चार दशक से भी ज्यादा समय तक देश और दुनिया में मेरठ की धमक ध्वजा फहराने वाला ‘पॉकेट बुक्स’ कारोबार अब तकरीबन दम तोड़ चुका है। न इस कारोबार में नए लेखक आ रहे हैं और न कोई प्रकाशक ही जोखिम लेने को तैयार है। किताबों के ग्राहक गायब हो जाने से यह नौबत आई है। मेरठ की पहचान इस क्षेत्र के नामचीन लेखकों के कारण जितनी थी, उससे कम यहां इस कारोबार से जुड़े प्रकाशकों के कारण भी नहीं थी। ओमप्रकाश शर्मा, रितुराज और वेदप्रकाश शर्मा का नाम एक दौर में हर पाठक की जुबान पर मिलता था। लेकिन पिछले दो दशक के दौरान यह कारोबार लगातार चौपट होता गया।
छा गए रितुराज
‘रितुराज’ के उपनाम से शोहरत पाने वाले सुरेश जैन ने दोहरी भूमिका निभाई। उन्होंने लेखन को शुरू में शौक के तौर पर अपनाया था। फिर अपनी ही रचना को छापने के चक्कर में 1972 में कंचन पॉकेट बुक्स के नाम से अपना प्रकाशन भी शुरू कर दिया। तब वे कर्नल सुरेश के नाम से लिखते थे। पहली किताब का शीर्षक था- खूनी शतरंज। देखते ही देखते यह किताब हजारों की संख्या में बिक गई। फिर तो सुरेश जैन ने कर्नल सुरेश छोड़ रितुराज नाम रख लिया और अपने उपन्यासों को सामाजिक-पारिवारिक बता धुआंधार लेखन कर खासी ख्याति पाई।
रितुराज को इस विधा के मेरठ के इतिहास की पूरी जानकारी है। दौर 1950 का था। तब ऐसी ज्यादातर किताबें इलाहाबाद या दिल्ली से प्रकाशित होती थी। लेखक भले अपनी रचनाओं को जासूसी, सामाजिक या रोमांचक बताकर खुद पर गर्व करते रहे हों पर मुख्यधारा के साहित्यकारों ने इन लेखकों को कभी साहित्यकार नहीं माना। ऐसे जासूसी उपन्यास उनकी नजर में लुगदी साहित्य से ज्यादा कुछ नहीं थे।
यह बात अलग है कि देशभर में इन किताबों के दीवाने लाखों-करोड़ों थे, जो अपने पसंदीदा लेखकों गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी, ओमप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कांबोज, परशुराम शर्मा, रानू, रितुराज और सुरेंद्र मोहन पाठक की नई किताब के लिए उत्सुक रहते थे। बस अड्डे और रेलवे स्टेशनों के बुक स्टाल इन किताबों के मुख्य केंद्र थे। इनके पाठक इस हद तक लती थे कि घंटे-दो घंटे में ही दो सौ पन्नों की किताब को निपटा देते थे। बुक स्टाल पर लेखक की नई किताब के बारे में वे हर दिन पूछताछ करते थे।
संतति के खत्री
इस धंधे के मसीहा माने जाते हैं देवकीनंदन खत्री, जिनकी किताबोें की बाकायदा शृंखला प्रकाशित होती थी। वाराणसी से नाता था खत्री का। उनकी किताबों में अद्भुत रोमांच, कौतुक, पहेलियां और रहस्य की भरमार होने के कारण उनका जो भी पाठक वर्ग था, वह पूरे चाव से उनकी किताबें पढ़ता था। खत्री के चर्चित उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ पर दूरदर्शन ने धारावाहिक प्रसारित किया था तो दर्शक संख्या के सारे रिकार्ड टूट गए थे। बहरहाल, जहां तक मेरठ का संबंध है, इस व्यवसाय का जनक नरेश जैन को माना जाता है। बात 1955 की है।
