जब अंधविश्वास और इससे उपजी त्रासदियों पर बात होती है तब आमतौर पर यही माना जाता है कि इसकी जकड़न में दूरदराज या गांव-देहात के लोग ही होते हैं। इस मामले में शहरों को इसलिए रियायत दी जाती है कि पढ़ाई-लिखाई, जागरूकता या विज्ञान और तकनीक के विकास की वजह से ऐसे इलाकों में लोगों के सोचने-समझने का नजरिया बदलता है।

वे आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से चीजों को देखना शुरू करते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि शहरों-महानगरों में भी आए दिन ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जो लोगों की जीवन-पद्धतियों, मूल्यों पर सवाल उठाते हैं। बल्कि कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि दिन-रात तकनीक की दुनिया में जीने वाले लोग चेतना के स्तर पर इस हद तक कैसे पिछड़े रह जाते हैं कि महज किसी अंधविश्वास या बेमानी धारणा के आधार पर वे किसी की हत्या तक कर डालते हैं।

उनके भीतर विवेक इस स्तर तक अनुपस्थित हो जाता है कि सिर्फ मन में उपजे किसी शक के बाद जघन्य वारदात को अंजाम देने से पहले वे इसके नतीजों के बारे में सोच तक नहीं पाते।

राजधानी में आम हो गई हैं ऐसी त्रासदपूर्ण घटनाएं

अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली में भी इस तरह के अंधविश्वासों और उसके नतीजे में होने वाली त्रासद घटनाएं होती रहती हैं। दिल्ली के जाफरपुर कलां में सोमवार को एक व्यक्ति ने अपने पड़ोसी की चाकू से गोद कर सिर्फ इसलिए हत्या कर दी कि उसके दिमाग में अपने ऊपर ‘काला जादू’ कर दिए जाने का शक घर कर गया था।

इस मानसिकता के लोगों का दिमाग पर नहीं रहता है नियंत्रण

उसने बीच-बचाव करने वाले एक अन्य व्यक्ति पर भी जानलेवा हमला किया। जाहिर है, अब कानून अपना काम करेगा। लेकिन विडंबना यह है कि प्रगति के तमाम दावों और सख्त कानूनों के बावजूद लोगों के दिमाग से अंधविश्वास के जाले साफ नहीं हो सके हैं और इस दुश्चक्र में पड़ कर वे न केवल अपने सामान्य जीवन को बुरी तरह बाधित कर लेते हैं, बल्कि इसके असर में कई बार उनके दिमाग पर नियंत्रण नहीं रह जाता और वे हत्या जैसा जघन्य अपराध भी कर डालते हैं।

दिल्ली में अंधविश्वास की वजह से इस तरह के वाकये अक्सर सामने आते रहते हैं, जिसमें काला जादू या अन्य तंत्र-मंत्र और कर्मकांड जैसे अंधविश्वास में पड़ कर लोग किसी की हत्या या उसके खिलाफ हिंसा कर बैठते हैं।

हालांकि गांव-देहात या दूरदराज के इलाकों में ऐसी घटनाएं आम हैं और इसका कारण वहां शैक्षिक पिछड़ापन और जागरूकता के अभाव को माना जाता रहा है। लेकिन शहरों में अगर अच्छी शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान के संपर्क के सभी संसाधनों के बीच भी अंधविश्वास की जड़ें गहरी पाई जाती हैं तो यह अपने आप में एक बड़ी विडंबना है।

आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि आधुनिक मूल्यों के बीच विकसित हुए हमारे शहर भी अब तक अंधविश्वास के जाल से मुक्त नहीं हो सके हैं। खासतौर पर जिस दौर में देश विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में दुनिया भर में नई ऊंचाइयां छू रहा है, उसमें महज जादू-टोना जैसी झूठी धारणाओं की वजह से जघन्य अपराध दरअसल चेतनागत विकास की दशा और दिशा को आईना दिखाते हैं।

देश के संविधान का अनुच्छेद 51 ए (एच) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, चेतना के विकास और जरूरत को नागरिकों के बुनियादी कर्तव्य के रूप में रेखांकित करता है। लेकिन इसे लेकर न समाज में कोई व्यापक उत्साह दिखाई देता है, न सरकारें इस दायित्व के प्रति अपेक्षित सक्रियता दर्शा पाती हैं। नतीजतन, विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के बीच जमीनी स्तर पर अंधविश्वास का रोग पलता रहता है और अक्सर इसकी विकृति सामने आती रहती है।