गरिमा सिंह
समूची दुनिया के साथ-साथ देश में भी स्त्री सशक्तीकरण वर्तमान विकासशील समाज, तेजी से बदलती और आगे बढ़ती सभ्यता का एक अहम हिस्सा है। महिलाओं की भागीदारी देश, परिवार, समाज, रीति-रिवाजों, परंपराओं से लेकर, बदलती तकनीकी और आर्थिक नीतियों में भी हो रही है। पर सवाल यह है कि जब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं, उच्च शिक्षा, सिविल सेवाओं, राजनीति से लेकर मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी बौद्धिकता को प्रमाणित कर रहीं हैं, फिर क्या कारण है कि समाज आज भी उन्हें परंपरागत छवि में ही देखता है।
भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था पुरुष मानते हैं गृहकार्य से मुक्त हैं
महिलाओं की परवरिश इस प्रकार की जाती है कि उनके मानस में यह गहरे बैठ जाए कि उनका जन्म रसोईघर और बच्चे पालने के लिए ही हुआ है। इसका दूसरा पहलू वह पुरुषवादी मानसिकता भी है, जिसमें पुरुषों की परवरिश ही ऐसी होती है जहां उन्हें यह भी नहीं पता होता कि घर में क्या चीजें कहां रखी हैं। भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था पुरुषों को यह बताती है कि उनका गृहकार्य से कोई सरोकार नहीं है।
वहीं छोटी उम्र से ही बालिकाओं को यह सिखाया जाता है कि यह उनका अपना घर नहीं है। उन्हें दूसरे घर में जाने का हवाला देकर गृहकार्य में दक्ष बनाया जाता है। यही कारण है कि अधिकतर महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद नैतिक दायित्व के तहत उन थोपे हुए कार्यों को करने के लिए प्रतिबद्ध होती हैं, जो केवल उनकी जिम्मेदारी नहीं है।
लैंगिक समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान में निहित है। संविधान न केवल महिलाओं को समानता के लिए आश्वस्त करता है, बल्कि राज्य को महिलाओं के पक्ष में ‘सकारात्मक उपाय’ करने की शक्ति भी प्रदान करता है, ताकि उनके संचयी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अलाभ की स्थिति को कम किया जा सके। महिलाओं को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किए जाने (अनुच्छेद 15) और विधि के समक्ष समान संरक्षण (अनुच्छेद 14) का मूल अधिकार प्राप्त है। संविधान में प्रत्येक नागरिक के लिए यह मूल कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि वे महिलाओं की गरिमा के विरुद्ध प्रचलित अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करें।
कार्य का रूप और सीमा, राजनीतिक भागीदारी, शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य की स्थिति, निर्णयकारी निकायों में प्रतिनिधित्व, संपत्ति तक पहुंच आदि कुछ प्रासंगिक संकेतक हैं, जो समाज में व्यक्तिगत सदस्यों की स्थिति को प्रकट करते हैं। हालांकि महिलाओं की उन कारकों तक एक समान पहुंच नहीं रही है, जो स्थिति के इन संकेतकों का गठन करते हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड भारतीय महिलाओं के शिक्षा एवं रोजगार उन विकल्पों को सीमित या प्रतिबंधित करते हैं, जिनमें शिक्षा प्राप्त करने के विकल्प से लेकर कार्यबल में प्रवेश और कार्य की प्रकृति तक सब शामिल हैं।
शिक्षा और कौशल के माध्यम से महिलाओं को व्यवसाय की ओर प्रोत्साहित कर भी इन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ किया जा सकता है। विशेषकर कृषि प्रसंस्करण उद्योगों, बैंकिंग सेवाओं और डिजिटलीकरण की सहायता से महिलाओं के सामाजिक और वित्तीय सशक्तीकरण की शुरुआत की जा सकती है। भारतीय महिलाएं ऊर्जा से भरपूर, दूरदर्शिता, जीवंत उत्साह और प्रतिबद्धता के साथ सभी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। प्राचीन काल से ही महिलाएं मानवता की प्रेरणा का स्रोत रही हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से लेकर वर्तमान भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले तक, महिलाओं ने बड़े पैमाने पर समाज में बदलाव के बड़े उदाहरण स्थापित किए हैं।
लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण करना सतत विकास के लक्ष्यों में एक प्रमुख प्राथमिकता है। वर्तमान में प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, समावेशी आर्थिक और सामाजिक विकास जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है। महिलाओं में जन्मजात नेतृत्व गुण समाज के लिए संपत्ति हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी धार्मिक नेता ब्रिघम यंग ने ठीक ही कहा है कि जब आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं, तो आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं, लेकिन जब आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो आप एक पीढ़ी को शिक्षित करते हैं।
कहा जा सकता है कि भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में एक लंबा रास्ता तय किया है, मगर आज भी वे अनेक समस्याओं से जूझ रहीं हैं। तेजी से भागते समय के इस पहिये के साथ हमारी रफ्तार बहुत धीमी है और इस रफ्तार को तभी बढ़ाया जा सकता है जब भारतीय समाज पितृसत्तात्मक मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार प्रदान करेगा।
हालांकि हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिए गए हैं, लेकिन यहां का समाज अपने नियमों के अनुसार, महिलाओं को संचालित करता है, जिसमें बदलाव की सख्त जरूरत है। भारतीय महिलाएं भी संसार की अन्य महिलाओं की तरह अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। जरूरत यह है कि उन्हें उपयुक्त अवसर प्रदान किए जाएं, उनका वस्तुकरण करने के बजाय उन्हें मनुष्य समझा जाए।