पुण्य प्रसून वाजपेयी

शरद पवार ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए समर्थन की घोषणा क्यों की? क्या भाजपा भी शिवसेना से पल्ला झाड़कर हिंदुत्व के तमगे से बाहर निकलना चाहती है। या फिर महाराष्ट्र की सियासत में बाला साहेब ठाकरे के वोट बैंक को अब भाजपा हड़पना चाहती है जिससे उसे भविष्य में गठबंधन की जरूरत न पड़े। या फिर पवार को राजग में लाकर नरेंद्र मोदी अजेय हो सकते हैं। महाराष्ट्र के नतीजे आने के बाद बन रहे समीकरण ने जता दिया है कि भविष्य में पवार और मोदी निकट आएंगे। कांग्रेस से पल्ला झाड़ कर शरद पवार अब जिस राजनीति को साधने निकले हैं उसमें शिवसेना तो उलझ सकती है, पर क्या भाजपा भी फंसेगी? यह सबसे बड़ा सवाल बनता जा रहा है। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई सलाह तो नहीं दे रहा है लेकिन उसके संकेत गठबंधन तोड़ने के खिलाफ हैं। यानी शिवसेना से दूरी रखी जा सकती है, लेकिन उसे खारिज नहीं किया जा सकता।

 
संयोग से इन्हीं सवालों ने भाजपा के भीतर मुख्यमंत्री पद को लेकर उलझनें बढ़ा दी हैं। पंकजा मुंडे शिवसेना की चहेती हैं। देवेंद्र फडणवीस राकांपा की सियासत के खिलाफ हैं। वे राकांपा के भ्रष्टाचार की हर अनकही कहानी को विधानसभा से लेकर चुनाव प्रचार तक में उठाकर नायक भी बने रहे। इस कतार में खड़े विनोड तावड़े हों या मुनगंटीवार या खडसे, कोई भी महाराष्ट्र की कारपोरेट सियासत को साध पाने में सक्षम नहीं है। ऐसे में एक नाम नीतिन गडकरी का सामने आता है। उनके रिश्ते शरद पवार से खासे करीबी हैं। लेकिन महाराष्ट्र की कुर्सी पर नीतिन गडकरी बैठें यह मोदी और अमित शाह क्यों चाहेंगे, यह अपने-आप में सवाल है, क्योंकि गडकरी मुख्यमंत्री बनते हैं तो उनकी राजनीति का विस्तार होगा, लेकिन दिल्ली की सियासत ऐसा चाहेगी नहीं।

 
दिलचस्प यह है कि शरद पवार ने भाजपा को खुला निमंत्रण देकर तीन सवाल खड़े कर दिए हैं। पहला शिवसेना नरम हो जाए। दूसरा सत्ता में आने के बाद भाजपा बदला लेने के हालात पैदा ना करे। यानी राकांपा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को भाजपा रेड कारपेट के नीचे दबा दे। और तीसरा भविष्य में भाजपा के खिलाफ तमाम मोदी विरोधी नेता एकजुट न हों। यानी पवार के गठबंधन को बांधने की ताकत को नरेंद्र मोदी भाजपा के भविष्य के लिए भी मान्यता दे दें। पवार के इस कदम का असर शिवसेना पर पड़ने भी लगा है। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ के संपादकीय बोर्ड में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। ‘सामना’ की भाषा ने पहले प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पर रखा और अब अपने हर शब्द से पल्ला झाड़ लिया। सेना ने संजय राउत की जगह सुभाष देसाई और लीलाधर ढोके को सामना की संपादकीय टीम की अगुआई करने के संकेत दिए हैं।

 
पवार के कदम का दूसरा असर देवेंद्र फडणवीस पर मुंबई पहुंचते ही पड़ा। शाम होते-होते देवेंद्र जिस तेवर से राकांपा का विरोध करते रहे, उसमें नरमी आ गई। पवार के कदम का तीसरा असर यह था कि भाजपा के विस्तार के लिए एकला चलो के नारे को पीछे कर गठबंधन को विस्तार का आधार बनाने पर संसदीय बोर्ड में भी चर्चा होने लगी। यानी भाजपा के फायदे के लिए तमाम विपक्षी राजनीति को भी अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है। यह नई समझ भी विकसित हुई। यानी गठबंधन की जरूरत कैसे सत्ता के लिए विरोधी दलों की है यह संदेश जाना चाहिए। यानी जो स्थिति कभी कांग्रेस की थी उस जगह भाजपा पहुंच गई है।

 

क्षत्रपों की राजनीति मुद्दों के आधार पर नहीं बल्कि भाजपा विरोध पर टिक गई है। यानी ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा राजनीतिक तौर पर कैसे भाजपा को पूरे देश में विस्तार दे सकता है, इसके लिए महाराष्ट्र के समीकरण को ही साधकर सफलता भी पाई जा सकती है। यानी बिहार में तमाम राजनीतिक दलों की एकजुटता या फिर उत्तर प्रदेश में मायावती के चुनाव न लड़ने से मुलायम को उपचुनाव में होने वाले लाभ की राजनीति की हवा निकालने के लिए भाजपा पहली बार महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए होने वाले गठबंधन को महाप्रयोग के तौर पर आजमाना चाह रही है। जिससे अगली खेप में झारखंड को भी पहले से ही साधा जा सके। और भविष्य में बिहार और उत्तर प्रदेश में विपक्ष की गठबंधन राजनीति को साधने में शरद पवार ही ढाल भी बने और हथियार भी। यानी जो पवार कभी हथेली और आस्तीन के दांव में हर किसी को फांसते रहे, उसी हथेली और आस्तीन को इस बार भाजपा आजमा सकती है।