राजनीति का इम्तिहान आम इम्तिहान से अलग होता है। इसमें फेल होने पर आप एक नहीं बल्कि पांच साल के लिए पीछे चले जाते हैं। कांग्रेस आलाकमान इतना तो समझ ही गई होंगी कि दो चुनाव हारने के बाद पार्टी दस साल पीछे जा चुकी है। इसके बावजूद पार्टी में विरासती दौड़ ‘अशोक स्तंभ’ की तरह इतिहास की वो इबारत बन गई है जो बिना रंग-रूप बदले दुहराई जा रही है।

गुप्त वंश, मौर्य वंश के प्राचीन पैमाने की तरह ‘कांग्रेस व संतान’ की दुकान बंद होने का नाम नहीं ले रही जबकि जनता लगातार आपको घाटे का सौदा साबित करने में लगी है। आपके सामान में घुन लग चुका है लेकिन आप उसे संघर्ष की धूप दिखाना ही नहीं चाहती हैं। वंशवाद की सीलन आपकी ऐतिहासिक इमारत को जमींदोज कर चुकी है लेकिन आप मलबे में भी बस अपना वंश स्तंभ बचाए रखना चाहती हैं।

राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, भूपिंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र, जितेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद, सुनील दत्त की बेटी प्रिया तो अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, प्रणब मुखर्जी के वारिसों के नाम सबसे पहले आते ही हैं। लेकिन स्थानीय स्तर पर जाएंगे तो विधायक से लेकर सरपंच तक की यही कहानी है। आपकी पार्टी का हाल यह है कि अगर कोई नेता बीमार पड़ गया तो उसके परिवार का ही कोई जगह भर पाएगा। किसी की सीट महिला के लिए आरक्षित हो जाए तो बीवी या बेटी के अलावा कोई और नाम सोचने की दरकार ही नहीं होती है।

भूपिंदर सिंह हुड्डा समय रहते अपने बेटे की जमीन मजबूत कर देते हैं। भजनलाल के बाद कुलदीप बिश्नोई ही विरासत पाते हैं। बेअंत सिंह के निधन के बाद उनकी संतानों को ही जगह भरने आना होता है। कांग्रेस के नेताओं ने राजनीति को पैतृक संपत्ति की तरह ही इस्तेमाल किया जिसमें परिवार से बाहरी लोगों के लिए किसी संभावना की गुंजाइश नहीं छोड़ी। एक समय हरियाणा में कांग्रेस मतलब भूपिंदर सिंह हुड्डा का कुनबा हो जाता है। ये सब उस वंशबेल की पैदाइश हैं जिसकी जड़ दस जनपथ में है और अब हर तरफ फल-फूल रही है।

ध्यान देने की बात है कि कांग्रेस की वंशबेल जब दूसरे दल में जाती है तो वहां भी अपने वंश का ही विस्तार करती है। चौधरी वीरेंद्र सिंह कभी कांग्रेस में हरियाणा के मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। एक वक्त ऐसा था जब हुड्डा से ज्यादा गांधी परिवार के नजदीकी थे। अपनी पत्नी को टिकट दिलवाया और खुद राज्यसभा में गए। बाद में उन्हें अहसास हुआ कि यहां रहते तो कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे।

न तो हुड्डा की काट बन पाए और न एक मजबूत जाट नेता के तौर पर उभर पाए। कांग्रेस छोड़ भाजपा के साथ जुगत भिड़ा खुद केंद्र में मंत्री बन गए और पत्नी को अपने गृह क्षेत्र से विधायक बनवा दिया। फिर 2019 का चुनाव आया और भाजपा नेतृत्व से निवेदन किया कि मैं राजनीति से हटता हूं। मेरी जगह मेरा बेटा आगे बढ़े। अपने नौकरशाह बेटे को राजनीति में लाए जो अभी सांसद हैं।

कांग्रेस आलाकमान पुत्रमोह में राहुल गांधी को लेकर आईं और पारिवारिक पहचान ढोने के कारण वे बुरी तरह खारिज हुए। हद है कि राहुल के खारिज होने के बाद उन्होंने 2019 में प्रियंका गांधी को भी झोंक दिया और परिवार के वृत्त की परिक्रमा ही पूरी कर दी। जो आप कर रही हैं वही आपके अन्य नेता भी कर रहे हैं। ऐसे में अगर जनता आपको एक पार्टी के बजाए परिवार के रूप में देख रही है तो गलत क्या है।

कांग्रेस जितनी बड़ी पार्टी थी उतनी ही ज्यादा टूटी भी। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक इसके टुकड़े हैं। आप अपने नेताओं की सुनते नहीं हैं तो वे बगावत कर अपनी नई पार्टी बनाते हैं। लेकिन वहां भी वंशबेल को ही आगे बढ़ाते हैं। शरद पवार ने अपनी बेटी और भतीजे के अलावा किसी को राकांपा के वारिस के तौर पर पनपने नहीं दिया। पीए संगमा अपनी बेटी अगाथा को लाए। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी ने अपने बाप का हक मांगा। नहीं मिला तो आपके सामने अपनी पार्टी बनाकर युवा मुख्यमंत्री बन गए।

आप यह नहीं कह सकतीं कि जो मेरे लिए सच है वह दूसरे के लिए झूठ हो। आप पार्टी का यह घोषित संविधान ही बना दीजिए कि यहां नेता के बाद उसकी संतान का हक होगा। कल इनके भी बच्चे आएंगे और आप उन्हें नहीं रोक पाएंगी क्योंकि आप खुद ही नहीं रुक रही हैं।

2014 में कांग्रेस के खिलाफ परिवारवाद के नाम पर अभियान शुरू हुआ और उसे ऐतिहासिक हार देखनी पड़ी। इसके बाद राहुल गांधी ने पार्टी को एक नई दिशा देने की कोशिश की। लेकिन उनके सुधारवादी वृत्त के दायरे में भी वंश के ही बीज थे। फिर भी आपको अपने बेटे ने ही एक मौका दिया। लेकिन बेटे के सकारात्मक दिशा में उठाए गए एक कदम आगे को आप दो कदम पीछे ले गईं। आपके अंदर की वंशबेल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है जिसमें आपका बेटा राहुल गांधी भी शामिल है।

अब दस साल पीछे जाने के बाद भी आपका और पीछे जाने का अभियान जारी है। इसे देख लग रहा है कि अपने बेटे को प्रधानमंत्री के तौर पर देखने का आपका ख्वाब अधूरा ही रह जाएगा। जमीनी राजनीति करने वालों का आपसे मोहभंग हो चुका है और वो सब आपको छोड़ कर जा चुके हैं। त्रासदी यह है कि इतना पीछे जाने के बाद भी आप आगे आने के संघर्ष के रास्ते पर चलना नहीं चाह रही हैं। आपकी बंद आंखों में किसी समाधान का सपना देखना ही व्यर्थ है। अब तो अच्छा यह है कि आप पार्टी दफ्तर के बाहर कांग्रेस का नाम मिटा दें। उसका नाम संतान की दुकान रख दें तो ज्यादा चलेगी।