इन दिनों वैज्ञानिक शोध और नवाचारों में गहरा दखल रखने वालों के बीच अनुसंधान परिवेश पर गंभीर विमर्श चल रहा है कि इस मद में सरकारी और निजी क्षेत्रों से वित्तीय सहायता अगर सिमटने लगेगी तो नवाचार और वैज्ञानिकों के भविष्य का क्या होगा! शोध-अनुसंधान क्षेत्रों के लिए विश्व भर में वित्तीय सहायता विभिन्न स्रोतों से आती है, जिनमें सरकारी एजंसियां, निजी संस्थाएं और कंपनियां शामिल हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि अनुसंधान तंत्र सही रखते हुए सैद्धांतिक रूप से पूंजी और श्रम की गतिशीलता से सभी प्रतिबंध हटा दिए जाएं, तो दुनिया में प्रति वर्ष अर्थव्यवस्था में 95 लाख करोड़ डालर तक की वृद्धि संभव है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक उच्च-स्तरीय अनुमान है, क्योंकि इसमें अकुशल और कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रतिबंधों में ढील के तमाम लाभ शामिल हैं।

उद्यमशील आविष्कार की गतिविधियों और घनिष्ठ सहयोग के माध्यम से नवाचार को आगे बढ़ाया जाता है। कुशल विदेशी प्रतिभाओं को आकर्षित करने में अमेरिका प्रवासियों की उद्यमशीलता और आविष्कारशील गतिविधि की जांच करने के लिए एक अच्छा अवसर प्रदान करता आ रहा है। लगभग पैंतालीस फीसद कंपनियों की स्थापना आप्रवासी परिवारों से ही संभव हुई है। आज ऐसी तीस लाख से अधिक आप्रवासी प्रतिभाएं कुशल उद्यमी के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। अमेरिका के अलावा यूरोप और एशिया के देशों में भी ऐसा ही चलन देखा गया है।

अनुसंधान कोष में कटौती से वैज्ञानिकों का भविष्य और शोध कार्य में अनिश्चितता

‘वैश्विक चुनौतियां अनुसंधान कोष’ (जीसीआरएफ) विकासशील देशों के जीवन और अवसरों को बेहतर बनाने के सामने खड़ी चुनौतियों के समाधान के लिए अत्याधुनिक अनुसंधानों और नवाचारों का समर्थन करता है। साथ ही, दुनिया के सतत विकास लक्ष्यों में हाथ बंटाता है। अब अमेरिका के अनुसंधान कोष में कटौती के बीच वैज्ञानिकों का भविष्य और शोध कार्य एक बार पुन: अनिश्चितता से घिर गया है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ (एनआइएच), अंतरिक्ष एजंसी नासा, नेशनल साइंस फाउंडेशन (एनएसएफ) आदि प्रमुख एजंसियों के अनुसंधान कोष में ट्रंप सरकार ने अरबों डालर की कटौती कर दी है।

उल्लेखनीय है कि दशकों तक अमेरिका विज्ञान और तकनीक में वैश्विक नेतृत्व करता रहा है। इंटरनेट, मोबाइल फोन, कैंसर और दिल की बीमारियों के इलाज जैसी कई क्रांतिकारी शोध और खोज अमेरिका के विश्वविद्यालयों और अनुसंधान एजंसियों की देन रही हैं, लेकिन अब पहली बार वैज्ञानिक समुदाय के बीच एक असुरक्षा की भावना फैल रही है, खासकर युवा शोधकर्ताओं के बीच, जिनका भविष्य वित्तीय मदद पर टिका होता है। इस बीच, फ्रांस और जर्मनी जैसे कई देश अमेरिकी वैज्ञानिकों को यह भरोसा दिला रहे हैं कि उनके शोध में कोई राजनीतिक या वैचारिक अड़ंगा नहीं होगा। इन योजनाओं में अमेरिकी वैज्ञानिकों की भी दिलचस्पी देखी जा रही है।

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कई देशों ने अपने प्रतिभा परिदृश्य में बेहतर सुधार किए हैं, जबकि कुछ के लिए यह क्षेत्र एक चुनौती बना हुआ है। अमेरिका अपने उत्कृष्ट वैज्ञानिकों और कुशल तकनीकी प्रतिभाओं के लिए जाना जाता है। कनाडा लीड्स ने तो इस दिशा में गंभीर पहल करते हुए अपने देश के लिए एक भर्ती अभियान शुरू किया है, जिसका उद्देश्य अमेरिका से युवा वैज्ञानिकों को आकर्षित करना है। स्विट्जरलैंड को दुनिया का सबसे प्रतिभा-प्रतिस्पर्धी देश माना जाता है, क्योंकि यह कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने, आकर्षित करने और बनाए रखने की क्षमता के लिए जाना जाता है।

