कुछ समय पहले अयोध्या में दिल दहला देने वाली एक घटना ने भारत में बुजुर्गों की हो रही दुर्दशा सामने रख दी है। कैंसर से पीड़ित बुजुर्ग महिला को उसके ही परिजन रात के अंधेरे में ई-रिक्शा में लाद कर सड़क किनारे छोड़ गए। महिला इतनी लाचार थी कि न तो बोल सकती थी और न ही चल सकती थी। यह पूरी घटना पास में लगे सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गई, जिससे पता चलता है कि किस तरह एक असहाय महिला को सड़क पर छोड़ दिया गया। बाद में उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया।
यह कोई अकेली घटना नहीं है। यह हमारे समाज में बुजुर्गों के प्रति बढ़ती उपेक्षा और अमानवीयता की एक ऐसी परत है, जिसकी तह में हम नहीं जाते और अकसर नजरअंदाज कर देते हैं। पारिवारिक मूल्य जो हमें बुजुर्गों का सम्मान करना सिखाते थे, अब किताबों और रीति-रिवाजों तक ही सीमित रह गए हैं। आज के समय में व्यक्तिवाद अपने चरम पर है और जीवन की गति तीव्र हो गई है, ऐसे में बुजुर्गों की देखभाल को अतिरिक्त जिम्मेदारी या बोझ के रूप में देखा जाता है।
धीरे-धीरे खत्म हो रहे है संयुक्त परिवार
हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहां परंपराएं और आधुनिकता आपस में टकरा रही हैं। संयुक्त परिवार धीरे-धीरे खत्म हो रहे है। उसकी जगह एकल परिवार की संस्कृति ले रही है, जिसमें बुजुर्गों के लिए जगह कम होती जा रही है। आर्थिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत उपलब्धियों की ओर अग्रसर आज की पीढ़ी के लिए समय की कमी और सामाजिक प्रतिबद्धताओं की सीमाएं बुजुर्गों की देखभाल को बोझ बना रही हैं। भारत में बुजुर्गों की जनसांख्यिकी स्थिति भी सामाजिक चुनौती बन रही है।
इस समय भारत में 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लगभग 15 करोड़ तीस लाख लोग हैं और अनुमान है कि 2050 तक यह संख्या 34 करोड़ सत्तर लाख तक पहुंच सकती है। वर्ष 2031 तक बुजुर्गों की आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 20.1 फीसद तक पहुंचने की संभावना है, जिससे हमारे सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे पर भारी दबाव पड़ सकता है।
भारतीय समाज में वृद्धों की उपेक्षा और जीवन के अंतिम चरण की चुनौतियां
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रपट भी यही संकेत देती है कि आने वाले वर्षों में न सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव बढ़ेगा, बल्कि सामाजिक सुरक्षा प्रणालियां और पारिवारिक संरचनाएं भी इस बदलाव से गहराई से प्रभावित होंगी। देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों, खासकर केरल और तमिलनाडु में बुजुर्गों का अनुपात सबसे ज्यादा है, जो दर्शाता है कि इन क्षेत्रों को इस जनसांख्यिकीय बदलाव से निपटने के लिए जल्द से जल्द और प्रभावी रणनीति अपनानी होंगी। स्पष्ट है कि भारत बहुत समय तक युवा राष्ट्र नहीं रह पाएगा। ऐसे में हमारी नीतियों और नजरिए में बदलाव जरूरी है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि ही एकमात्र चिंता का विषय नहीं है। बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार और उपेक्षा की समस्या भी भारत में एक गहरे संकट के रूप में उभर रही है। कई अध्ययनों से पता चला है कि घर के अंदर बुजुर्गों की उपेक्षा की दर 47.5 फीसद है, जबकि घर के बाहर यह आंकड़ा 32 फीसद तक पहुंच जाता है।
वर्ष 2022 में 22 शहरों में किए गए एक अध्ययन में 35 फीसद बुजुर्गों ने कहा कि उनके बेटों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया, 21 फीसद ने बहुओं को दोषी ठहराया, जबकि दो फीसद ने बाहरी सहायकों को दोषी ठहराया। ये आंकड़े बताते हैं कि वृद्ध जनों की सबसे अधिक उपेक्षा उन्हीं लोगों द्वारा की जा रही है, जिनसे उन्हें सबसे अधिक सुरक्षा और स्नेह की अपेक्षा होती है। महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय है। पुरुषों की तुलना में वे मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण का अधिक शिकार होती हैं, खासकर विधवा होने पर जब उनकी सामाजिक और पारिवारिक स्थिति और भी कमजोर हो जाती है।
