एशिया महाद्वीप के हिंदूकुश-हिमालय पर्वत शृंखला में बर्फबारी कम हो रही है। इसे एक बड़ी पर्यावरणीय घटना माना जा रहा है। यह अब पिछले 23 वर्षों में अपने सबसे निचले स्तर पर है जो कि न केवल सच्चाई है, बल्कि बेहद गंभीर भी। क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से एशिया दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप है। पश्चिम में इसकी सीमाएं यूरोप से मिलती हैं। इसका क्षेत्रफल काफी बड़ा है। इसमें 49 देश आते हैं। जनसंख्या के लिहाज से एशिया की कुल आबादी लगभग 470 करोड़ है। विश्व की कुल जनसंख्या के लिहाज से यह 60 फीसद के लगभग है।
इसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता समूचे विश्व में अलग और समृद्ध है। अभी कुछ दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम विज्ञान संगठन यानी डब्लूएमओ ने एशिया को जलवायु संबंधी आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र बता कर चिंता और बढ़ा दी है। संगठन की ओर से मार्च में जारी एक रपट बताती है कि पिछले छह वर्षों में से पांच ऐसे थे, जब हिमनदों में सबसे तेज गिरावट देखी गई। इसे क्षेत्र की पर्यावरणीय स्थिरता और मानव जीवन के लिए बढ़ती चुनौतियों का संकेत भी माना जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र यानी इंटरनेशनल सेंटर फार इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आइसीआइएमओडी) जो एक क्षेत्रीय अंतर-सरकारी शिक्षण केंद्र है जो हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र के लिए काम करता है। वर्ष 1983 में स्थापित यह संगठन काठमांडो में स्थित है। यह, इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र को अत्यधिक हरा-भरा, अधिक समावेशी बनाने के साथ लोगों के जीवन, आजीविका को बेहतर बनाने, पर्वतीय पर्यावरण और संस्कृतियों की रक्षा करने और सतत विकास के लिए क्षेत्रीय सहयोग को मजबूत करने की दिशा में काम करता है।
सामान्य से कम होता जा रहा हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में बर्फबारी का स्तर
बीते 21 अप्रैल को आई ताजा रपट बेहद चिंताजनक है। बीते वर्ष नवंबर से मार्च के बीच हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में बर्फबारी का स्तर सामान्य से कम होता जा रहा है। आइसीआइएमओडी की ‘2025 हिंदू कुश हिमालय स्नो’ में बताया गया है कि इस पूरे क्षेत्र में सामान्य से कम मौसमी बर्फबारी का लगातार तीसरा वर्ष है। औसतन, बर्फ पिघलने से प्रमुख नदी घाटियों में कुल वार्षिक जल प्रवाह में लगभग 23 फीसद का योगदान होता है। इस वर्ष गंगा के उद्गम क्षेत्र में बर्फबारी का स्तर सामान्य से 24.1 फीसद कम रहा, जो पिछले 23 वर्षों में सबसे कम है।
क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण हिंदू कुश हिमालय पर्वत शृंखला क्षेत्र आठ देशों में लगभग चालीस लाख तीस हजार वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ है। यह दो अरब लोगों के भोजन, पानी और बिजली की सुरक्षा के साथ न जाने कितने तथाकथित विलुप्त तथा दूसरे ऐसे ही वन्यजीवों तथा अनगिनत प्रजातियों का निवास स्थान है।
दिल्ली की नई सरकार दिख रही संजीदा, प्रदूषण पर निगरानी और हकीकत
चिंता की बात है कि जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव पहाड़ों तक पहुंच गया है। इसके कारण वहां तेजी से बर्फ पिघल रही है। कभी जहां बर्फ की मोटी सिल्लीदार परतें दिखती थीं, अब पतली कांच जैसे दिखने लगी हैं। ऐसी बर्फ तेजी से पिघल रही है। अमूमन बर्फ की चट्टानें पहाड़ों पर धीरे-धीरे पिघलती है। मगर चट्टान की शक्ल ले पाएं उससे पहले बर्फ वास्तव में पानी की ही एक अवस्था होती है। जब पानी का तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस या इससे कम हो जाता है, तो वह बर्फ में परिवर्तित हो जाता है। मगर जब यह ऊंचाई पर होता है, तब दाब कम होता जाता है। उसी अनुपात में बर्फ धीरे-धीरे पिघलने की क्रिया होती है। वर्तमान में पर्यावरण विरोधी मानवीय गतिविधियों से ऐसी प्राकृतिक अवस्थाएं बुरी तरह से प्रभावित हो रही हैं जिसके परिणाम सामने हैं।
