मान्यता है कि दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है, क्योंकि स्वादिष्ट भोजन हर किसी को तृप्त और खुश कर देता है। मनुष्य के शरीर का पालन-पोषण और उसकी वृद्धि भोजन द्वारा ही होती है। चंचल जिह्वा की चाह व्यंजन के स्वाद से ही पूरी होती है। इसीलिए हमारी भारतीय संस्कृति सह-परंपराओं में भोजन को विशेष महत्त्व और स्थान दिया गया है। पूरे चराचर जगत के समस्त जीवों में भोजन की विविध श्रेणी और प्रकार बंटे हुए हैं।

मानव जीवन ने अपनी सभ्यता के क्रमिक विकास से ही अलग-अलग किस्म के भोजन को अपनाते हुए शारीरिक स्वास्थ्य-सह-सुदृढ़ता सुनिश्चित किया है। पारंपरिक भोजन से व्यक्ति सेहतमंद होते थे, क्योंकि इसमें विटामिन के समस्त अवयवों का समावेश होता था। भोजन की आचार संहिता में मौसम के हिसाब से खाने-पीने के व्यंजनों का इस प्रकार वर्गीकरण निर्धारित था कि शरीर और मौसम के तापमान में संतुलन बना रहे।

पारंपरिक भोजन के तत्त्वों में औषधीय गुणों के लक्षण भी होते थे, जिससे व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहती थी। रसोई घर में आज जितने भी मसाले, यथा काली मिर्च, हल्दी, मिर्च, धनिया, दालचीनी, इलायची, मेथी, जीरा, लहसुन आदि के उपयोग विभिन्न व्यंजनों में हो रहे हैं, वे प्राचीन काल से ही मौजूद रहे हैं। इन मसालों का प्रयोग अलग-अलग प्रांतों के विभिन्न भोजन व्यंजनों में वहां की पारंपरिक तरीकों में पहले से आज भी उपयोग में लाया जा रहा है।

आयुर्वेद में प्रत्येक ऋतु और व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार आहार का तर्कसंगत प्रावधान पाक-शास्त्र में निरूपित है। देश दुनिया के पारंपरिक समुदायों का रुझान सदैव ऐसे भोजन व्यंजनों पर रहा है, जो सेहत की दृष्टि से अत्यंत पोषक हों। बदलते आहार और भोजन शैली के तरीकों ने मोटापा, मधुमेह, पेट की बीमारी, रक्तचाप, दमा, कैंसर जैसे गंभीर रोगों में वृद्धि कर दी है। बिना मौसम की सब्जियां और अन्य फसल पूरे वर्ष रासायनिक पदार्थों के बल पर उगाई जाने लगी हैं, जिससे व्यावसायिक वृद्धि के साथ पुरानी कृषि पद्धति में भी बड़ा परिवर्तन आ गया है। विडंबना यह भी है कि इसके चलते बने भोजन के पुरातन स्वाद अपनी साख से बिछड़ गए हैं।

सहज रूप में हम देख रहे हैं कि आज के भागदौड़ के जीवन में पुरानी शैली में भोजन पकाना विसर्जन के कगार पर है। नगरीय संस्कृति और आचार-विचार ने भोजन की पुरानी पद्धति को बदल कर ‘फास्ट फूड’ की ओर अधिक प्रवृत्त कर दिया है। हालांकि शहर के जिन घरों में वर्तमान पीढ़ी से पहले की पीढ़ी के सदस्य हैं, वहां परंपरा का खयाल रखते हुए आंशिक रूप में विरासतीय भोजन व्यंजन जीवित हैं।

चूंकि भारत गांवों का देश है, जहां देश की करीब साठ से पैंसठ फीसद आबादी आवासित हैं। वे अपनी जीवनशैली के अधिकांश प्रकल्प पारंपरिक परिवेशीय तरीकों को अपनाते हैं, क्योंकि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी चकाचौंधपूर्ण बाजारवाद का पूरी तरह आगमन नहीं हुआ है। मौसम के हिसाब से ग्रामीणों के भोजन व्यंजन का सेवन उनके अच्छे स्वास्थ्य का प्रमाण है। घर में पके भोजन के बजाय बाजारी भोजन शीघ्रता में बिना किसी परिश्रम के तुरंत प्राप्त तो हो जाते हैं, लेकिन दोनों के स्वाद में काफी अंतर देखा जाता है।

एकल परिवार की वृद्धि ने भी व्यक्ति को आत्मकेंद्रित करते हुए विलुप्त होते भोजन व्यंजन का शिकार बनाया है। बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं, जब जाड़े के मौसम में दादी मेथी के लड्डू बड़े जतन से बनाती थीं और हम सबको दवा के रूप में सुबह-शाम दिया जाता था, ताकि शरीर को सर्दी से बचाया जाए। मां, चाची के हाथों बनी मौसमी खानपान की एक अलग पहचान होती थी।

इसी ऋतु में मक्के और चावल के आटे की रोटी सहित गुड़ और मेवे डालकर पिट्ठे, दाल की बनी नमकीन पिट्ठी, ईख रस की खीर, पालक सरसों, चना, बथुआ के साग पूरे मौसम भर पकते थे। इसी प्रकार गर्मी के मौसम में पेय पदार्थ के रूप में जहां बेल का शरबत, छाछ, वहीं तैयार सब्जी के तौर पर चने, मूंग, उड़द दाल की बड़ी, दनौरी, अदौरी, तिसौरी आदि अधिक मात्रा में बनते थे, जो वर्षा ऋतु में सब्जी की कमी के कारण भोजन की थाली में एक सही और स्वादिष्ट विकल्प रहता था।

बुनियादी सवाल यह है कि काल के कपाल पर हुए चक्र परिवर्तन से पूरी मानव शैली बदल चुकी है, लेकिन शरीर को स्वस्थ रखने का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भोजन के प्रति हमारी सोच और किए जा रहे लापरवाही की क्या परिणति होगी? रोगों में वृद्धि हमारे दोषपूर्ण खानपान एक मुख्य कारण है। हमारे पूर्वजों के निरोग रहने के पीछे उनके अनुशासित खानपान प्रमुख दैनंदिनी का हिस्सा हुआ करता था।

स्वास्थ्य सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से हमें सावधान कर रहे हैं कि साठ से सत्तर फीसद हमारे खानपान की सही शैली हमें रोगों से दूर रख सकती है। पुरखों के अमृत वचन ‘जैसा अन्न वैसा मन’ भले अतीत का आख्यान रहा हो, लेकिन रोगों की रफ्तार को रोकने में यह निश्चित रूप से फलदायी हो सकेगा, बशर्ते हम बिसरती भोजन विधा के आंशिक अंश से भी जुड़ने की चेष्टा करें।