भारतीय राजनीति में रिश्ते, विरोध और महत्त्वाकांक्षा टकरा रहे हैं। कहीं पिता-पुत्र की लड़ाई सामने है, तो कहीं विपक्ष एकजुटता के बावजूद व्यक्तिगत बयानबाज़ी में उलझा है। पहलगाम जैसे आतंकी हमले पर जनता का गुस्सा भी अब मुखर है, लेकिन कुछ नेता इसे भी सियासी हथियार बना रहे हैं। उधर, सत्ता के समीकरण बदलने की कवायदें भी पूरे जोर पर हैं।

पिता-पुत्र विवाद

उत्तर और पश्चिम भारत में तो आमतौर पर चाचा-भतीजे के विवाद ही हुए हैं राजनीति में। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का चाचा शिवपाल यादव से हुआ विवाद हो या महाराष्ट्र में अजित पवार का अपने चाचा शरद पवार से। महाराष्ट्र में राज ठाकरे का चाचा बाल ठाकरे से विवाद रहा हो या गोपीनाथ मुंडे की बेटियों का अपने चचेरे भाई से। लेकिन दक्षिण के सियासी परिवारों में रिवाज पिता-पुत्र के झगड़ों का ही दिखता है। तमिलनाडु में करुणानिधि का अपने बेटे से हुआ विवाद जगजाहिर है। इसी सूबे में रामदास परिवार में भी विवाद हुआ था। कर्नाटक में देवगौड़ा का भी अपने बेटे से विवाद रहा है। अब तमिलनाडु में ही एक और पार्टी के पिता-पुत्र आपस में भिड़ रहे हैं। एमडीएमके के वाइको के बेटे दुरई ने पार्टी के सचिव पद से इस्तीफा दे दिया है और संगठन से अलग हो गए हैं। वे अभी त्रिचि सीट से लोकसभा सदस्य हैं। सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में बेटे के इस्तीफे पर वाइको खुद हैरान हैं। बेटे को पार्टी के उन नेताओं से नाराजगी है, जिन्हें उनके पिता अहमियत देते हैं। यानी इस्तीफे के पीछे दबाव बनाने की रणनीति भी हो सकती है। राजनीति महत्त्वाकांक्षी होती है और रिश्ते नहीं देखती। दक्षिण भारत में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं पिता और पुत्र को भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दे रही हैं।

ममता का दांव

पहलगाम के आतंकी हमले के बाद सारे देश में एकजुटता नजर आई है। देश का हर नागरिक इस बर्बर घटना की खुलकर निंदा कर रहा है। विपक्षी दलों ने भी इस मामले में सरकार का खुलकर साथ देने का एलान किया है। पर ममता बनर्जी ने इस मामले में भी सियासी दांव चल दिया। घटना की तो खुलकर निंदा की पर अमित शाह को निशाने पर लेने से नहीं चूकी। ममता दीदी ने साफगोई से कहा कि जम्मू कश्मीर में सुरक्षा में चूक तो हुई है। खुद सरकार ने इसे माना है। पर इसकी वजह अमित शाह का गृहमंत्री होना है। उनके पास गृह मंत्रालय के काम के लिए समय ही नहीं बचता। सारा समय तो भाजपा की चुनावी रणनीति बनाने और संगठन में परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करने में ही चला जाता है। अच्छा हो कि वे भाजपा का चुनावी प्रबंधन संभालें और गृह मंत्रालय किसी दूसरे नेता को सौंप दें। इस बयान पर कोई पलटवार भी नहीं कर सकता।

