आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी की शुक्रवार को पुण्यतिथि है। पेशे से पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्रकारिता का आदर्श माना जाता है। जैसी उनकी शख्सियत थी, मौत भी उन्होंने उसी तरह चुनी थी। आजादी के पहले फैले एक दंगे को रोकते वक्त उनकी जान ले ली गई थी। उनके निधन पर तब महात्मा गांधी ने कहा था कि उन्हें भी वैसी ही मौत मिले।

शुरुआती यात्रा- गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को यूपी में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई उर्दू में हुई। स्कूली पढ़ाई खत्म करके वो इलाहबाद चले गए, लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करनी पड़ी। यहीं से उनका झुकाव पत्रकारिता की तरफ हुआ। सबसे पहले उन्होंने साप्ताहिक अखबार कर्मयोगी के संपादन में सहयोग किया। इसके बाद कानपुर के करेंसी ऑफिस में नौकरी की और साथ ही साथ लेख भी लिखते रहे। लिखने के दौरान उन्होंने विद्यार्थी नाम को अपना लिया।

प्रताप की स्थापना: 1913 में गणेश शंकर कानपुर वापस आए। यहां उन्होंने एक पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। यहीं से उनका मन स्वतंत्रता आंदोलन की ओर भी तीव्र गति से मुड़ा। प्रताप की स्थापना के बाद उसमें लिखे लेख और उनके विचार ने इन्हें बहुत जल्द पहचान दिला दी और क्रांतिकारियों के लिए प्रताप का ऑफिस शरणगाह भी बन गया। पुलिस की नजर भी इनपर बनी रही लेकिन वो अपना काम बिना डरे करते रहे। पहले बटुकेश्वर दत्त और फिर भगत सिंह के साथ उनका संपर्क हुआ। गांधी के रास्ते चलने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी अब क्रांतिकारियों के मार्ग पर भी चलने लगे। हालांकि हिंसा के खिलाफ ही वो रहे। लेकिन क्रांतिकारियों की मदद करते रहे।

पांच बार जेल- अपने लेखों और स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर विद्यार्थी जी को पांच बार जेल जाना पड़ा। एक मामले में तो पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, श्री कृष्ण मेहता जैसे नामी लोगों ने इनके पक्ष में गवाही दी, लेकिन फिर भी अंग्रेजी हुकुमत ने उन्हें जेल में डाल दिया।

दंगों में मौत- यह बात सन् 1931 की है। कानपुर में दंगा फैला हुआ था। दरअसल 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई थी, उसी के विरोध में पूरे देश में बंद बुलाया गया था। इसी बंद के दौरान कानपुर में हिंसा भड़क उठी, जिसे रोकने के लिए वो सड़कों पर निकल पड़े। कई जगह वो इसे रोकने में सफल भी रहे, लेकिन एक जगह दोनों ओर से उन्हें दंगाईयों ने घेर लिया। उनके साथ मौजूद लोगों ने उन्हें बचाने के लिए वहां से निकालने की कोशिश की लेकिन वो वहीं डटे रहे। उन्होंने कहा कि एक ना एक दिन तो सबको मरना ही है। इसके बाद भीड़ ने चाकू और कुल्हाडी से मार-मार कर उनकी जान ले ली। दो दिन बाद उनकी लाश मिली तो पहचानना मुश्किल हो गया था।

खुद को जब किया वर्णित- उनका छोटा जीवन उत्पीड़न और अमानवीयता के खिलाफ निरंतर संघर्ष के रूप में बीता। उन्होंने खुद को इन शब्दों में वर्णित किया था- “मैं दमन और अन्याय के खिलाफ एक सेनानी हूं, चाहे वो नौकरशाहों, जमींदारों, पूंजीपतियों या उच्च जाति के लोगों द्वारा किया जाए। मैंने जीवन भर अत्याचार के खिलाफ, अमानवीयता के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और ईश्वर मुझे आखिरी तक लड़ने की शक्ति दे”।

क्या बोले बापू- लेखक पीयूष बबेले के अनुसार गांधी जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत पर कहा कि उनकी मृत्यु एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए हुई है कि ऐसी मृत्यु से उन्हें ईर्ष्या होती है। गांधीजी ने कहा कि ऐसी मौत तो बहुत ही फक्र की बात है और उन्हें भी ऐसी ही मौत मिले।