की ऊर्जा जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। तीसरी दुनिया की मूलभूत समस्याएं और विकसित देशों से मिलती चुनौतियों के खिलाफ भी दोनों देश मिल कर खड़े नजर आते हैं। दुनिया भर में चीन ने अपना आर्थिक कारोबार बढ़ाया है जो एशिया, अफ्रीका, यूरोप से लेकर लैटिन अमेरिका तक अपना व्यापक प्रभाव कायम कर रहा है। यह स्थिति अमेरिका और यूरोप को परेशान करती है, तो भारत के लिए भी सब कुछ सामान्य नहीं है।
व्यापार असंतुलन बड़ा मुद्दा है। भारत निवेश और तकनीक चाहता है, वहीं चीन भारत के बाजार में अपनी पकड़ बनाए रखना चाहता है। एक ओर दोनों देश उभरती हुई एशियाई शक्तियां हैं और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थक हैं, तो दूसरी ओर क्षेत्रीय नेतृत्व, सुरक्षा और वैश्विक संस्थानों में प्रतिनिधित्व को लेकर प्रतिस्पर्धा है। भारत दक्षिण एशिया में अपना पारंपरिक नेतृत्व बनाए रखना चाहता है, जबकि चीन पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और मालदीव में निवेश कर भारत के प्रभाव को चुनौती देता है।
हिंद महासागर में चीन की उपस्थिति भारत की सुरक्षा चिंता है। वह चाहता है कि उसे सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिले, लेकिन चीन इसका विरोध करता है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया के साथ क्वाड समूह में मिल कर काम करता है। इसे चीन अपने हितों के खिलाफ समझता है। वहीं चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल भारत को स्वीकार्य नहीं है।
चीन भारत के लिए सीमा, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और कूटनीति सभी स्तरों पर चुनौती बना हुआ है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर वह बार-बार घुसपैठ करता है। गलवान घाटी जैसी घटनाएं दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाती हैं। चीन का सैन्य आधुनिकीकरण और उसकी आक्रामक नीति भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। चीन ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल के जरिए दक्षिण एशिया में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में चीन का बढ़ता प्रभाव भारत की सामरिक स्थिति को चुनौती देता है।
भारत रूस और चीन दोनों के साथ नजदीकियां बढ़ा रहा, व्यापार को लेकर बोले ट्रंप के सलाहकार
हिंद महासागर क्षेत्र में उसकी गतिविधियां भारत की समुद्री सुरक्षा को प्रभावित करती हैं। भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा बहुत बड़ा है। चीन की सस्ती तकनीक और उत्पाद भारत के घरेलू उद्योग के लिए चुनौती बनते हैं। वहीं पाकिस्तान को चीन का लगातार समर्थन भारत के लिए चुनौती है। इस तरह भारत और चीन के बीच संबंध जटिल और बहुआयामी हैं। दोनों देशों के बीच सहयोग की अनेक संभावनाएं हैं, लेकिन विरोधाभास भी कम नहीं हैं।
अमेरिका और नाटो ने भारत के लिए जो कूटनीतिक और आर्थिक समस्याएं बढ़ाई हैं उसके बाद भारत को अपने राष्ट्रीय हितों के संवर्धन के लिए मजबूत भागीदार को जरूरत है, लेकिन वह चीन कैसे हो सकता है। यह बड़ा सवाल है।
भारत और चीन दोनों ही बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। व्यापार, निवेश और तकनीकी क्षेत्र में साझेदारी से एशिया ही नहीं, वैश्विक स्तर पर विकास को गति मिल सकती है। दोनों देश यदि आपसी मतभेद सुलझा कर सहयोग करें, तो दक्षिण एशिया और हिंद प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता बढ़ सकती है। दोनों ही विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा, जल संसाधन प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण में सहयोग की जरूरत है। ब्रिक्स, एसीओ और जी-20 जैसे मंचों पर भारत और चीन मिल कर वैश्विक दक्षिण की आवाज बुलंद कर सकते हैं।
भारत और चीन के बीच विश्वास की बड़ी कमी रही है। रणनीतिक स्तर पर, चीन को हमेशा इस बात का डर रहता है कि पश्चिमी देश भारत का इस्तेमाल उसके बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए करते हैं। भारत का अमेरिका और क्वाड देशों के साथ बढ़ता सहयोग चीन को असहज करता है। हिंद-प्रशांत का समूचा क्षेत्र आर्थिक और भू-सामरिक दृष्टि से बेहद अहम है और चीन इस क्षेत्र को लगातार घेर रहा है। ऐसे में विश्व राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाए रखने और इस क्षेत्र की सुरक्षा बेहद जरूरी है।
चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह, मालदीव के मराय, श्रीलंका के हब्बन टोटा, म्यांमा के सित्तवे और बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह पर कब्जा कर हिंद-प्रशांत महासागर की शांति और सुरक्षा को लगातार प्रभावित कर रहा है। चीन के उभार को रोकने के लिए कूटनीति और सामरिक रूप से अमेरिका एशिया के कई इलाकों में अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ा रहा है। अमेरिका की हिंद-प्रशांत की नीति के केंद्र में भारत है और समंदर में बड़ा रणनीतिक सहयोगी भी।
प्रधानमंत्री शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में हिस्सा लेने चीन जाएंगे। इस यात्रा का महत्त्व सीमा पर स्थिरता बहाल करने, व्यापार, उड्डयन, कूटनीति में सुधार और बहुपक्षीय साझेदारी को मजबूत करने जैसे कई आयामों से जुड़ा है। यह केवल एक बहुपक्षीय सम्मेलन में उपस्थिति भर नहीं है, बल्कि भारत-चीन संबंधों, क्षेत्रीय संतुलन और वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने वाला कदम हो सकता है। भारत को चीन के साथ संघर्ष और सहयोग दोनों का संतुलन साधना पड़ेगा।
भारत के सामने यह जटिल चुनौती है कि वह अमेरिका और यूरोप से अत्याधुनिक तकनीक, पूंजी और बाजार का लाभ उठाए, रूस के साथ पारंपरिक रक्षा सहयोग और ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत बनाए रखे और चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के बावजूद सीमित सहयोग की संभावनाएं खुली छोड़े। यह बहुआयामी संतुलन भारत को बना कर रखना होगा। किसी संप्रभु राष्ट्र के लिए शक्ति संतुलन, राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी संकल्पनाएं महत्त्वपूर्ण है और राष्ट्र की सुरक्षा उसका दायित्व है। अमेरिका की नीतियां और चीन से मजबूत संबंध स्थापित करने की कोशिशें भारत की विदेश नीति के लिए परीक्षा की घड़ी है।