सरकारी योजनाओं के प्रति जागरूकता और पहुंच भी बेहद सीमित है। वृद्धावस्था पेंशन योजना के बारे में केवल 55 फीसद, विधवा पेंशन योजना के बारे में 44 फीसद और अन्नपूर्णा योजना के बारे में केवल 12 फीसद बुजुर्गों को ही जानकारी है। ये आंकड़े न केवल नीति निर्माण में खामियों की ओर इशारा करते हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि जागरूकता और क्रियान्वयन के स्तर पर हम कितने पीछे हैं। ग्रामीण भारत में स्थिति और भी भयावह है, जहां स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नगण्य है और सामाजिक सुरक्षा तंत्र लगभग नदारद है।
बुजुर्गों की इस स्थिति का मूल कारण केवल आर्थिक या स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं ही नहीं, बल्कि पारिवारिक और सामाजिक ढांचे में आ रहे बदलाव भी हैं। संयुक्त परिवार जो कभी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी हुआ करते थे, आज बिखर चुके हैं। शहरीकरण और वैश्वीकरण के दौर में युवा बेहतर जीवन की तलाश में शहरों और विदेशों का रुख कर रहे हैं, जिससे बुजुर्ग गांवों या छोटे शहरों में अकेले रह जाते हैं।
मध्यम वर्गीय परिवारों को पहले बुजुर्गों की देखभाल का सबसे मजबूत आधार माना जाता था, अब ये खुद आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं।
इलाज, देखभाल और पुनर्वास की बढ़ती लागत उन्हें लाचार बना रही है। महिलाओं की बढ़ती कार्य भागीदारी ने पारंपरिक देखभाल को चुनौती दी है। पहले महिलाएं घर पर बुजुर्गों की देखभाल करती थीं, लेकिन आज उनके पास समय का अभाव है। संपत्ति और उत्तराधिकार को लेकर पारिवारिक विवाद भी बुजुर्गों के लिए अपमानजनक स्थितियां पैदा करते हैं। इन तमाम जटिलताओं के बीच मानसिक स्वास्थ्य ऐसा विषय है, जिस पर न तो समाज खुल कर बात करता है और न ही सरकार पर्याप्त ध्यान देती है। अवसाद, अकेलापन, चिंता और सामाजिक अलगाव जैसे मुद्दे बुजुर्गों की मूक पीड़ा को और गहरा करते हैं। कई बुजुर्ग अपनी पीड़ा नहीं बताते, क्योंकि उन्हें लगता है कि समाज में उनकी कोई आवाज नहीं है। यह चुप्पी तब एक सामाजिक अपराध में बदल जाती है, जब उनकी उपेक्षा को सामान्य मान लिया जाता है।
इसका समाधान सिर्फ सरकारी नीतियों से नहीं निकलेगा। इसके लिए एक समग्र, बहुआयामी और संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता है। वृद्ध जनों के लिए राष्ट्रीय नीति का न केवल प्रभावी क्रियान्वयन हो, बल्कि समय पर उसमें संशोधन भी किया जाए ताकि वह वर्तमान सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप हो। सामुदायिक स्तर पर जागरूकता अभियान चला कर सामाजिक सोच में आवश्यक बदलाव लाया जा सकता है। निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी से वृद्ध आश्रमों की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है और देखभाल के ऐसे तरीके विकसित किए जा सकते हैं जो पारंपरिक और आधुनिक मूल्यों के बीच संतुलन बना सकें।
वृद्ध जनों के साथ दुर्व्यवहार के मामलों में त्वरित न्याय होना चाहिए ताकि समाज को यह स्पष्ट संदेश मिल सके कि उनकी उपेक्षा और शोषण किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। परिवारों और समुदायों के स्तर पर ऐसी संरचनाएं विकसित की जानी चाहिए जो वृद्ध जनों को सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम बना सकें। यदि हम वास्तव में एक विकसित राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा विकास समावेशी हो। कोई भी बुजुर्ग असहाय, अकेला और उपेक्षित न रहे।