माननीय प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी, स्वघोषित ‘मजबूत’ नेता हैं। वे अक्सर अपने छप्पन इंच के सीने का दावा किया करते थे। उनके समर्थक खान मार्केट गुट को काबू में करने, शहरी नक्सलियों को उखाड़ फेंकने, टुकड़े-टुकड़े गैंग को खत्म करने, पाकिस्तान को सबक सिखाने, आधिकारिक सह-भाषा के रूप में अंग्रेजी को खत्म करने, मुख्यधारा मीडिया को अपने अधीन करने और भारत को विश्वगुरु बनाने का दंभ भरते रहे हैं।
एक मजबूत नेता, 303 सांसदों और 12 मुख्यमंत्रियों के साथ, अलग-अलग राज्यों में प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहा है। ऐसे में अकेले भाजपा के लिए 370 (और एनडीए के लिए 400 से अधिक) सीटों की ओर बढ़ना आसान होना चाहिए था। मगर, भाजपा नेता निजी तौर पर स्वीकार करने लगे हैं कि 370 या 400 से अधिक सीटें अब हासिल नहीं हो सकतीं, अब तो अगर भाजपा को सामान्य बहुमत भी मिल जाए, तो खुशी की बात होगी।
गियर क्यों बदला?
मोदी साहब ने अपना प्रचार अभियान बड़े आत्मविश्वास और दृढ़ता के साथ शुरू किया था। कांग्रेस का घोषणापत्र पांच अप्रैल, 2024 को जारी हुआ; मोदी साहब ने उसे तिरस्कारपूर्वक नजरअंदाज कर दिया। भाजपा का घोषणापत्र 14 अप्रैल को जारी हुआ, लेकिन उसे लेकर कोई जश्न नहीं मना और न उसकी सामग्री को प्रचारित करने के लिए कोई प्रयास किया गया।
घोषणापत्र का नाम ‘मोदी की गारंटी’ रखा गया। इसकी सामग्री को दरकिनार करते हुए, जब भी मोदी साहब ने किसी रैली में कोई बयान दिया, तो उन्होंने घोषणा के साथ दावा किया कि ‘यह मोदी की गारंटी है’। मोदी की गारंटियों की गिनती अब मैं भूल चुका हूं। हालांकि, हकीकत यह है कि मोदी साहब ने- बेरोजगारों के लिए नौकरियां पैदा करने या बढ़ती महंगाई पर काबू पाने को लेकर कोई गारंटी नहीं दी, जो आम आदमी की दो सबसे बड़ी चिंताएं हैं।
मोदी साहब ने जानबूझ कर सांप्रदायिक सौहार्द, विकास, कृषि संकट, बीमार औद्योगिक इकाइयों, बहुआयामी गरीबी, वित्तीय स्थिरता, राष्ट्रीय ऋण, घरेलू ऋण, शैक्षिक मानक, स्वास्थ्य देखभाल, भारतीय क्षेत्र पर चीनी कब्जे या ऐसी सैकड़ों अन्य गंभीर चिंताओं के बारे में भी बात नहीं की- जोकि एक प्रधानमंत्री को चुनाव के दौरान करना चाहिए।
19 अप्रैल को 102 सीटों के लिए पहले चरण का मतदान पूरा हो गया। मगर शायद, 21 अप्रैल को उन्हें नुकसान का अहसास हो गया, और मोदी ने राजस्थान के जालौर और बांसवाड़ा की सार्वजनिक रैलियों में कांग्रेस पर खुल कर हमला किया। उन्होंने कहा: ‘कांग्रेस वामपंथियों और शहरी नक्सलियों के चंगुल में फंस गई है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जो कहा है, वह गंभीर और चिंताजनक है।
उन्होंने कहा है कि अगर उनकी सरकार बनी तो हर व्यक्ति की संपत्ति का सर्वे कराया जाएगा। हमारी बहनों के पास कितना सोना है, सरकारी कर्मचारियों के पास कितना पैसा है, इसकी जांच की जाएगी। उन्होंने यह भी कहा है कि हमारी बहनों का सोना समान रूप से वितरित किया जाएगा। क्या सरकार को आपकी संपत्ति लेने का अधिकार है?’ हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि 19 से 21 अप्रैल के बीच मोदी साहब को कुछ जानकारी (खुफिया?) प्राप्त हुई, जिसने उन्हें गियर बदलने के लिए मजबूर कर दिया।
झूठ पर झूठ