पुत्र का आरोप, जद में पिता

जम्मू कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद हुई सर्वदलीय बैठक के मुद्दे पर विपक्ष ने केंद्र सरकार को भरपूर समर्थन देने का एलान किया। ज्यादातर विपक्षी नेताओं के सुर सधे हुए हैं। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भी इस मुद्दे पर सरकार को पूरा समर्थन देने का वादा किया है। लेकिन इस मसले पर पक्ष व विपक्ष का आरोप-प्रत्यारोप को सामने आना ही था और आ भी गया। भाजपा नेता व विधायक पंकज सिंह ने आतंकवादी हमले के लिए कांग्रेस की गलत नीतियों को जिम्मेदार बता दिया। इस पर कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने शुक्रवार को रक्षामंत्री के नाम के साथ तंज किया कि देश की सीमाएं तो आपसे संभलती नहीं, अपने बेटे की जुबान पर ही कम से कम काबू कर लीजिए।

समर्थन-समर्पण

पिछले साल लोकसभा चुनाव में जब भाजपा का बहुमत नहीं आया था और तेलगुदेशम व जद (एकी) जैसे सहयोगियों के दम पर सरकार बन पाई थी तो विरोधियों ने सरकार के स्थायित्व को लेकर आशंकाएं जताई थी। पर नायडु आंखें मूंदकर केंद्र सरकार का समर्थन कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने भी आंध्रप्रदेश के विकास के लिए अपने खजाने का मुंह खोल रखा है। जगनमोहन रेड्डी ने जिस अमरावती परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया था, नायडु की उस स्वप्न परियोजना के लिए केंद्र सरकार दिल से मदद कर रही है। नायडु ने भी केंद्र के आगे एक तरह से समर्पण कर रखा है। सूबे में भाजपा के महज आठ विधायक हैं। इसके बावजूद वे भाजपा को राज्यसभा की दूसरी सीट दे रहे हैं। पहली सीट जगनमोहन रेड्डी की पार्टी के सदस्य के रमैया के इस्तीफे से खाली हुई थी। रमैया भाजपा में चले गए थे। नायडु चाहते तो यह सीट तेलगुदेशम के खाते में जाती। पर उन्होंने भाजपा को भेंट कर दी। जिससे रमैया की राज्यसभा सदस्यता बतौर भाजपाई फिर हो गई। दूसरी सीट भी रेड्डी की पार्टी के ही विजय साई रेड्डी के इस्तीफे से खाली हुई है। चर्चा है कि भाजपा स्मृति ईरानी को इस सीट से राज्यसभा भेज सकती है। दूसरा नाम तमिलनाडु के अन्नामलाई का चल रहा है। जगन मोहन ने नायडु को अनेक मुकदमों मेंं उलझा दिया था। भाजपा को समर्थन के एवज में नायडु ने केंद्रीयएजंसियों से अपने ज्यादातर मामलों में ‘क्लीन चिट’ हासिल कर ली है।

जिम्मेदारी किसकी?

बिहार में सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों ही गठबंधनों में सब कुछ सहज नहीं चल रहा है। बात जब कांग्रेस की हो तो सूबे में अभी भी अपने बूते तो यह पार्टी कोई चमत्कार करने की हालत में नहीं है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की बक्सर रैली ने तो इसकी पोल ही खोल दी। रैली में तीन हजार कुर्सियां बिछाई गई थीं। भोजन का बंदोबस्त भी एक हजार लोगों के लिए किया था पर बमुश्किल चार सौ लोग पहुंचे। खाली कुर्सियां देख खरगे का पारा चढ़ गया। भाषण की शुरूआत में ही कहा कि जो चंद लोग मुझे सुनने आए हैं, उनका धन्यवाद। रैली फ्लाप होने की गाज जिला अध्यक्ष मनोज पांडे पर गिरी। उन्हें निलंबित कर दिया गया। पर क्या रैली की सफलता का जिम्मा अकेले पांडे का था? राहुल गांधी ने अपने करीबी कृष्णा अलवरू को सूबे का प्रभारी बनाया है। प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम भी इसी इलाके के हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष की रैली को सफल बनाना तो सबकी जिम्मेदारी होनी चाहिए थी। पर सहयोगी पार्टियों को दबाव में रखने की रणनीति पार्टी का कबाड़ा कर रही है।

संकलन : मृणाल वल्लरी