पिघलते हिमनद से निकलने वाला पानी एक तरह से खतरे की घंटी
निश्चित रूप से यह बेहद गंभीर स्थिति है क्योंकि पिघलते हिमनद से निकलने वाले पानी पर निर्भर जनसंख्या, वनस्पतियां, पशु-पक्षी और दूसरे जीव-जंतुओं के लिए एक तरह से खतरे की घंटी है। सामान्य से कम हिमपात होने का वर्तमान क्रम गर्मियों के शुरू होते ही होना पानी की उपलब्धता के लिए चिंताजनक है। गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु बेसिन कई नदियों के स्रोत हैं। इनसे भारत में लाखों लोगों को जीवन की निर्भरता के लिए अहम पानी मिलता है। अब इन्हीं नदियों के जल्द सूखने के जो संकेत हैं, वह बेहद चिंताजनक हैं। यदि नदियां सूख गईं, तो भयावह तबाही तय है।
हिम स्थायित्व का अर्थ है कि बर्फ कितनी देर तक और अच्छी तरह से बिना पिघले अपने आकार में रह सकता है। यह काफी कुछ उसकी संरचना पर निर्भर करता है। इसके लिए प्राकृतिक परिस्थितियां जिम्मेदार होती हैं जो तापमान, और दूसरे कारकों पर भी निर्भर होता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि जिस तरह से पूरे विश्व में पर्यावरण विरोधी गतिविधियां हो रही हैं, बल्कि बढ़ती जा रही हैं उससे तापमान वृद्धि भी असामान्य होती जा रही है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में पूरी दुनिया इससे प्रभावित है।
अमेरिकी व्यापार नीति बनाम भारतीय किसान, क्या देसी खेती पर मंडरा रहा है संकट?
गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, मेकांग, सालवीन और हेलमंद नदी घाटियों में भी बर्फ का जमाव सामान्य से काफी कम रहा। कुछ घाटियों में तो बर्फ की स्थिति 2003 के बाद से सबसे कम रही। इससे बारह प्रमुख नदी घाटियों में बर्फ का जमाव सामान्य से कम रहा। सबसे अधिक गिरावट घाटियों में दिखी। मेकांग में 51.9 फीसद कम रहा। जबकि सलवीन में यह 48.3 फीसद कम हुआ। तिब्बती पठार में 29.1 फीसद कम, ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में 27.9 फीसद कम, यांग्त्जी में 26.3 फीसद कम और गंगा में 24.1 फीसद कम रहा। इससे समझ आता है कि बर्फ का एक अवधि तक टिकाऊपन क्यों महत्त्वपूर्ण है?
सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के अलावा दस प्रमुख एशियाई नदी प्रणालियां हिंदूकुश हिमालय से ही पोषित होती हैं। इनका फैलाव आठ देशों तक है। इनमें भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, चीन, नेपाल और म्यांमा शामिल हैं। इन क्षेत्रों के लिए वास्तव में यही जीवन रेखा है। लेकिन हालिया रपट में बर्फ की परतों में जबरदस्त कमी आई है। कहीं-कहीं तो यह लगभग 50 फीसद के आस-पास या उससे भी ज्यादा है। वाकई, यह गंभीर और चिंताजनक स्थिति है। लगातार तीन वर्षों से जारी यही स्थिति प्रकृति हितैषी नहीं कही जाएगी। प्राकृतिक रूप से बर्फ पिघलने से गर्म महीनों के दौरान नदियों में निरंतर पानी का प्रवाह रहता है। इसलिए बर्फ का स्थायित्व जरूरी है। यही स्थायित्व अगले मौसम तक के लिए एक तरह का वह संकेत या पैमाना है जो आहट देता है कि बर्फ जमीन पर कितने समय तक रहेगी। इसी से भविष्य में पानी की उपलब्धता का अंदाजा लगाया जाता है।
समय से पहले मानव जनित पर्यावरण विरोधी गतिविधियों के चलते प्रकृति के आंचल में लिपटी बर्फ यदि पिघलती चली जाएगी तो इसके दुष्परिणाम कितने घातक होंगे? नतीजे सामने हैं। आज भी प्रकृति विरोधी गतिविधियों को हम विकास मान जल, जंगल और जमीन के साथ ज्यादती करने से बाज नहीं आ रहे हैं। जमींदोज होते पहाड़, छलनी होती नदियों, रेगिस्तान में तब्दील होते जंगल आज हम देख रहे हैं। क्या हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि अपना जीवन तो बहुत सुकून से गुजार लिया, लेकिन सवाल यह है कि विरासत में हम अपनी पीढ़ियों को क्या देकर जाएंगे?