ऊपर दिए गए अंश में हर आरोप झूठा है। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, झूठ बड़ा और अधिक अपमानजनक होता गया। संपत्ति से लेकर सोना, मंगलसूत्र, स्त्रीधन और मकान तक, मोदी साहब ने आरोप लगाया कि कांग्रेस इन्हें जब्त कर लेगी और मुसलमानों, घुसपैठियों और अधिक बच्चे पैदा करने वाले लोगों को वितरित कर देगी।
एक अन्य रैली में, मोदी साहब धर्म-आधारित कोटा और विरासत कर पर कूद पड़े। झूठ का कोई अंत नहीं था। मोदी ने ‘भैंसों पर विरासत कर’ जैसा आर्थिक विचार-रत्न भी उछाला और कहा कि अगर किसी व्यक्ति के पास दो भैंसें हैं, तो एक छीन ली जाएगी। इसका तात्कालिक उद्देश्य स्पष्ट था। इस तरह भारतीय मुसलमानों को काले रंग से पोत कर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना और हिंदू मतदाताओं को एकजुट करना था।
प्रधानमंत्री ने कौन-से झूठ बोले हैं, यह तो महत्त्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल है कि प्रधानमंत्री ऐसे झूठ बोल क्यों रहे हैं। ध्यान दें, यह कोई एक झूठ नहीं है, यह झूठ की एक शृंखला है, और झूठ जारी है। एक प्रधानमंत्री, जो 370 या 400 से अधिक सीटें जीतने को लेकर आश्वस्त है, वह अपने विरोधियों के बारे में लापरवाही से झूठ नहीं बोलेगा। वह विपक्षी दलों को अपने कीर्तिमान पर बहस में शामिल होने की चुनौती देगा। मुख्य युद्धक टैंक के रूप में मोदी साहब का झूठ चुनना- उनका कीर्तिमान नहीं- एक रहस्य है, जिसे सुलझाया जाना बाकी है।
आत्म-संशय क्यों?
मान लीजिए कि मोदी साहब को ईवीएम में बंद रहस्यों का पता चल गया है। इस पर उनका चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि जमीनी हालात 2019 की स्थिति से बहुत अलग हैं। अव्वल तो यह कि मोदी साहब चुनाव का ‘नैरेटिव’ गढ़ नहीं पाए हैं। वे बहस की शुरुआत नहीं करते, कांग्रेस के घोषणापत्र पर प्रतिक्रिया देते हैं, भले वह काल्पनिक हो।
दूसरे, वे अपने वादे को कांग्रेस के वादे से मिलाने और मतदाताओं का ध्यान खींचने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। तीसरा, लोग भाजपा के थकाऊ नारों से नाराज हैं, लेकिन मोदी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसा कोई नया नारा नहीं गढ़ पाए हैं। चौथा, कम मतदान फीसद ने उन्हें परेशान कर दिया होगा, क्योंकि यह एक संकेत हो सकता है कि उनके वफादार मतदाता मतदान केंद्रों पर नहीं गए। आखिरकार, मतदान केंद्रों पर आरएसएस स्वयंसेवकों की अनुपस्थिति और आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की चुप्पी ने भाजपा खेमे में खतरे की घंटी बजा दी होगी।
संभव है कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को उल्लेखनीय लाभ मिले। क्या इस तरह के ‘लाभ’ से भाजपा को ‘शुद्ध घाटा’ होगा, यह लाख टके का सवाल है। संभव है कि मोदी साहब भी यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते हों कि 2024 का चुनाव किसी भी राज्य में (गुजरात के संभावित अपवाद को छोड़कर) विजेता का चुनाव नहीं है।
मोदी साहब ने शायद यह निष्कर्ष निकाला हो कि उन्हें आभासी लाभ को नहीं, बल्कि संभावित शुद्ध घाटे की गणना करनी चाहिए। हो सकता है कि उस विचार ने उन्हें चिंता में डाल दिया हो और चिंता झूठ में तब्दील हो रही हो। मैं यह अनुमान नहीं लगा सकता कि लोग किस तरह मतदान करेंगे, लेकिन मुझे विश्वास है कि लोग मोदी साहब के झूठ को समझ गए हैं। और लोगों को हैरानी हो रही है कि एक ‘मजबूत’ नेता को झूठ क्यों बोलना चाहिए।