नरेश जैन रोडवेज बस अड्डे पर बुक स्टाल चलाते थे। तब ये किताबें इलाहाबाद और दिल्ली से छपकर आती थीं। सबसे ज्यादा बिकते थे-पाकिस्तानी लेखक इब्ने शफी बीए। उनकी किताबों का हिंदी में अनुवाद छपता था, जिसकी बेतहाशा बिक्री से प्रभावित नरेश जैन ने कमल पॉकेट बुक्स के नाम से अपना प्रकाशन व्यवसाय शुरू किया और जासूसी किताबें छापने लगे। फिर वेदप्रकाश कांबोज को छापना शुरू कर दिया।
उस दौर में ज्यादातर लेखक छद्म नाम से लिखते थे। किताबें छपने से पहले खरीद के अग्रिम आदेश आ जाते थे। नरेश जैन की देखा-देखी उनके दोस्त तिलक चंद जैन भी इस कारोबार में कूद पड़े। अपने तीन भाइयों के साथ मिलकर उन्होंने अपने प्रकाशन का नाम रखा- सीक्रेट सर्विस। उस दौर में ओमप्रकाश शर्मा का बड़ा नाम था। उनकी किताबें इलाहाबाद से छपती थी।
मेरठ में इनका प्रकाशन शुरू हुआ तो शर्मा ने भी अपने बेटे का प्रकाशन खुलवा दिया। नाम था- जनप्रिय लेखक प्रकाशन। शर्मा के बाद मेरठ में जन्मे वेदप्रकाश शर्मा ने तो इस विधा में नए झंडे ही गाड़ दिए। हालांकि इससे पहले गुलशन नंदा और रानू काफी नाम कमा चुके थे। गुलशन नंदा के कई उपन्यासों पर तो बॉलीवुड ने फिल्में भी बनाई जो खासी लोकप्रिय हुई। मसलन, राजेश खन्ना की फिल्म ‘कटी पतंग’ नंदा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी।
फलता-फूलता व्यवसाय
तिलकचंद जैन की सीक्रेट सर्विस के बाद उन्हीं के भाइयों सुमत प्रसाद जैन, धनेंद्र जैन और अरुण जैन ने भी नूतन पॉकेट बुक्स, राधा पॉकेट बुक्स, प्रभात पॉकेट बुक्स, धीरज पॉकेट बुक्स व रवि पॉकेट बुक्स शुरू की तो दिल्ली में राज पॉकेट बुक्स और मनोज पॉकेट बुक्स ने भी इस कारोबार को चार चांद लगाए। हालांकि यहां हिंद पॉकेट बुक्स पहले से था और उसकी खासी धाक भी थी।
एक बेहद गरीब परिवार में जन्मे वेदप्रकाश शर्मा ने अपनी पहली किताब छपवाने के लिए वेदप्रकाश कांबोज से भी संपर्क किया था। पर अनजान लेखकों को उनके नाम से छापने का जोखिम कोई प्रकाशक आसानी से नहीं उठाता था। शर्मा को आगे बढ़ाया दिया उपन्यासकार रितुराज ने। जो तब तक अपना कंचन पॉकेट बुक्स शुरू कर चुके थे।
इसी प्रकाशन से वेदप्रकाश शर्मा का पहला उपन्यास ‘दहकते शहर’ 1973 में छपा था। फिर तो उनके लेखन का सिलसिला ऐसी रफ्तार पकड़ा कि पाठकों पर उनका जादू ही छा गया। वेदप्रकाश शर्मा और रितुराज ने मिलकर 1987 में तुलसी पॉकेट बुक्स की स्थापना की और अपने ही नहीं, दूसरे लेखकों के उपन्यास भी छापने लगे। वेदप्रकाश शर्मा को ज्यादा शोहरत मिली ‘वर्दी वाला गुंडा’ और ‘वो साला खद्दर वाला’ जैसे उपन्यासों से।
रितुराज बताते हैं कि ‘वर्दी वाला गुंडा’ की तो तीन लाख प्रतियां बिकीं। उस दौर में ज्यादा रफ्तार वाली छपाई मशीन भी नहीं थी। लिहाजा इस किताब को कई बार छापना पड़ा। पुराने लोग आज भी बता सकते हैं कि कैसे इन किताबों को पढ़ने का नशा पाठकों को जेब में पैसे नहीं होने पर गली-मोहल्ले में खुले पुस्तकालयों से किराए पर पढ़ने की सुविधा देता था। पर जैसे-जैसे टीवी चैनलों का विकास और विस्तार गति पकड़ता गया, मेरठ का यह पॉकेट बुक्स कारोबार भी सिमटता चला गया।