वैश्विक असमानताएं सतत विकास लक्ष्यों तक पहुंचने में एक बाधा बन सकती हैं। अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और विकसित करने के लिए प्रतिभाओं को आकर्षित करने की आज हर देश की प्राथमिक आवश्यकता है। दुनिया भर में एआइ, हरित ऊर्जा, रोबोटिक्स और अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कौशल रखने वाली प्रतिभाओं की मांग बढ़ रही है। इसके लिए प्रतिस्पर्धा मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों में चल रही है- विज्ञान और प्रौद्योगिकी, वाणिज्यिक नवाचार और शिक्षा। अधिकतर सरकारों ने सामरिक उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन प्रतिभा में सार्थक भू-राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए साहसिक, नए और रणनीतिक उपायों की जरूरत होती है। हालांकि, अधिकांश देश वैश्विक प्रतिभा का दोहन करने के लिए वृद्धिशील और सामरिक दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन शुरुआती संकेत बताते हैं कि अत्यधिक कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रतिस्पर्धा भू-राजनीतिक क्षेत्र में स्थानांतरित होने लगी है।

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प्यू अनुसंधान केंद्र के अनुसार, दस में से आठ लोग आप्रवास सुधार का समर्थन करते हैं, जो मांग में कुशल प्रतिभाओं के पक्ष में हैं। दूसरी तरफ, ट्रंप प्रशासन अत्यधिक कुशल प्रतिभाओं के लिए योग्यता-आधारित प्रणाली के तहत अवैध अप्रवास पर नकेल कसता जा रहा है। इस बीच, जापान और कई यूरोपीय व मध्य पूर्वी देशों की कुशल अप्रवासियों के लिए अपनी सीमाएं खोलने में दिलचस्पी है, लेकिन उनके प्रयास प्राय: लालफीताशाही के कारण बाधित होते रहे हैं।

इसी क्रम में चीन ने तो 2008 में ही प्रतिभा योजना शुरू की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी में चीनी मूल की प्रतिभाओं को अन्य देशों से वापस लाना है, ताकि नवाचार को बढ़ावा दिया जा सके और देश को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में मजबूत किया जा सके। यूरोपीय संघ और ब्रिटेन की एआइ कंपनियां प्रतिद्वंद्वी देशों से उदार प्रस्तावों के साथ संपर्क में हैं, जिसमें सबसिडी, कर छूट और विनियमन शामिल हैं।

कई देश अपने विश्वविद्यालयों में छात्रों और शोधकर्ताओं को आकर्षित कर भू-राजनीतिक बढ़त चाहते हैं। जर्मनी अंतरराष्ट्रीय शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से महत्त्वाकांक्षी छात्रवृत्ति कार्यक्रम चला रहा है। वह हर वर्ष 200 देशों के लगभग डेढ़ लाख छात्रों और शोधकर्ताओं को अनुदान देता है। एक सच्चाई यह भी है कि आधुनिक वैश्विक होड़ में विकास, प्रतिभा से आगे निकलता जा रहा है। विकसित दुनिया के अधिकांश भाग में धीमी वृद्धि और राजकोषीय मितव्ययिता के कारण कई कंपनियों को कुछ उभरते बाजारों की मजबूत अर्थव्यवस्थाएं और बढ़ती आय काफी आकर्षक लग रही है, लेकिन इसमें एक जटिलता है। ब्राजील, रूस, भारत और चीन जैसे देशों में प्रतिभा खोज और उसे बनाए रखना तेजी से मुश्किल होता जा रहा है।

ऐसे में शोध-समर्थित ढांचा नीति निर्माताओं को बेहतर कामयाबी की दिशा में ले जा सकता है, जबकि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का रुख प्रवासी प्रतिभाओं को सक्रिय रूप से मजबूत आकार देने के बजाय बहुधा प्रतिक्रियात्मक है। दूसरी तरफ, चौंकाने वाला सच यह भी है कि पिछले दशकों में विविध नवाचार-प्रयासों का अपेक्षित लाभांश नहीं मिला है। ऐसे में कुशल प्रतिभाओं के लिए प्रवासन रणनीति को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। व्यापक सैद्धांतिक और अनुभवजन्य शोध का लाभ उठाने के लिए वैश्विक प्रतिभा-प्रवास सूचकांक विकसित करना होगा।

हालांकि, बाजार की ताकतें निश्चित रूप से परिणामों को प्रभावित कर रही हैं, लेकिन दुर्लभ प्रतिभा-संसाधनों का असमान वितरण बाधक साबित हो रहा है। ऐसे में कुशल आप्रवासी प्रतिभाओं की राह में रोड़े बिछाने के लिए वैज्ञानिक शोध-अनुसंधानों और नवाचारों की वित्तीय मदद बाधित करना कितना विवेक सम्मत है, इसे स्वत: ही समझा जा सकता है।