गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई और उसका गुट चर्चा में है। बाबा सिद्दीकी की हत्या मामले में जांच के दौरान मुंबई पुलिस ने आरोप लगाया कि उन्हें गोली मारने के आरोपी दो लोगों का लॉरेंस बिश्नोई गुट से संबंध है। लॉरेंस बिश्नोई वर्तमान में सीमा पार से नशीली दवाओं की तस्करी के एक मामले में गुजरात की साबरमती जेल में बंद है। अप्रैल में मुंबई में अभिनेता सलमान खान के आवास के बाहर गोलीबारी के मामले में भी उनका नाम सामने आया था, लेकिन मुंबई पुलिस उसकी हिरासत नहीं ले सकी थी।

आमतौर पर मुकदमे का सामना कर रहे व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए उसके खिलाफ कार्यवाही में शामिल होने के लिए अदालत में लाया जाता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा 267 के तहत एक आपराधिक अदालत को जांच, मुकदमे या अन्य कार्यवाही के दौरान इसके लिए आदेश जारी करने का अधिकार है। हालांकि बिश्नोई से पूछताछ करने की इच्छुक कोई भी जांच एजेंसी केवल जेल परिसर के भीतर ही उससे मिल सकती है।

जांच एजेंसियों को बिश्नोई की हिरासत लेने से कौन रोकता है?

अगस्त 2023 में, गृह मंत्रालय ने बिश्नोई के संदर्भ में एक आदेश जारी किया, जिसमें उसे किसी भी उद्देश्य के लिए जेल से बाहर ले जाने पर रोक लगा दी गई। यह सीआरपीसी की धारा 268 के तहत था और एक साल के लिए प्रभावी था। अगस्त 2024 में सीआरपीसी की जगह लेने वाली नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 303 के तहत इसे एक और साल के लिए बढ़ा दिया गया था।

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इसके बाद बिश्नोई को अदालत में पेश करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है और उस तक पहुंच चाहने वाली किसी भी एजेंसी को केवल जेल परिसर के भीतर ही उससे पूछताछ करने के लिए अदालत से आदेश प्राप्त करना होगा।

क्या कहता है आदेश?

सीआरपीसी की धारा 268 ने राज्य सरकारों को कुछ कैदियों को धारा 267 के क्रियान्वयन से बाहर करने की शक्ति दी। बीएनएसएस की धारा 303 के तहत, केंद्र सरकार (एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसियों द्वारा स्थापित मामलों में) और राज्य सरकारें सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्देश दे सकती हैं कि किसी भी व्यक्ति को जेल से नहीं हटाया जाएगा।

बीएनएसएस की धारा 303(2) धारा को लागू करने के लिए तीन क्राईटेरिया स्थापित किए गए हैं। पहला कि अपराध की प्रकृति जिसके लिए व्यक्ति को जेल में कैद या हिरासत में रखने का आदेश दिया गया है। दूसरा है कि यदि कैदी को जेल से निकालने की अनुमति दी गई तो सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी की संभावना हो सकती है। तीसरा आम तौर पर पब्लिक इंटरेस्ट है। जांच एजेंसियों का तर्क है कि जेल में किसी व्यक्ति से पूछताछ सीमित हो सकती है, क्योंकि केवल एक या दो अधिकारियों को ही कुछ घंटों या एक विशिष्ट अवधि के लिए व्यक्ति से पूछताछ करने की अनुमति दी जा सकती है। अन्य आरोपियों को पूछताछ के दौरान नहीं लाया जा सकता।

ऐसे आदेश कब लागू किये जा सकते हैं?

सरकारों ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए आशंका व्यक्त की है कि यदि व्यक्ति को जेल से बाहर जाने दिया गया, तो वे भागने का प्रयास कर सकते हैं या उनका जीवन खतरे में पड़ सकता है। अधिकारी व्यक्ति के आपराधिक इतिहास का भी हवाला देते हैं और यदि उनके खिलाफ कई मामले लंबित हैं, तो कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा होने का तर्क दिया जा सकता है।

मई 2013 में महाराष्ट्र ने अदालत के समक्ष ज़बीउद्दीन अंसारी उर्फ ​​अबू जुंदाल की पेशी को प्रतिबंधित करने के लिए सीआरपीसी की धारा 268 को लागू करते हुए एक सरकारी प्रस्ताव (GR) पारित किया। 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले के मामले में एक आरोपी के खिलाफ मामले की प्रकृति का हवाला जीआर के लिए दिया गया था।

इसके बाद अंसारी ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जीआर को रद्द करने की मांग की। उसने कहा कि वह अदालत में पेश होना चाहता है और उसे निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है। अदालत ने उसकी याचिका खारिज कर दी और कहा कि मामले की संवेदनशील प्रकृति को देखते हुए वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अंसारी को जेल से वीडियो लिंक के माध्यम से मुकदमे में शामिल होने की अनुमति दी। कई बार अदालतों ने राज्य सरकार के आदेशों को रद्द कर दिया है।

गुजरात सरकार ने 2014 में एक सर्कुलर जारी किया, जिसमें राज्य में कैदियों की आवाजाही को प्रतिबंधित करने के लिए दिशानिर्देश दिए गए। इसमें कहा गया कि पुलिस को कैदी के आचरण और मामले की गंभीरता पर विचार करने के बाद आरोपी व्यक्ति की गतिविधि पर स्पष्ट राय देनी चाहिए। इसके अलावा ऐसे मामलों में जहां व्यक्ति ऐसे आदेश का सामना करता है, तुरंत सुनवाई की व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह लंबे समय तक बिना सुनवाई के जेल में न रहे।