बदला दौर, सिमटा कारोबार
2005 के बाद तो ज्यादातर प्रकाशकों ने या तो अपने कारोबार बदल लिए या फिर वे धंधे के डूब जाने से बेरोजगार हो गए। समस्या लेखकों के सामने और भी गंभीर हुई। सुरेंद्र मोहन पाठक 82 साल के हैं। लिखना चाहते हैं पर अब पाठक ही नहीं बचे। पिछले साल जनवरी में उनकी आखिरी किताब आई थी- काला नाग। फिर कोरोना का संक्रमण हो गया। इस दौरान न उन्होंने कुछ लिखा और न कोई छापने वाला सामने आया।
मेरठ में धीरज पॉकेट बुक चला रहे राकेश जैन का कहना है कि सुरेंद्र मोहन पाठक का 1990 में राधा पॉकेट बुक से उन्होंने जो उपन्यास ‘जहाज का पंछी’ प्रकाशित किया था, वह दो लाख बिका था। आज हालत इतनी खराब है कि किसी लेखक की नई किताब एक हजार से ज्यादा संख्या में छापना जोखिम उठाना है। ले-देकर कुछ पुरानी किताबों की ही उनके पास मांग आती है तो उसी पर टिका है कारोबार।
बीत गया स्वर्णकाल
पॉकेट बुक की ही क्यों प्रसार संख्या तो पत्रिकाओं की भी सिमट गई है। रेलवे स्टेशनों और रोडवेज बस अड्डों पर अब बुक स्टाल भी खत्म हो रहे हैं। एएच व्हीलर्स का बुक स्टाल मुख्य काम था पर उसने अब अपने ऐसे बुक स्टाल को या तो बंद कर दिया या फिर ‘मल्टी पर्पज स्टोर’ में बदल दिया। टीवी चैनलों ने तो इस धंधे को सीमित किया ही था पर मोबाइल फोन ने तो इसके ताबूत में आखिरी कील ही ठोक दी।
थोड़ी राहत इन प्रकाशनों को एमेजान और फ्लिपकार्ट जैसी ई-कामर्स कंपनियों की वजह से है। जिनके माध्यम से सीमित ही सही यह कारोबार आॅनलाइन चल रहा है। ओमप्रकाश शर्मा का तो काफी पहले ही निधन हो गया था पर वेदप्रकाश शर्मा भी कैंसर के कारण 2017 में महज 62 साल की उम्र में ही इस दुनिया से विदा हो गए।
कोरोना की मार
जहां तक कोरोना के प्रभाव का सवाल है, इस महामारी ने तो समूचे प्रकाशन व्यवसाय की ही कमर तोड़ दी है। कहां तो इस कारोबार का 1950 से 1990 के दौर में स्वर्णकाल था, जब रेलगाड़ी में सफर के लिए रवाना होने या बस में सवार होने से पहले ज्यादातर मुसाफिर ऐसा कोई न कोई उपन्यास जरूर खरीदते थे। एक तो इससे समय आसानी से कटता था, दूसरे इन्हें पढ़ने वाले पाठकों को इससे मनोरंजन का सुख भी मिलता था।
कोरोना के कारण किताबों की बिक्री नब्बे फीसद तक घट गई। रेलगाड़ी में सफर तो लोग आज भी पहले से ज्यादा करते हैं पर अब उनके हाथ में पॉकेट बुक नहीं मोबाइल फोन होता है। कोरोना के कारण पहले तो पूर्णबंदी रही और फिर स्थिति सुधरी भी तो ज्यादातर सामान्य पैसेंजर गाड़ियां अभी भी नहीं चली हैं। सो थोड़ा बहुत पाठक वर्ग था भी तो नदारद हो गया। राजा पॉकेट बुक्स दिल्ली के स्वामी मनोज गुप्ता को इस कारोबार का अब सूर्यास्त ही नजर आ रहा है।
सुरेंद्र मोहन पाठक की तरह ही दिल्ली के अनिल मोहन को भी अपनी नई किताब नहीं आ पाने का अफसोस है। इस धंधे की एक समस्या यह भी है कि प्रकाशक लेखकों को उनके एकमुश्त पारिश्रमिक का भुगतान कर प्रकाशन अधिकार पहले भी अपने पास रखते थे। लिहाजा रायल्टी का इस कारोबार में इन लेखकों के लिए आम तौर पर कभी प्रावधान रहा ही नहीं।