भारत सरकार ने 17 सितंबर को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के अपने साल भर चलने वाले समारोहों की शुरुआत की। साल 1948 में इसी दिन हैदराबाद राज्य को निज़ाम के शासन से आज़ादी मिली थी। बुधवार को मध्य प्रदेश के धार में एक जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस दिन का जिक्र करते हुए कहा कि इस दिन, देश ने सरदार पटेल की दृढ़ इच्छाशक्ति देखी। भारतीय सेना ने हैदराबाद को आज़ाद कराया और उसके अधिकारों की रक्षा की। दशकों बीत गए लेकिन किसी ने इस उपलब्धि का जश्न नहीं मनाया। हमारी सरकार ने इस घटना को अमर बना दिया। हमने इस दिन को हैदराबाद मुक्ति दिवस के रूप में मनाना शुरू किया। आइए जानते हैं हैदराबाद का इतिहास और यह कैसे बना भारत का हिस्सा।

साल 1911 से 1948 तक हैदराबाद के अंतिम निज़ाम, निज़ाम मीर उस्मान अली ने तेलंगाना और वर्तमान कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों से मिलकर बने राज्य पर शासन किया। हालांकि, ये राज्य आधिकारिक तौर पर मुक्ति दिवस मनाते हैं, तेलंगाना ने कभी ऐसा नहीं किया। इस साल, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने कहा है कि राज्य सरकार अपना स्वयं का ‘तेलंगाना राष्ट्रीय एकता दिवस’ समारोह आयोजित करेगी।

हैदराबाद राज्य भारत का हिस्सा कैसे बना?

भारत की स्वतंत्रता के समय ब्रिटिश भारत स्वतंत्र राज्यों और प्रांतों का मिश्रण था जिन्हें भारत, पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। हैदराबाद के निज़ाम ने यह जिन्हें निर्णय लेने में लंबा समय लगाया। उस समय दुनिया के सबसे धनी लोगों में से एक माने जाने वाले निज़ाम अपना राज्य छोड़ने को तैयार नहीं थे।

हैदराबाद राज्य की बहुसंख्यक आबादी निज़ाम जैसी संपत्ति का आनंद लेने से कोसों दूर थी। उस समय राज्य की सामंती प्रकृति के कारण किसान आबादी को उच्च करों, बेगार के अपमान और शक्तिशाली जमींदारों के हाथों कई अन्य प्रकार के शोषण का सामना करना पड़ता था। इस बीच आंध्र महासभा (AMS) बन गया और कम्युनिस्ट इससे जुड़ गए। दोनों समूहों ने मिलकर निज़ाम के खिलाफ एक किसान आंदोलन खड़ा किया जिसे स्थानीय समर्थन मिला।

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रजाकार और इत्तेहादुल मुस्लिमीन कौन थे?

जुलाई 1946 में विष्णु रामचंद्र रेड्डी नाम के एक कर संग्रहकर्ता द्वारा जबरन भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध हुए विद्रोह के जवाब में, अक्टूबर 1946 तक निज़ाम ने एएमएस पर प्रतिबंध लगा दिया। निज़ाम के एक करीबी सहयोगी, इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता, कासिम रज़वी निज़ाम की स्थिति को सुरक्षित रखने में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उनके नेतृत्व में ही किसान और कम्युनिस्ट आंदोलन को दबाने के लिए ‘रज़ाकारों’ का एक मिलिशिया बनाया गया और क्रूर हमले शुरू किए गए।

इसी समय, नवंबर 1947 में निज़ाम और भारत सरकार के बीच एक ‘स्थिर समझौते’ पर भी हस्ताक्षर हुए जिसमें यथास्थिति की घोषणा की गई। इसका मतलब था कि नवंबर 1948 तक, निज़ाम हालात को जस का तस रहने दे सकते थे और भारतीय संघ के साथ बातचीत जारी रहने तक कोई अंतिम निर्णय नहीं ले सकते थे।

सैन्य कार्रवाई से हुआ विलय?

वेंकटराघवन सुभा श्रीनिवासन ने अपनी पुस्तक “द ओरिजिन्स ऑफ इंडियाज़ स्टेट्स” में लिखा है कि 1948 की शुरुआत में, तनाव बढ़ गया क्योंकि हैदराबाद के रजाकार नेता और सरकार भारत के साथ युद्ध की बात करने लगे और मद्रास तथा बॉम्बे प्रेसीडेंसी की सीमाओं पर छापे मारने लगे। प्रतिक्रियास्वरूप, भारत ने हैदराबाद के चारों ओर सेना तैनात कर दी और सैन्य हस्तक्षेप के लिए खुद को तैयार करना शुरू कर दिया।

“इंडिया आफ्टर इंडिपेंडेंस” में बिपन चंद्र के अनुसार, जून 1948 तक सरदार पटेल जिन्हें राज्यों को संघ में एकीकृत करने का कार्यभार सौंपा गया था, अधीर हो रहे थे क्योंकि निज़ाम के साथ बातचीत फलदायी परिणाम नहीं निकाल पा रही थी। देहरादून से उन्होंने नेहरू को लिखा, “मुझे दृढ़ता से लगता है कि एक ऐसा समय आ गया है जब हमें उन्हें स्पष्ट रूप से बता देना चाहिए कि विलय को बिना शर्त स्वीकार करने और पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना के अलावा हमें कुछ भी स्वीकार्य नहीं होगा।”

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भारतीय सेना का ऑपरेशन पोलो

निज़ाम द्वारा और अधिक हथियार आयात करने और रज़ाकारों की हिंसा के ख़तरनाक स्तर पर पहुँचने के साथ, भारत ने 9 सितंबर को आधिकारिक तौर पर ‘ऑपरेशन पोलो’ शुरू किया और चार दिन बाद हैदराबाद में अपनी सेना तैनात कर दी। सेना तैनाती के तीन दिन बाद, 17 सितंबर को निज़ाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर में भारतीय संघ में शामिल हो गए। भारत सरकार ने उदारता दिखाते हुए निज़ाम को दंडित न करने का फ़ैसला किया। चंद्रा ने लिखा है कि उन्हें राज्य का आधिकारिक शासक बनाए रखा गया और उन्हें पचास लाख रुपये का निजी कोष दिया गया।