नस्लवाद और उपनिवेशवाद भले ही कुछ खास कालखंड तक सीमित रहता हो, लेकिन उसका दंश समाज को लंबे समय तक सालता रहता है। इस वर्ष जिस अश्वेत लेखक अब्दुलरजाक गुरनाह को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है, उनका रचनात्मक संसार नस्लवाद और उपनिवेशवाद की पीड़ा को स्वर देता है।

सात अक्तूबर को जब गुरनाह को यह बताया गया कि उन्हें इस साल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया तो उनके मन में सबसे पहले जो बात आई, वह थी कि यह स्वांग या मजाक है। गुरनाह का जन्म 20 दिसंबर 1948 को जंजीबार में हुआ, जो अब तंजानिया में है। जंजीबार में 1960 के दशक एक क्रांति हुई, जिसमें अरब मूल के लोगों का उत्पीड़न किया गया। उन हालात में 18 वर्षीय गुरनाह को विवशता में विस्थापित होकर ब्रिटेन आना पड़।

इंग्लैंड में एक शरणार्थी के रूप में उन्होंने 21 वर्ष की आयु से लेखन प्रारंभ कर दिया और लेखन की भाषा बनाई अंग्रेजी। जबकि, उनकी मातृभाषा स्वाहिली थी। गुरनाह का पहला उपन्यास ‘मैमोरी आॅफ डिपार्चर’ 1987 में प्रकाशित हुआ।

गुरनाह के लिए लेखन के क्या मायने हैं, इसे उनके शब्दों में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, ‘मेरे लिए लेखन के समूचे अनुभव को जो चीज प्ररित करती है, वह है विश्व में आपकी जगह खोने का विचार। गुरनाह ने कहा कि उन्होंने अपने लेखन में विस्थापन तथा प्रवासन के जिन विषयों को खंगाला, वे हर रोज सामने आते हैं। उन्होंने कहा कि वह 1960 के दशक में विस्थापित होकर ब्रिटेन आए थे।

गुरनाह के उपन्यास ‘पैराडाइज’ को 1994 में बुकर पुरस्कार के लिए चयनित किया गया था। उन्होंने कुल 10 उपन्यास लिखे हैं। साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले गुरनाह पांचवें अफ्रीकी लेखक बन गए हैं। इससे पहले नाइजीरियाई लेखक वोले सोयिन्का, मिस्र के नगीब महफूज, दक्षिण अफ्रीका की नादिन गार्डिमेर और जानएम कोट्जी को यह सम्मान मिल चुका है।

गुरनाह ने सरकारों से प्रवासियों को समस्या के रूप में देखना बंद करने का आग्रह किया। गुरनाह (72) ने कहा कि पलायन सिर्फ मेरी कहानी नहीं है, यह हमारे समय की परिघटना है। उपन्यासकार ने कहा कि अपनी मातृभूमि छोड़ने के बाद के दशकों में प्रवासियों की परेशानी कम नहीं होती है। गुरनाह ने कहा कि ब्रिटेन दशकों से नस्लवाद के बारे में अधिक जागरूक हो गया है और उसने अपने शाही अतीत की चर्चा तेज की है।